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गज़ल ----" इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है "

2122     2122     2122

पूछता मैं फिर रहा हूं हर किसी से      

क्या निकल सकते हैं ऐसी बेबसी से

मंज़िलों के वास्ते कितने हैं पागल  

हर किसी को पूछना है तिश्नगी से         

इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है

लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से

आदमीयत की महज़ तो आरजू है

और हमको चाहिये क्या आदमी से

धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें

धूल खाते लटकते जो अलगनी से

.

          गिरिराज भंडारी

 मौलिक एवँ अप्रकाशित 

 

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 26, 2013 at 6:51am

आदरणीय सतीश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका हार्दिक आभार !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 26, 2013 at 6:49am

आदरणीय सूबे सिंह जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका दिली आभार !!

Comment by satish mapatpuri on August 26, 2013 at 2:26am

आदमीयत की महज़ तो आरजू है
और हमको चाहिये क्या आदमी से
 बिल्कुल .... इंसान से इंसानियत की उम्मीद तो की ही जां सकती है ........ बधाई भंडारी साहेब

Comment by सूबे सिंह सुजान on August 25, 2013 at 11:39pm

गिरिराज जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है....

यह आपकी चिन्ता जो ग़ज़ल में दिखाई दे रही है यह आज के समाज में वाक्य में गहरा गई है। इसका हल हमें संतोष से रहना होगा, जो हमारे बीच है नहीं।।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2013 at 10:20pm

नीरज भाई,  बहुत बहुत शुक्रिया , आपने शे र पूरी तरह से आत्मसात किया !! आभार !!

Comment by Neeraj Nishchal on August 25, 2013 at 10:12pm

धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें

धूल खाते लटकते जो अलगनी से
बस यही ज़रूरत है आज की धर्म जो
इंसान को बाँटता है उस से बड़ा अधर्म
कुछ और नही है ऐसे धर्मो का राम नाम
सत्य ही कर देना चाहिए , धर्म के ठेकेदारों
ने जितना हमें लूटा है शायद ही किसी और ने लूटा हो .
अब ज़रूरत है जागने की , अब ज़रूरत है बदलने की
और एक ही धर्म में रंग जाए ये दुनिया वो धर्म है
प्रेम का सद्भावना का इंसानियत का समभाव का ,
आपकी ये ये कविता से बहुत बहुत आह्लादित हूँ
और विशेष कर इस पक्तिं से ,
बहुत बहुत शुभकामनाएं गिरिराज भाई ।

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