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लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं

तट से चिपके रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

जो आवाज़ उठाएँगे वो कुचले जाएँगे

लेकिन सबकुछ सह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

सबसे आगे हो जो सबसे पहले खेत रहे

सबसे पीछे रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

रोने पर कमज़ोर समझ लेती है ये दुनिया

आँसू पीकर रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

धीरे धीरे सबका झूठ खुलेगा, पर ‘सज्जन’

सबकुछ सच-सच कह जाने के अपने ख़तरे हैं

 ----------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 8, 2015 at 10:05pm

शुक्रिया आदरणीय लडीवाला जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 8, 2015 at 10:05pm

शुक्रिया आदरणीय गोपाल नारायन जी

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 18, 2015 at 5:20pm

बेहतरीन ग़ज़ल रचना हुई है श्री धर्मेन्द्र सिंह  जी  बधाई  स्वीकारे 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 17, 2015 at 2:43pm

आ० धर्मन्द्र जी - बहुत ही खूबसूरत खतरे हैं . सादर .

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2015 at 11:41am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2015 at 11:41am

बहुत बहुत आदरणीय गिरिराज जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2015 at 11:41am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरनीय रवि शुक्ला जी, आप सही कह रहे हैं। लंबा रदीफ़ लेने पर ग़ज़ल में एकरसता आ ही जाती है। यहाँ भी ऐसा हो रहा है।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2015 at 11:39am

शुक्रिया आदरणीया  राजेश कुमारी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2015 at 11:35am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 16, 2015 at 11:25pm

बढिया है.  चित भी मेरा, पट भी मेरा. मिसरा उला की विसंगतियों को मिसरा सानी की सीमाओं से बराबर का जोड़ मिल रहा है. इस ग़ज़ल पर आपकी अपनी व्यक्तिगत छाप है. 

शुभेच्छाएँ 

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