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ये आह पानी ,वो वाह पानी ,
कर गया आखिर तबाह पानी !

कभी बादलों से रही शिकायत ,
जिधर डालिए अब निगाह पानी !

दिखे ऐसे मंजर,उतराती लाशें
उठे दर्द,चीखें,कराह पानी !

जहां ज़िंदगी मांगने को गए थे,
कर के गया सब सियाह पानी !

रहम करनेवाला खुद ही परीशां
माँगी है तुझसे पनाह पानी !

____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ

(मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment by Savitri Rathore on June 24, 2013 at 7:10pm

समसामयिक विषय पर सराहनीय प्रयास .......बधाई !

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 21, 2013 at 9:16pm

जहां ज़िंदगी मांगने को गए थे,
कर के गया सब सियाह पानी !

रहम करनेवाला खुद ही परीशां
माँगी है तुझसे पनाह पानी !

बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ !

Comment by Kundan Kumar Singh on June 21, 2013 at 4:12pm

बहुत ही अच्छा प्रयास। एक समसामायिक विषय पर।

Comment by बृजेश नीरज on June 21, 2013 at 4:09pm

आदरणीय इस रचना पर मेरी बधाई स्वीकारें!

Comment by Shyam Narain Verma on June 21, 2013 at 1:31pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ...............
Comment by aman kumar on June 21, 2013 at 12:10pm

 हिमाचल और उत्तराखंड मे हुई  पानी से हुई तबाही , से आज पूरा देश स्तब्ध है \

यदि कविता मे कुछ विस्तार होता तो ..........

अति सुंदर !

Comment by बसंत नेमा on June 21, 2013 at 10:30am

हकिकत को बयाँ करती बहुत सुन्दर रचना /... बधाई 

Comment by coontee mukerji on June 21, 2013 at 10:25am

जहां ज़िंदगी मांगने को गए थे,
कर के गया सब सियाह पानी !

रहम करनेवाला खुद ही परीशां
माँगी है तुझसे पनाह पानी !............इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 21, 2013 at 9:44am

आ0 विश्वम्भर सर जी, बहुत ही सम-सामयिक गजल हुई।
‘दिखे ऐसे मंजर,उतराती लाशें
उठे दर्दएचीखेंएकराह पानी !
जहां ज़िंदगी मांगने को गए थे,
कर के गया सब सियाह पानी !
रहम करनेवाला खुद ही परीशां
माँगी है तुझसे पनाह पानी !‘... असहनीय पीड़ा का सजीव चित्रण। क्या कहूं? आपके मर्म को कोटिशः नमन। सादर,

Comment by D P Mathur on June 21, 2013 at 7:09am

जहां जिंदगी मांगने को गए थे,
कर के गया सब सियाह पानी !

आदरणीय शुक्ल सर ,बिल्कुल सत्य है वो ना हो तो कष्ट,
और ज्यादा हो तो भी कष्ट ,कैसी त्रासदी है,
जीव कितना असहाय है !

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