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व्यंग्य - उपाधि मिलने की वाहवाही

‘उपाधि’ देने की परिपाटी बरसों से है। बदलते समय के साथ यह परिपाटी अब पूरे रंग में है। पहले आप कुछ नहीं होते हैं। उपाधि मिलते ही आप रातों-रात उपलब्धि की सभी उंचाई पार लगा लेते हैं। हर तरफ बस वाहवाही रहती है। जब हर कहीं सम्मान मिले और नाम के आगे चार चांद लग जाए। ऐसी स्थिति में कौन नहीं चाहेगा, किसी उपाधि से सुशोभित होना। उपाधि पाने का कीड़ा जब काटता है, उसके बाद उपाधि छिनने की करामात भी करनी पड़ती है। माथे पर उपाधि की मुहर लगते ही एक अलग पहचान बनती है। आने वाली पीढ़ी भी उपाधि के सहारे ही जानती हैं कि वे कितने गहरे पानी में हैं और इससे उबरने, ऐसी शख्सियत बनने जोड़-तोड़ के साथ हाथ-पैर भी मारना पड़ता है।
खुद को उपाधि से सुशोभित करने की ललक न जाने कब से मन में समाया हुआ है। जब किसी को उपाधि लेते देखता व सुनता हूं तो मेरे तन-बदन में आग लग जाती है, शरीर में जलन, इस कदर बढ़ जाती है कि उस उपाधि को छिनने का मन करता है, क्योंकि यही खेल तो चल रहा है। कारण भी है, मुझमें क्या कमी है, जो उपाधि नहीं मिल सकती। इतना तो जानता हूं कि उपाधि मिलने के बाद मेरा कद जरूर बढ़ जाएगा।
वैसे मैं इतना जानता हूं कि किसी भी तरह से मेरा कद उंचा नहीं है। न शरीर से और न धन से, बस थोड़ी बहुत लिख-पढ़कर कद उंचा करने की कोशिशें जारी हैं। मकसद, एक ही है, ‘उपाधि’ मिल जाए। उपाधि भी ऐसी हो, जिसके बाद अपना अनजाना चेहरा किसी पहचान का मोहताज न हो। जिस जगह से गुजरो, वहां चार लोग जान-पहचान के मिल जाए। वहां खुद को मिली महान उपाधि की वाहवाही किए बगैर कोई न रह सके। तब देखो, कैसे सीना चौड़ा हो जाएगा।
ये तो मैं देखते रहता हूं कि कैसे उपाधि रेवड़ी की तरह बंट रही है। कुछ दिनों पहले भी ऐसी ही खबरें आईं, इसके बाद मेरा मन एक बार फिर चहक उठा। बरसों से मन में दबी उपाधि पाने की चाहत, फिर जाग गई। अब चिंता सताने लगी कि इस बेचैन मन को कैसे मनाउं ? मेरा मन रह-रहकर उपाधि के सपने देखते रहता है। आखिर वो पल कब आएगा, जब मेरा मन शांत होगा और मुझ जैसे अभागे को कोई उपाधि मिलेगी ?
मैं सोचता हूं कि उपाधि पाने की कतार में न जाने कब से लगा हूं, मेरा नंबर क्यों नहीं आता। जरूर कुछ न कुछ गड़बड़झाला है, नहीं तो कैसे मैं इस उपलब्धि से महरूम रहता ? ये तो निश्चित ही किसी की साजिश होगी, क्योंकि बिना किसी के टांग खींचे, ऐसा संभव नहीं है। नेता तो बात-बात में साजिश की दुहाई देते हैं, मैं किस बात की दुहाई दूं। मुझे तो कारण ही समझ नहीं आ रहा है। बस, मैं खुद को हर कोण से उपाधि पाने के काबिल मानता हूं। ये अलग बात है कि देने वाले मुझे काबिल नहीं मानते।
मेरे मन में इस बात पर कोफ्त होती है कि चलो, मैं तो काबिल नहीं हूं, मगर जिन्हें मिलता है, वे कितने काबिल होते हैं। बस, उपाधि, पद के पीछे भागती है और देने वाले उपलब्धि के पीछे। अपने पास कोई उपलब्धि नहीं है। जो है, उसे कोई मानने को तैयार नहीं है। अब इसमें मेरा क्या दोष है। मैं तो मानता हूं, मुझमें हर खूबी है और उपाधि का हकदार भी हूं।
मुझे हर तरह से वाहवाही लेनी है। मुझमें बुखार चढ़ा है कि कैसे भी करके एक उपाधि हासिल करनी ही है। जैसे अन्य लोग उपाधि पा लेते हैं, मुझे भी किसी भी तरह से उपाधि लेनी ही है। हालांकि, मुझे शार्टकट का रास्ता नहीं आता। यदि कोई रास्ता हो और उपाधि दिलाने कोई मदद कर सके तो उनका आभारी रहूंगा। इसके बाद फिर क्या है, मैं वाहवाही के सागर में डूबकी लगाता रहूंगा।

राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं।

जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा . - 074897-57134, 098934-94714, 099079-87088

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Comment by Saurabh Pandey on September 2, 2011 at 2:51am

उपाधियाँ कैसी भी हों, उनके रेवड़ी-बाँट हश्र पर लेखक का व्यंग्य सटीक है.  नाम और प्रसिद्धि के पीछे मतवाले हुए जा रहे समाज में ’को बड़ छोट कहत अपराधू..’ की दशा व्याप्त है.

राजकुमारजी का यह सफल प्रयास जागरुक और सुधी पाठकों की दृष्टि से अवश्य गुजरे, इन शुभकामनाओं के साथ उन्हें मेरी ढेर सारी बधाइयाँ.

 

Comment by monika on September 2, 2011 at 2:08am

बहुत बढ़िया. अब इतना प्रयास कर ही रहे है तो उपाधि तो ज़रूर मिल ही जाएगी और जब आपको मिल जाए तो हमें भी दिलवा दीजिएगा. अजी एसी उपाधि तो सभी चाहते हे हम भी उन्ही कतार मे खड़े हे

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