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विरही मन कहता फिरे, समझे पीड़ा कौन
आँगन,पनघट, राह सह, हँसी उड़ाये भौन।१।
*
करते   हैं   दो  चार   जो, परदेशी  से नैन
जले विरह की आग में, उन का मन बेचैन।२।
*
घुमड़ी बदली देखकर, मन में भड़की आग
जिस के पिय परदेश में, फूटे उस के भाग।३।
*
जब साजन परदेश में, शृंगारित ना केश
सावन दावानल लगे, जलता हर परिवेश।४।
*
पिया मिलन की प्यास जो, तन मन करे अधीर
रूठी-रूठी भूख  को, लगती  विष  सी खीर।५।
*
विरही  मौसम  मारता,  विषधर  जैसा डंक
पीड़ित इस से सब हुए, क्या राजा क्या रंक।६।
*
पिय पथ सदा निहारते, कट जाती हर साँझ
मिलन बीज फूटा नहीं, अब तक आशा बाँझ।७।
*
नयन बह रही धार को, आँचल रहा समेट
उम्मीदों का नित  हुआ, सूने  पथ आखेट।८।
*
जब हो प्रीतम  साथ  तो, काली  रैन सबेर
बिछुड़े मन का मीत जो, लगता सब अन्धेर।९।

*

क्या पाती क्या तार अब, क्या इनका संज्ञान
अब मोबाइल हो  गया, विरही  कृपा निधान।१०।
*****
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 7, 2024 at 10:14pm

आ. भाई आजी तमाम जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।

Comment by Aazi Tamaam on August 6, 2024 at 12:12am

वाह वाह बहुत ख़ूब आ मज़ा आ गया धामी सर पढ़ कर दोहे 

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