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मजदूर अपने गाँव के सस्ते नहीं गये -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

पथ से खुशी के दुख भरे काँटे नहीं गये
निर्धन के पाँव से  कभी  छाले नहीं गये।१।
**
दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर
होगी  गरीबी  दूर  के  वादे  नहीं  गये।२।
**
जिन्दा नहीं तो मरके वो पाये हैं लाख जो
मजदूर  अपने  गाँव  के  सस्ते  नहीं  गये।३।
**
कहते हैं इसको  आपदा  चाहे जरूर वो
शासन से इसके पर कभी रिश्ते नहीं गये।४।
**
किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की
आँगन में जिसके  फूल  के  डाले नहीं गये।५।
**
फिरते हैं श्वेत वस्त्र में बेदाग होके नित
जिनके भी काम दोस्तो काले नहीं गये।६।
**
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 21, 2020 at 5:06pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।

Comment by Samar kabeer on May 21, 2020 at 2:19pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 21, 2020 at 6:50am

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए आभार ।

Comment by TEJ VEER SINGH on May 20, 2020 at 11:56am

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी। बेहतरीन गज़ल।

किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की
आँगन में जिसके  फूल  के  डाले नहीं गये।५।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on May 19, 2020 at 9:25pm

आप ठीक फरमा रहे हैं इन दिनों मैं फेस बुक पर था। लेकिन इस साइट पर मैं यदा-कदा आता था। इस साइट पर बेबाकी से ग़ज़लों पर टीका टिप्पणी की जाती है जिसके कारण कमियां मालूम होती हैं। मुझे ए साइट बहुत प्रिय है

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 19, 2020 at 3:52pm

आ. भाई राम अवध जी, सादर अभिवादन । लम्बे समय बाद आपकी उपस्थित से हर्ष हुआ । गजल को मान देने के लिए मन से आभार ।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on May 19, 2020 at 3:13pm

दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर

होगी गरीबी दूर के वादे नहीं गये

वाह वाह हर सरकार यही वादा करके सत्ता में आती है और फिर पांच साल तक भूल जाती है

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