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ग़ज़ल (मातृ दिवस पर विशेष)

2122 2122 2122 212

ख़ुद रही भूकी मुझे जी भर खिलाना याद है
मुफ़लिसी में टाट का 'स्वेटर' बनाना याद है

इम्तिहां कोई भी हो आशीष देती थी सदा
मां का हाथों से दही चीनी खिलाना याद है

एक मुर्शिद की तरह से हाथ सर पर फेरती
मैंने क्या कीं ग़लतियां इक इक गिनाना याद है

पाठशाला हम न जाएंगे ये ज़िद जब हमने की
पकड़े कान और खींच कर बस्ता थमाना याद है

बद-नज़र से दूर रखना था सियह टीका लगा
जो हरारत थोड़ी भी हो सहम जाना याद है

माँ सा तो मुश्क़िल कुशा मिल ही न पाया अब तलक
वालिहाना देना पंद-ए-मुश्फ़िक़ाना याद है

अब सिवा यादों के तेरी है 'क़दम' के पास क्या
जो नसीहत दीं अमल में मुझको लाना याद है

मुश्क़िल कुशा ..मुश्क़िल दूर करने वाला
वालिहाना..प्रेम से
पंद-ए-मुश्फ़िक़ाना....स्नेहिल सलाह या दिशा निर्देश


क़दम जयपुरी
जयपुर
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना

Views: 418

Comment

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Comment by Samar kabeer on May 13, 2020 at 11:41am

जनाब क़दम जयपुरी जी आदाब,ओबीओ मंच पर आपका स्वागत है ।

ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।


'बद-नज़र से दूर रखना था सियह टीका लगा
जो हरारत थोड़ी भी हो सहम जाना याद है'

इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं हुआ,देखियेगा ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 13, 2020 at 8:51am

आ. भाई ओमप्रकाश जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Om Prakash Agrawal on May 11, 2020 at 12:05pm
सहृदय धन्यवाद आदरणीय सराहना हेतु
Comment by TEJ VEER SINGH on May 11, 2020 at 11:51am

हार्दिक बधाई आदरणीय ओम प्रकाश अग्रवाल जी।मातृ दिवस के अवसर पर एक बेहतरीन गज़ल।

माँ सा तो मुश्क़िल कुशा मिल ही न पाया अब तलक
वालिहाना देना पंद-ए-मुश्फ़िक़ाना याद है

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