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बृजेश नीरज's Blog – February 2013 Archive (9)

तुम एक धारा

तुम अविराम हृदय में

गहरे पैठे जाते हो

कैसे रोकूं तुमको कि

जाने क्या कर जाते हो

 

तुमसा दूजा कौन जगत में

जिसका मैं विश्वास करूं

पर तुम हो मेरे मन में…

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Added by बृजेश नीरज on February 28, 2013 at 8:17pm — 18 Comments

दम तोड़ देगी

कविता कराह रही है

गली के नुक्कड़ पर पड़ी हुई

 

तेज रफ्तार जिंदगी

रौंदकर चली गयी उसे

 

स्वार्थ और वासना के वस्त्रों पर

प्रेम की ओढ़नी ओढ़े

समाज तमाशबीन…

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Added by बृजेश नीरज on February 26, 2013 at 7:33pm — 13 Comments

लघुकथा : उत्तर की तलाश

एक मित्र ने पूछा, "तुम कब पैदा हुए थे ?"

"शायद तब जब लाल  बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे, नहीं शायद गुलजारी लाल नन्दा या इंदिरा में से कोई प्रधानमंत्री था," मैंने उत्तर दिया।

"तुम्हें इतना भी याद नहीं।"

"बच्चा था न- दुनियादारी, राजनीति, से दूर"

"अब क्या हो?"…

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Added by बृजेश नीरज on February 24, 2013 at 7:00pm — 18 Comments

छांव की आस है

तेज धूप में छांव की आस है

रेत के बीच बढ़ रही प्यास है

 

हाथ में तीर और तलवार है

वो जो मेरे दिल के पास है

 

कथन के अर्थ को समझ लेना

अपनों की अपनों से खटास है…

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Added by बृजेश नीरज on February 23, 2013 at 7:00pm — 22 Comments

लघुकथा - बंदर

आजादी के समय देश में हर तरफ दंगे फैले हुए थे। गांधी जी बहुत दुखी थे। उनके दुख के दो कारण थे - एक दंगे, दूसरा उनके तीनों बंदर खो गए थे। बहुत तलाश किया लेकिन वे तीन न जाने कहां गायब हो गए थे।

एक दिन सुबह अपनी प्रार्थना सभा के बाद गांधी जी शहर की गलियों में घूम रहे थे कि अचानक उनकी निगाह एक मैदान पर पड़ी, जहां बंदरों की सभा हो रही थी। उत्सुकतावश गांधीजी करीब गए। उन्होंने देखा कि उनके तीनों बंदर मंचासीन हैं। उनकी खुशी का ठिकाना…

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Added by बृजेश नीरज on February 21, 2013 at 7:30am — 21 Comments

लघुकथा

निदान

                                    गांव के बाहर मन्दिर में जोर-जोर से शंख और घड़ियाल बज रहे थे। एक सप्ताह से वहां पूजन चल रहा था। अब आरती हो रही थी। पण्डित जी ने आश्वस्त किया था कि नदी के कगार टूटने से गांव पर जो बाढ़ का खतरा मंडरा रहा था वह इस पूजन से टल जाएगा।

                                    गांव वालों के पास भी कोई रास्ता नहीं था पण्डितजी की बात मानने के सिवा। जिस बात की गारण्टी सरकार नहीं दे सकती उसकी गारण्टी यदि पण्डित दे रहा हो तो बात मानने में क्या बुराई। कगार…

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Added by बृजेश नीरज on February 20, 2013 at 5:30pm — 11 Comments

तुम

मैं महसूस करता हूँ

जब भी

अंदर तक बिखरा

तुम्हारे कदमों की आहट

फिर से समेट देती है

मेरा अंर्तमन

चेतनशून्य से

चैतन्यता लौट आती है

मेरे…

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Added by बृजेश नीरज on February 18, 2013 at 11:31pm — 15 Comments

पर्वत पिघलने से रहा

यहां कोई क्रांति नहीं होने वाली

लाख हो-हल्ला हो

धरने और अनशन हों

 

क्रांति की सामग्री मौजूद नहीं यहां

जाति, धर्म, क्षेत्र में बंटे

लोग क्रांति नहीं करते

अपने पेट की फिकर में…

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Added by बृजेश नीरज on February 17, 2013 at 9:48am — 10 Comments

चिल्लाओ कि जिंदा हो

आखिरी बार कब चिल्लाए थे तुम

याद है तुम्हें?

 

जब पैदा हुए थे

तब शायद

गला फाड़कर

पूरी ताकत के साथ

चीखकर रोए थे तुम

क्योंकि तब…

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Added by बृजेश नीरज on February 17, 2013 at 8:56am — 16 Comments

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