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All Blog Posts Tagged 'व्यंग्य' (58)

एक और कसम-व्यंग्य

दोस्त क्यूँ होते हैं, इस सवाल का जवाब जिंदगी के अलग अलग समय में अलग अलग हो सकता है. लेकिन एक जवाब तो कामन है कि जो आपके लिए हमेशा खड़ा रहे, आपकी हर मुसीबत में काम आए, वही असली दोस्त होता है. बहरहाल अधिकांश दोस्त ऐसे होते भी हैं, बस कुछेक अपवाद को छोड़कर.

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अगर सियापा ही न करें तो दोस्त कैसे, ये अलग बात है कि आप माने या न माने. अमूमन ऐसे दोस्त तो जिंदगी के शुरूआती दिनों में ही मिलते हैं जब आपके ऊपर किसी किस्म के सियापे का कोई असर नहीं पड़े. और मुझे तो बिलकुल नहीं…

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Added by विनय कुमार on March 19, 2019 at 7:00pm — 2 Comments

चाँद का मिलना - व्यंग्य

ठहाकों की आवाज़ से कमरा गूंज रहा था, आज बहुत सालों बाद रीमा का सहपाठी रोहन उससे मिलने आया था| पिछले दो घंटे से पिछले १५ सालों की बातें दोनों एक दूसरे को बता रहे थे और साथ पढ़े बाकी दोस्तों के बारे में भी एक दूसरे को बताते जा रहे थे| रीमा ने रमेश को भी बता दिया था कि ऑफिस से जल्दी आ जाना और उसने हामी भर दी थी|

अचानक बात का सिलसिला कॉलेज के जमाने के शौक के बारे में चल निकला| रोहन ने एक गहरी सांस ली और अपने सर पर हाथ फेरते हुए बोला "यार, तुम्हारी एक आदत मुझे अब भी नहीं भूलती| कितना चिढ़ती थी…

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Added by विनय कुमार on November 23, 2016 at 7:00pm — 4 Comments

साहित्यकार कलाकार या गिरगिट के अवतार [व्यंग्य]. अखिलेश कृष्ण

अजी सुनते हो ..... पप्पू के पापा ।

 

धीरे बोलो भागवान, पड़ोसी क्या सोचेंगे।

 

मैंने कहा छोटे बड़े मँझले साहित्यकारों और पुरस्कृत कुछ लोग लुगाइयों में सम्मान लौटाने की होड़ लगी है। इन सब के थोपड़े हर चैनल्स में बार बार दिखाया जा रहा है। आप भी अपना सम्मान लौटा दीजिये।

 

कौन सा सम्मान ?

 

ये लो, ऐसे पूछ रहे हो जैसे 10–20  पुरस्कार और सम्मान प्राप्त कर चुके हो और सिर्फ नोबेल पुरस्कार ही लेना बाकी है। अरे जीवन में एक ही बार तो सम्मानित…

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Added by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 20, 2015 at 2:19pm — 9 Comments

अमीरी की नई परिभाषा ( व्यंग्य कविता) अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

बच्चन पूछे केबीसी में , रट लो शायद काम आए।                                                              

अमीरों की नई सूची बनेगी, शायद तेरा नाम आए॥                                             

 

प्याज के संग जो रोटी खाये, गरीब नहीं कहलाएंगे।                                        

तैंतीस रुपये कमाने वाले,…

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Added by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 23, 2013 at 3:30pm — 15 Comments

जुम्मन ख़ाँ (व्यंग्य -रचना)

__________________

जुम्मन ख़ाँ

__________________

अब तो थोड़ा सोचो और विचारो जुम्मन ख़ाँ

मेरी मानो अपना हाल सुधारो जुम्मन ख़ाँ .

 

सच्चाई को कब तक ओढ़ो और बिछाओगे

ख़ुदग़र्ज़ी से, मक्कारी से आँख चुराओगे

मुँह में रखकर राम बगल में छुरी नहीं रखते

नीयत कभी किसी की ख़ातिर बुरी नहीं रखते

निश्छल चेहरे पर छाया जो ये भोलापन है

सच मानो जुम्मन ख़ाँ सबसे शातिर दुश्मन है

थोड़ा सा तो डूबो धन-दौलत की चाहत में…

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Added by अजीत शर्मा 'आकाश' on October 13, 2013 at 2:30pm — 12 Comments

हास्य व्यंग्य : महिला दिवस

हास्य व्यंग्य



आज के दिन यानि महिला दिवस के दिन,

महिला ने अपने पति की पिटाई,

पति ने थाने में शिकायत लगाई,

थानेदार ने महिला थाने में बुलवाई,

महिला थानेदार को देख घुरराई,…

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Added by rajinder sharma "raina" on March 8, 2013 at 7:00pm — 4 Comments

साँतवे सिलिंडर का इंतज़ाम (व्यंग्य) // शुभ्रांशु पाण्डेय

फिलहाल शादी का सीजन खत्म हो चुका है. शादी के सीजन के खत्म होने पर समझिये सभी के लिये आराम का समय. आराम यानि मन का आराम, तन का आराम, धन का आराम और पेट का आराम ! तन और मन की बातें तो जाने दें, लेकिन धन और पेट का आराम सभी के लिए सुकून देने वाला है. प्रत्येक निमंत्रण-पत्र का लिफ़ाफ़ा प्राप्तकर्ता से भी एक अदद लिफ़ाफ़े की उम्मीद तो करता ही है. वो लिफ़ाफ़ा कितना मोटा होगा ये निमंत्रण-पत्र के रूप में आनेवाले लिफ़ाफ़े पर निर्भर करता है. आपकी ओर से जाने वाला हर लिफ़ाफ़ा आपके घर का एकतरह…
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Added by Shubhranshu Pandey on December 26, 2012 at 9:59pm — 8 Comments

व्यंग्य - ‘ऐरे-गैरे’ की प्रतिक्रिया

एक बात तो है, जो ‘आम’ होता है, वही ‘खास’ होता है। अब देख लीजिए ‘आम’ को, वो फलों का ‘राजा’ है। नाम तो ‘आम’ है, मगर पहचान खास में होती है। हर ‘आम’ में ‘खास’ के गुण भी छिपे होते हैं। जो नाम वाला बनता है, एक समय उन जैसों का कोई नामलेवा नहीं होता। जैसे ही कोई उपलब्धि हासिल हुई नहीं कि ‘आम’ से बन जाते हैं, ‘खास’।

देख लीजिए, हमारे क्रिकेट के महारथी, कुल कैप्टन को। जब वे क्रिकेट की दहलीज पर कदम रखे तो उन्हें कोई नहीं जानता था, उनकी बस इतनी ही पहचान थी, जैसे वे आजकल बोले जा रहे हैं, ‘एैरे-गैरे’…

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Added by rajkumar sahu on December 20, 2012 at 2:53pm — 1 Comment

राष्ट्रीय दामाद से पंगा? (व्यंग गीत)

In practice, a banana republic is a country operated as a commercial enterprise for private profit, effected by the collusion (मिलीभगत) between the State and favoured monopolies, whereby the profits derived from private exploitation of public lands is private property, and the debts…

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Added by MARKAND DAVE. on October 10, 2012 at 1:36pm — 6 Comments

घर के बाहर खाट लगादी बाबाजी

बोतल पर क्यों  डाट लगादी बाबाजी

मखमल में क्यों टाट लगादी बाबाजी





हमने जिसको जो भी ज़िम्मेदारी…

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Added by Albela Khatri on June 14, 2012 at 8:33pm — 18 Comments

व्यंग्य - पानी रे पानी...

निश्चित ही पानी अनमोल है। यह बात पहले मुझे कागजों में ही अच्छी लगती थी, अब समझ भी आ रहा है। गर्मी में पानी, सोने से भी महंगा हो गया है, बाजार में दुकान पर जाने से ‘सोना’ मिल भी जाएगा, मगर ‘पानी’ कहीं गुम हो गया है। मेरे लिए तो फिलहाल सोने से भी ज्यादा कीमत, पानी की है, क्योंकि पानी को ढूंढने निकलता हूं तो दिन खप जाता है और वह गाना याद आता है...पानी रे पानी...तेरा रंग कैसा...। पानी के बिना वैसे तो जिंदगी ही अधूरी है और ऐसा लग भी रहा है, क्योंकि पानी ने जिंदगी से दूरी जो बना ली है। सुबह से…

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Added by rajkumar sahu on June 3, 2012 at 1:38pm — 8 Comments

व्यंग्य - जूते और थप्पड़ का कमाल

जूता, जितना भी महंगा हो, हम सब की नजर में मामूली ही होता है और उसकी कीमत कुछ नहीं होती। जूता चाहे विदेश से भी खरीदकर लाया गया हो, फिर भी उसे सिर पर न तो पहना जाता है और न ही रखा जाता है। जूते तो बस, पैर के लिए ही बने हैं। जैसे, ओहदेदार लोगों के लिए कुछ लोग जूते के समान होते हैं,। वैसे भी जूते का वजन, कहां कोई तौलता है। अभी देश में खास किस्म के जूते कभी-कभी नजर आ जाते हैं, जिनकी अहमियत के साथ पूछपरख भी होती है। यह जूते भी उतना ही मामूली होते हैं, जितना बाजार में मिलने वाले जूते। ऐसे कुछ जूतों की… Continue

Added by rajkumar sahu on November 29, 2011 at 10:29pm — 1 Comment

व्यंग्य - सरकारी नौकरी की सोच

अभी हाल ही में मेरा एक मित्र मिल गया। उनसे काफी अरसे से भेंट नहीं हो पाई थी। जब उनका हालचाल पूछा तो बेरोजगारी का दर्द उनके चेहरे पर आ गया और उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी की चाहत, ऐसे बताया कि मेरा भी दिल पसीज गया, क्योंकि मैं भी बेरोजगारी की मार झेल रहा हूं। ये अलग बात है कि लिख्खास बनकर बेरोजगारी का दर्द जरूर मेरा कम हो गया है, लेकिन मेरे मित्र के हालात कुछ और ही थे।

खुद के बारे में बताने के बाद और बताया कि उन्होंने रोजी-रोटी के लिए एक छोटा व्यवसाय शुरू किया है, किन्तु वह भी उधारी की मार से… Continue

Added by rajkumar sahu on November 24, 2011 at 11:39pm — No Comments

व्यंग्य - महंगाई की चिता

हम अधिकतर कहते-सुनते रहते हैं कि चिंता व चिता में महज एक बिंदु का फर्क है। देश की करोड़ों गरीब जनता, महंगाई की आग में जल रही है और उन्हें चिंता खाई जा रही है। वे इसी चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। महंगाई के कारण ही कुपोषण ने भी उन्हें घेर लिया है। जैसे वे गरीबी से जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही महंगाई के कारण गरीब, हालात से लड़ रहे हैं। महंगाई की चिंता अब उनकी ‘चिता’ बनने लगी है। वैसे मरने के बाद ही हर किसी को चिता में लेटना पड़ता है और जीवन से रूखसत होना पड़ता है। महंगाई ने इस बात को धता…

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Added by rajkumar sahu on November 4, 2011 at 11:12pm — No Comments

व्यंग्य - किसे कराएं पीएचडी

मुझे पता है कि देश में संभवतः कोई विषय ऐसा नहीं होगा, जिस पर अब तक पीएचडी ( डॉक्टर ऑफ फिलास्फी ) नहीं हुई होगी। कई विषय तो ऐसे हैं, जिसे रगडे पर रगड़े जा रहे हैं। कुछ समाज के काम आ रहे हैं तो कुछ कचरे की टोकरी की शोभा बढ़ा रहे हैं। ये अलग बात है कि कुछ विषय ही इतने भाग्यशाली हैं कि उसे जो भी अपनाता है, वह बुलंदी छू लेता है। पीएचडी के लिए मुझे लगता है कि आपमें विषय चयन की काबिलियत होनी चाहिए, उसके बाद फिक्र करने की जरूरत नहीं होती। विषय तय होने के बाद सामग्रियां जहां-तहां से मिल ही जाती हैं,…

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Added by rajkumar sahu on November 2, 2011 at 11:00am — 1 Comment

व्यंग्य रचना: दीवाली : कुछ शब्द चित्र: संजीव 'सलिल'

व्यंग्य रचना:                                                                                  

दीवाली : कुछ शब्द चित्र:

संजीव 'सलिल'

*

माँ-बाप को

ठेंगा दिखायें.

सास-ससुर पर

बलि-बलि जायें.

अधिकारी को

तेल लगायें.

गृह-लक्ष्मी के

चरण दबायें.

दिवाली मनाएँ..

*

लक्ष्मी पूजन के

महापर्व को

सार्थक बनायें.

ससुरे से मांगें

नगद-नारायण.

न मिले लक्ष्मी

तो गृह-लक्ष्मी को

होलिका बनायें.

दूसरी को…

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Added by sanjiv verma 'salil' on October 26, 2011 at 8:00am — 4 Comments

व्यंग्य - जहां-तहां अन्नागिरी

समाजसेवी अन्ना हजारे ने पिछले दिनों तेरह दिनों तक अनशन करके ‘अन्नागिरी’ को हवा दे दी है। देश में अब तक नेतागिरी, चमचागिरी, बाबागिरी की हवा चल रही थी। अन्नागिरी के हावी होते ही अभी भ्रष्टाचारियों के मूड खराब हो गए हैं, क्योंकि जहां-तहां अन्नागिरी ही छाई हुई है। हर जुबान से बस अन्नागिरी की लार लपक रही है। किसी को अपनी बात मनवानी है तो वह, बस अन्नागिरी करने लग जा रहा है। वैसे हमारे समाजसेवी अन्ना जी ‘अनशन’ के लिए माहिर माने जाते हैं, लेकिन उनके पीछे जो लोग ‘अन्नागिरी’ का सहारा लेने लगे हैं,…

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Added by rajkumar sahu on October 18, 2011 at 1:17am — No Comments

व्यंग्य - अस्पताल का मनमोहक सुख

एक बात सब जानते हैं कि जब हम बीमार होते हैं, तब इलाज के लिए अस्पताल पहुंचते हैं और डॉक्टर नब्ज समझकर इलाज करते हैं। अस्पताल जाने के बाद बीमारी छोटी हो या बड़ी, गरीबों के लिए कुछ ही दिन अस्पताल ठिकाना बन पाता है। गरीबों के लिए ‘गरीबी’ अभिशाप अभी से नहीं है, जमाने से ऐसा ही क्रूर मजाक चल रहा है। हर हालात में गरीब ही बेकार का पुतला होता है, जिसकी ओर देखने की किसी को फुरसत तक नहीं होती, वहीं जब कोई मालदार, अस्पताल की दहलीज पर पहुंचता है, उसके बाद गरीबों को हेय की दृष्टि से देखने वाले भी, उनकी…

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Added by rajkumar sahu on October 16, 2011 at 4:49pm — No Comments

व्यंग्य - मुझे नहीं बनना प्रधानमंत्री

पहले मैं अपने पुराने दिनों की याद ताजा कर लेता हूं। जब हम स्कूल में पढ़ा करते थे, उस दौरान शिक्षक हमें यही कहते थे कि प्रधानमंत्री बनोगे तो क्या करोगे ? इस समय मन में बड़े-बड़े सपने होते थे। उस सपने को पाले बैठे, अपन आज बचपन से जवानी की दहलीज में पहुंच गए हैं। हम जैसे देश में न जाने कितने, यह सपना देखते हैं, लेकिन खुली आंख से सपना कहां पूरा होता है ? ये अलग बात है कि कई बार ऐसा होता है, जब व्यक्ति सपना तक ही नहीं देखा रहता और प्रधानमंत्री बन जाता है। बिन मांगे मुराद मिल जाती है और जीवन की…

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Added by rajkumar sahu on October 14, 2011 at 12:11am — No Comments

व्यंग्य - रावण के दर्द को समझिए

हर साल न जाने कितनी जगहों में रावण का दहन किया जाता है और खुशियां मनाते हुए पटाखे फोड़े जाते हैं, मगर रावण के दर्द को समझने की कोई कोशिश नहीं करता। अभी कुछ दिनों पहले जब दशहरा मनाते हुए रावण को दंभी मानकर जलाया गया, उसके बाद रावण का दर्द पत्थर जैसे सीने को फाड़कर बाहर आ गया। रावण कहने लगा, उसकी एक गलती की सजा कब से भुगतनी पड़ रही है। गलती अब प्रथा बन गई है और पुतले जलाकर मजे लिए जा रहे हैं। सतयुग में की गई गलती से छुटकारा, कलयुग में भी नहीं मिल रहा है।

रावण ने अपना संस्मरण याद करते हुए कहा…

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Added by rajkumar sahu on October 10, 2011 at 1:51am — 2 Comments

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