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प्रो. विश्वम्भर शुक्ल's Blog (24)

दर्द के समंदर देखे !

दर्द के खूब समंदर देखे 
हमने बाहर नहीं अंदर देखे 

आह को वाह में बदल दें वो 
एक से एक धुरंधर देखे 

देवता के गुनाह देख लिए 
जब कथाओं में चंदर देखे 

लोग उंगली पे उठा लेते है 
कृष्ण देखे हैं ,पुरंदर देखे 

फंस ही जाते हैं अपनी चालों में 
जाल देखे हैं ,मछंदर देखे 
_____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल 

(मौलिक और अप्रकाशित )

Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on October 6, 2013 at 10:00pm — 12 Comments

कुछ दोहे भोर के ~~

मन सिहरा ,ठहरा तनिक ,देखा अप्रतिम रूप ,

भोर सुहानी ,सहचरी ,पसर गई लो, धूप !

रश्मि-रश्मि मे ऊर्जा और सुनहरा घाम,

बिखर गया है स्वर्ण-सुख लो समेट बिन दाम !

सुन किलकारी भोर की विहंसी निशि की कोख ,

तिमिर गया ,मुखरित हुआ जीवन में आलोक !

उगा भाल पर बिंदु सा लो सूरज अरुणाभ ,

अब निंदिया की गोद में रहा कौन सा लाभ !

_______________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ 

(मौलिक और अप्रकाशित )

Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 12, 2013 at 11:00pm — 11 Comments

गीतिका ~

चेहरे पर चेहरे जड़े हैं,

अक्स लोगों से बड़े हैं !

खो गई पहचान जब से 
जहाँ थे अब तक खड़े हैं !

अभी फूलों मे महक है 

इम्तहां आगे कड़े हैं !

ठोकरों से दोस्ती है ?
राह मे पत्थर पड़े हैं !

इन्हें कुछ कहना नहीं 
दर्द हैं ,चिकने घड़े हैं !
_______________प्रो. विश्वम्भर शुक्ल 

(मौलिक और अप्रकाशित )

Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 9, 2013 at 9:30pm — 13 Comments

मुक्तक ~

१~

बदलता अब कौन अपना आचरण है,

मधुर-स्मिति दर्द का ही आवरण है,

अनकहे शब्दों ने ढूँढी राह है ये 

बादलों के बीच मे कोई किरण है !



२~

कोई छोटे हैं तो कोई बड़े हैं न,

हम सभी मुखौटे लिए खड़े हैं न,

असली चेहरा न तलाशिये हुज़ूर 

एक चेहरे पर कई चेहरे जड़े हैं न !

३~

एक अनबुझी प्यास लिए हम गहरे कुएं हुए,

कभी लगी जो आग मित्र,हम उठते धुंएं हुए,

सजे हुए हैं हम…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 5, 2013 at 12:25am — 4 Comments

मुक्तक ~

व्यस्तता ,ज़िंदगी ,खेद है ,

आपका तो वचन ,वेद है,

हैं मधुर आप,हम खुरदुरे 

मित्र ,हम में यही भेद है !

*

दर्द के पुष्प आओ तजें,

हर्ष के पुष्प ही अब सजें,

एक स्मिति अधर पर धरें 

नेह की बांसुरी से बजें !

*

उनको दिखना है अब ,नहीं न ,

छुपते रुस्तम दिखे,कहीं न ,

मुक्त आकाश में…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 3, 2013 at 10:47pm — 6 Comments

कुछ दोहे राहत के नाम ~~

उड़न -खटोले पर चढ़े, आये 'प्रभु' निर्दोष,

अपनी निष्क्रिय फ़ौज में जगा गए कुछ जोश !



राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,

इधर-उधर घूमे फिरे और गए फिर सोय !



भटक रहे विपदा पड़े, ढूंढ रहे हैं ठांव ,

ये अपने सरकार जी कब बांटेंगे छाँव ?



विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,

भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !



श्रेय कौन ले जाएगा मची हुई है होड़,

जोड़-तोड़ के खेल…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 2, 2013 at 11:15pm — 18 Comments

मुक्तक ~~

एक~

*

नफ़रत जितनी उतना प्यार,

इन पर अपना क्या अधिकार,

एक बिंदु पर पड़ा ठहरना 

सरहद को करना मत पार !



दो~

*

ये कैसी इसकी रफ़्तार ,

बहुत प्यार धीमा है यार ,

सीमाएं कुछ उनकी हैं तो 

अपनी भी सीमा है यार !



तीन~

*

नफरत छोडो ,प्यार लुटाओ 

खुशियाँ और सनेह…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 1, 2013 at 11:13pm — 9 Comments

एक बंजर व्योम तो हम पर तना है !

अपरिचय, संवेदना है, भावना है ,

उसे क्या जो पुष्प से पत्थर बना है !



मिले उनको हर्ष के बादल घनेरे ,

एक बंजर-व्योम तो हम पर तना है !



चित्र है उत्कीर्ण कोई चित्त पर ,

ठहर जाती जहां जाकर कल्पना है !



सूर्य की ये रश्मियाँ बंधक बनीं हैं 

एक अंधी कोठरी मे ठहरना है !



रास्ते अब स्वयं ही थकने लगे हैं 

पूछता गंतव्य मन क्यों अनमना है ?



_______________________प्रो. विश्वम्भर…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 30, 2013 at 10:57pm — 22 Comments

गीतिका ~

शौक है , अजीब लगता है,

दर्द कोई  रकीब लगता है !

रोज तरसा है मुस्कुराने को 

चेहरे-चेहरा गरीब लगता है !

ये गम हैं कि छोड़ते ही…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 29, 2013 at 7:30pm — 11 Comments

दोहे : देवभूमि का दर्द !

भक्तों के मुख मलिन हैं ,पूजा-गृह में गर्द ,

प्रभु अपने किससे कहें देव-भूमि का दर्द !



हुई न ऐसी त्रासदी जैसी है इस बार ,

प्रभु ने झेली आपदा बदरी क्या केदार !



बादल,बारिश,मृत्यु के कारण बने पहाड़ ,

धरती काँपी,मनुज के थर-थर काँपे हाड़…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 24, 2013 at 10:30pm — 13 Comments

हाइकू ज़िंदगी के ~

ज़िंदगी भली 

रुलाती भी है कभी 

करमजली !

~

~…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 23, 2013 at 10:30pm — 7 Comments

बैठे-ठाले ~~

हेलीकाप्टर से उड़ान हुई ,

संवेदना उनकी महान हुई !



घूमे ,फिरे ,खेले ,खाए ,

किस कदर थकान हुई !



ये जो मौत के मंज़र देखे,

कुदरत है ,मेहरबान हुई…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 22, 2013 at 11:00pm — 9 Comments

एक नवगीत ~~

एक निर्झर नदी सी बहो 

खिलखिलाती हुई कुछ कहो 

फासले अब नहीं दरमियां 

आंच है,उम्र है,गरमियां

अब तो सम्बन्ध हैं इस तरह 

जैसे हों झील में मछलियां 



थाम लेंगे…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 22, 2013 at 12:23am — 7 Comments

गीतिका : आह पानी ,वाह पानी !

ये आह पानी ,वो वाह पानी ,

कर गया आखिर तबाह पानी !



कभी बादलों से रही शिकायत ,

जिधर डालिए अब निगाह पानी !



दिखे ऐसे मंजर,उतराती लाशें

उठे दर्द,चीखें,कराह पानी !



जहां ज़िंदगी मांगने को गए थे,

कर के गया सब सियाह पानी !



रहम करनेवाला खुद ही परीशां

माँगी है तुझसे पनाह पानी !



____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ



(मौलिक और अप्रकाशित…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 20, 2013 at 11:00pm — 10 Comments

गीतिका ~

ज़िंदगी किताब ,आइये पढ़ें 

दर्द बे-हिसाब,आइये पढ़ें 

हंसते चेहरों पे जमी गर्द 

आँखों में सैलाब ,आइये पढ़ें 

सिर्फ काँटों की…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 19, 2013 at 10:30pm — 8 Comments

बैठे-ठाले ~~

आह करते हैं ,वाह करते हैं 

लोग हैं बस ,तबाह करते हैं 

रख के नफरत चाशनी में वो …

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 18, 2013 at 11:00pm — 11 Comments

मुक्तक

कभी हम यूँ भी अकेले होंगे ,

भीड़ होगी ,तन्हाई के मेले होंगे ,

याद आएगा एक वह आँगन 

जिसमे हम मौज से खेले होंगे !

*

आंधियां,तूफ़ान हों ,ये चाहते हैं हम,…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 17, 2013 at 11:12pm — 12 Comments

हाइकू बरसात के

लो हँसी दूब 

बादल जो छलके 

बहुत खूब 

*

नेह की बूँद 

मन पांखुरी पर 

गिरी अब,लो 

*

मन विभोर 

कर गए बदरा 

जी सराबोर 

*

मुंह चिढाया …

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 16, 2013 at 11:04pm — 9 Comments

बैठे-ठाले ~~

देखकर लोग बहुत दंग,पूत ,

ढोल बजते औ मृदंग,पूत !



तुमसे अब कौन मुक़ाबिल है 

जीत लेते हो खूब जंग ,पूत !



एक बिल्ली थी वो भाग गई,

तुम तो निकले दबंग,पूत !

कौन तुमसे हिसाब मांगेगा ?

डाल दी है कुएं में भंग,पूत !…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 15, 2013 at 11:37pm — 4 Comments

गीतिका : हम झुनझुना हो गए !

वो दिखे ही नहीं इन दिनों 

दूज का चन्द्रमा हो गए 

इतने बीमार हम भी नहीं 

अपनी खुद ही दवा हो गए 

हैं सु-फल आपकी दृष्टि के 

क्या थे हम और क्या हो…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 14, 2013 at 11:51pm — 13 Comments

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