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वर्तमान समय में धर्म के नाम पर लोगों में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। सभी अपने अपने धर्म को लेकर बहुत ही संवेदनशील हैं। अतः अक्सर धर्म के नाम पर लोगों में झगड़े हो जाते हैं।

धर्म के नाम पर पाखण्ड भी बढ़ता जा रहा है। अक्सर कुछ लोग जनता की धार्मिक भावनाओं का लाभ उठा कर उन्हें ठग लेते हैं। धर्म के नाम पर एक उद्योग सा बनता जा रहा है।

इसके अतरिक्त धर्म के नाम पर अनेक कुरीतियों का प्रचलन है। धर्म भीरु लोग बिना उचित विवेक का प्रयोग किये उन कुरीतियों का पालन करते रहते हैं।

अतः कुछ लोग जो स्वयं को इस धर्मान्धता से नहीं जोड़ पाते हैं अब धर्म की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न उठाने लगे हैं।

प्रश्न उठता है की धर्म का अर्थ क्या है। क्या कुछ रीति रिवाजों का पालन ही धर्म है। धर्म व्यक्तियों को आत्मिक रूप से बलवान बनाने के लिए है या उन्हें कमज़ोर बनाने के लिए।

सबसे ऊपर क्या सच में हमें धर्म की आवश्यकता है।

धर्म एक जीवन शैली है जो समाज को एक व्यवस्था प्रदान करती है। प्रत्येक कर्म जो हमारे आत्मिक विकास में सहायक हो, जो हमें एक उत्तम व्यक्ति बनाये, जो हमें हमारे जीवन के परम लक्ष्य 'ईश्वर' को प्राप्त करने में सहायक हो, उसका पालन करना ही धर्म है।

अतः धर्म एक बहुत व्यापक शब्द है जिसे हम वर्तमान समय में बहुत संकुचित अर्थ में लेते हैं। हमारे लिए एक विशेष उपासना पद्धति, कुछ संस्कारों का पालन ही धर्म है।

धर्म का उद्देश्य हमें आत्मिक रूप से सबल बनाना है। कोई भी वस्तु जो हमें भीरु बनाती है धर्म का अंग नहीं हो सकती है। अक्सर ऐसी वस्तुएं परंपरा के नाम पर धर्म में आरोपित कर दी जाती हैं। कुछ समय पाकर वही धर्म का हिस्सा बन जाती हैं। अक्सर हम उन्हें मुख्य धर्म मानकर उनका अनुकरण करते हैं।

विभिन्न प्रचलित धर्म हमें प्रेम, करुणा, अहिंसा तथा सदैव सत्य बोलने का सन्देश देते हैं। उनका उद्देश्य मनुष्य के जीवन को संयमित बनाना है ताकी वह निर्मल ह्रदय से 'ईश्वर' की ओर अपने कदम बढ़ा सके। अतः प्रत्येक धर्म में 'ईश्वर' की उपासना को विशेष स्थान मिला है। उपासना वह डोर है जो हमें 'ईश्वर' से बांधती है। प्रार्थना के समय मनुष्य 'ईश्वर' से निकटता का अनुभव करता है।

प्रार्थना हमें अध्यात्म के उच्च धरातल पर ले जाती है। अध्यात्म 'ईश्वर' के साम्राज्य में हमारे प्रवेश में सहायक है। अपने आत्मिक स्वरुप को जानना ही अध्यात्म है। अतः धर्म एक माध्यम है जो हमें अध्यात्म के उच्च धरातल तक पहुंचाता है जहाँ से हम अपने जीवन के परम लक्ष्य 'ईश्वर' तक पहुँच सकें।

फिर क्यों समाज में धर्म को लेकर इतनी असहिष्णुता है। क्यों हम धार्मिक अनुष्ठानों में पड़ कर जीवन के मूल उद्देश्य को भूल जाते हैं। इसका कारण है की हमारे लिए धर्म का अर्थ केवल कुछ परम्पराओं का निर्वाह मात्र ही रह गया है। हम उसके मूल उद्देश्य को भूल चुके हैं।

धर्म वह पथ है जो हमें अध्यात्म की ओर ले जाता है। इस पथ के दोनों ओर अब आलिशान भवनों का निर्माण हो गया है जो हमें हमारे उद्देश्य से भटका देते हैं। वर्तमान समय में धर्म उस शरीर की भांति है जिसमें से उसके प्राण अध्यात्म को निकाल लिया गया है। हम सिर्फ मृत देह का श्रृंगार कर उसे सहेजे हुए हैं।

धर्म का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। धर्म ही 'ईश्वर' तक पहुँचने का उपाय है। धर्मविहीन समाज दिशाहीन हो जाता है। अतः आवश्यकता है कि हम धर्म के सही स्वरुप को समझ कर उसका प्रयोग जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने में करें।

'धर्म एक साधन है लक्ष्य नहीं'।

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Replies to This Discussion

सादर, इस बात पर सहमत हूँ की धरम एक साधन है लक्ष्य नहीं. मगर सिर्फ इतना कह देने से पूरी व्याख्या शायद नहीं होगी. धर्म अवश्य ही मनुष्य के जीवन काल को सुमधुर बनाने के लिए ही निर्मित किया गया होगा.इसलिए यकीनन यह इसके निर्माण के वक्त की परिस्थितियों और आगामी कई सौ वर्षों के बदलाव को संज्ञान में लेकर बनाया गया होगा. किन्तु वक्त के साथ ही मानव जीवन में रहन सहन और अन्य परिस्थितियाँ भी बदली यह क्रम शायद धर्म प्रदाताओं की सोच से भी कहीं अधिक हुआ है. इसलिए उचित जानकारी के अभाव में  धर्म के अनुयायीयों ने  अपनी सोच के अनुसार परिवर्तन को मान्य और अमान्य किया है. यह कहना बुल्कुल उचित है कई ऐसे भी धर्मभीरु लोग हैं जो उचित अनुचित से ऊपर धर्म में कहे को ही पत्थर की लकीर मान बैठे हैं. "धर्म में कहे" यह एक जटिल सवाल सा है, क्योंकि हर धर्म में आज अमूमन यह स्थिति है की जिस धर्म को कोई व्यक्ति मानता है उसके घर में जन्मने वाला भी उसी  धर्म को ही मानता है, उसके लिए धर्म की परिभाषा वही है जो उसके माता पिता द्वारा बतायी गयी है. हमारे यहाँ सभी धर्मो में ऐसी कोई उचित व्यवस्था ही नहीं है की धर्म के हर अनुयायी को अपने धर्म को जानने के लिए एक सुनिश्चित वय में सही जानकारी दी ही जाए. यही कारण है की नीम हकीमो की तरह धर्म का प्रसार प्रचार करने वालों की बाढ़ सी आ गयी है और सभी अपने हित को साधते हुए जन जन को भ्रमित करते हैं. कई कुरीतियों ने यही से जन्म लिया होगा ऐसा लगता है. इसमें धार्मिक संस्थाओं को दिए जा रहे दान का उल्लेख में विशेष रूप से करना चाहता हूँ. सभी धर्म जानते हैं की आगे बढ़ने का सीधा मूल मन्त्र है किसी से भी विवाद न करना. इसलिए सभी धर्मों में दुसरे धर्म का आदर करने का ज्ञान दिया जाता है.और यही उचित भी है.सादर. 

आपने सही लिखा है "धर्म एक माध्यम है जो हमें अध्यात्म के उच्च धरातल तक पहुंचाता है जहाँ से हम अपने जीवन के परम लक्ष्य 'ईश्वर' तक पहुँच सकें। धर्म वह पथ है जो हमें अध्यात्म की ओर ले जाता है।".

धर्म का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। धर्म ही 'ईश्वर' तक पहुँचने का उपाय है। धर्मविहीन समाज दिशाहीन हो जाता है। अतः आवश्यकता है कि हम धर्म के सही स्वरुप को समझ कर उसका प्रयोग जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने में करें।'धर्म एक साधन है लक्ष्य नहीं'।

सनातन सोच ही धर्म है | बगेर किसी विवाद में पड़े किसी एक रास्ते से आध्यात्म ज्ञान अर्जित कर सद्भाव रख अपना 

स्वधाय ही सच्चा धर्म है, और जब सभी धर्मो में आदर भाव सर्वोपरि बताया है तो फिर विवाद निरर्थक है | विचार मंथन 

का अवसर देने के लिए आभार भाई श्री आशीष कुमार त्रिवेदी जी | सादर 

आपना कहना बिल्‍कुल सही है कि हम अपने मूल उद्देश्‍य को भूल गए हैं, धर्म के मूलार्थ से भटक गए हैं । वस्‍तुत: धर्म और संप्रदाय दोनों ही अलग-अलग हैं । धर्म आचरण की एक रीति है ''धारणात धर्ममित्‍याहु धर्मो धारयति प्रजा''  यानि धर्म केवल प्रजा ही नहीं धारण करती बल्कि धर्म भी प्रजा को धारण करता है । ''यतोभ्‍युदयनि:श्रेयस:सिद्ध:स धर्म'' यानि जिससे इहलौकिक एवं पारलौलिक दोनों प्रकार का अभ्‍युदय प्राप्‍त हो वही धर्म है, वैशेषिक दर्शन का यह सूत्र सहज ही धर्म को परिभाषित कर देता है  । मनुस्‍मृति, धर्मसूत्र  इत्‍यादि में इसके सारे अवयव, सारे गुणों का भी वर्णन मिलता है वहीं महाभारत, भगवत गीता भी इस विषय से अछूते नहीं हैं  ।

धृति: क्षमा दमोस्‍तेयं शौचमिन्द्रियनिगह:/धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्

ये धर्म के दश लक्षण बताए गए हैं  । गीता में तो भगवान यहां तक कहते हैं कि ''स्‍वधर्मे निधनं श्रेय:/परधर्मो भयावह''

इसमें जो तत्‍व घुसे हैं वे बाहरी तत्‍व है, वे धर्म के मूल तत्‍व नहीं हैं, सार्थक चर्चा हेतु बहुत आभारी हूं, सादर

आ0 आशीष त्रिवेदी जी, सारी बातें सत्य ही हैं। किसी ने कहा है कि आपकी स्वतंत्रता वहीं तक सीमित है, जहां से दूसरे कि स्वतंत्रता प्रारम्भ होती है। अर्थात हम एक दूसरे की स्वतंत्रता को चुनौती नहीं दे सकते हैं। तभी अच्छे समाज की स्थापना हो सकती है। ठीक इसी प्रकार एक धर्म वहीं तक ही मान्य है, जहां से दूसरे का धर्म प्रारम्भ होता है। सभी धार्मिक पुस्तको में स्पष्ट लिखा भी है। बस हम ही अपने स्वार्थ के लिए अनदेखी कर जाते है और संकट में फंस जाते हैं। जैसा कि राजेश भाई जी ने भी स्पष्ट किया है।

हां! यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है - भागवत में कहा गया है कि एक वृक्ष पर दो पंछी रहते हैं। एक पंछी सब कुछ देखता, सुनता और सभी रसों का उपभोग करता है। जबकि दूसरा पंछी बस वृक्ष में रहकर उससे इतर निरन्तर मंडराता रह कर पहले पंछी को उसके गलत सही का ज्ञान देता रहता हे। और एक समय ऐसा आता है कि पहला पंछी सारे सुखों का उपभोग करके थक हार जाता है और शिथिलता को प्राप्त करते हुए अन्त गति को प्राप्त हो जाता है। तब वह दूसरे पंछी को पुनः आश्वस्त करता है कि वह अब ऐसे दुराग्रह में फंस कर प्राप्त शरीर का उपभोग नहीं करेगा। लेकिन मनुष्य की जाति ही ऐसी है कि जितने भी जन्म मिले सभी की वही दुर्गति करता है। एक शब्द में हम कहें तो धर्म वह है जिससे हम अपने विकास के साथ ही दूसरों का भी कल्याण करते रहें। प्रसंग बहुत बड़ा है। वृक्ष, हमारा यह शरीर है और पंछी है- 1, मन और 2, अन्तस आत्मा। जिसे अजर अमर कहा गया है। साझा करने हेतु आभार सहित हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,

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