आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ चौहत्तरवाँ आयोजन है।
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छंद का नाम - सरसी छंद
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
20 दिसम्बर’ 25 दिन शनिवार से
21दिसम्बर’ 25 दिन रविवार तक
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
सरसी छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें
जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
20 दिसम्बर’ 25 दिन शनिवार से 21दिसम्बर’ 25 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं।
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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सरसी छन्द
लोकतंत्र के रक्षक हम ही, देते हरदम वोट
नेता ससुर की इक उधेड़बुन, कब हो लूट खसोट
हम ना बदले बदले नेता, हुए पिचहत्तर साल
साँसे टूटे आस पर नहीं,वोट रखो संभाल
अनगढ़ नेता अनपढ़ जनता, दोनों का ये हाल
एक रहे हरदम कतार में, एक चुनावी ताल
न जाने कहाँ ये ले जाएं, मिलकर अपना देश
ऐसा न हो लौट आने को, रस्ता बचे न शेष
हम बस लाईन तक पहुंचे,दुनिया मंगल चाँद
अपने ही घर यूँ रहते हैं, ज्यूँ शेर की माँद
एक वोट अधिकार मिला था, वो भी लो तुम छीन
नीरो बनकर खूब बजाओ, लोकतंत्र की बीन
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदरणीय जयहिंद रायपुरी जी सादर. प्रदत्त चित्र पर आपने सरसी छंद रचने का सुन्दर प्रयास किया है. कुछ पदों में गेयता का अभाव है.
नेता ससुर की एक उधेड़बुन ...18 मात्राएँ हो गयी हैं.
हम ना बदले बदले नेता ..... न के स्थान पर ना के प्रयोग त्याग दें तो बेहतर होगा "बदले नेता और न हम ही" इस तरह किया जा सकता है.
ज्यूँ शेर की मांद .... 10 मात्राएँ रह गयी हैं. सादर .
आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी सादर अभिवादन बहुत धन्यवाद आपका आपने समय दिया
आपने जिन त्रुटियों को दर्शाया है सुधारने का प्रयास करता हूँ
सरसी छंद
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हाथों वोटर कार्ड लिए हैं, लम्बी लगा कतार।
खड़े हुए मतदाता सारे, चुनने नव सरकार।
लेकिन मुख से गायब दिखती, सबके ही मुस्कान।
ज्यों करतूतें नेताओं की, सभी गये हों जान।।
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कड़ी धूप में खड़े हुए सब, देने अपना वोट।
संविधान की ख़ातिर हो या, पाकर थोड़े नोट।
मुश्किल है कह पाना सच भी, बदल गया है काल।
चलें जीत की आस लिये सब, नेता नित नव चाल।।
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अगर न समझे अगर न सँभले, तो होगा नुक्सान।
मतदाता ही होते हैं सब, लोकतंत्र की जान।
लोकतंत्र जो नहीं रहा तो, होगा सब कुछ नष्ट।
पायेंगे परिवार सभी के, नये-नये नित कष्ट।।
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मौलिक/ अप्रकाशित.
आदरणीय अशोक भाईजी
चुनाव का अवसर है और बूथ के सामने कतार लगी है मानकर आपने सुंदर रचना की है।
कड़ी धूप में खड़े हुए सब, देने अपना वोट।
संविधान की ख़ातिर हो या, पाकर थोड़े नोट। ...... यही हर चुनाव की सच्चाई है।
हार्दिक बधाई चित्र के अनुरूप सुंदर छंद के लिए।
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