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‘चित्र से काव्य तक’ प्रतियोगिता अंक -११ : सभी रचनाएँ एक साथ


-अम्बरीष श्रीवास्तव

(प्रतियोगिता से अलग) कुंडलिया

गहरी हैं अनुभूतियाँ, मोहक मंद बयार.

भावुक होकर सृष्टि भी, करे प्रीति अभिसार.

करे प्रीति अभिसार, पूर्ण हों सारे सपने.

अपनों से स्नेह, प्रेममय सारे अपने.

अम्बरीष इस प्रीति, धुरी पर दुनिया ठहरी.

बड़े-बड़े बह जाँय, प्रेम नदिया है गहरी..

 

(प्रतियोगिता से अलग) कुंडलिया

धरती है मदमा रही, सुरभित खिला वसंत.

रंग-रंगीली है प्रकृति, बहकें साधू संत.

बहकें साधू संत, फागुनी महिमा न्यारी.

शीतल मंद बयार, मुदित सारे नर-नारी

‘अम्बर’ से अभिसार, खेत कोई ना परती  

बहक रहे वन-बाग, सजी शर्मीली धरती..

 

 (१) कुंडलिया

हरियाली चहुँ ओर है, चंचल खिला वसंत.

प्रेम सदा रहता युवा, इसके रूप अनंत.

इसके रूप अनंत, प्रीति हर दिल में सोई.

जाग करे अभिसार, न माने बंधन कोई.

अम्बरीष यह देख, दिखी पौधों में बाली.

बहके बाग वसंत, खिली देखो हरियाली.. 

(२)

दोहे

कानों में दादी कहें.तुम तो गए बुढ़ाय.

चालाकी सब में भरी, काहे रहे लुटाय..

 

मँहगाई है बढ़ गयी, अभी बढ़े है रेट.

सस्ता क्यों हो बेचते, अपना भी तो पेट..

 

बोले दादा झूमते , कर लेना फिर प्यार.

अरी परे हट बावरी, सब जन रहे निहार..

 

हरियाली खिड़की खुली, पूरे सब अरमान.

फोटोग्राफर सोंचता, मार लिया मैदान..

--अम्बरीष श्रीवास्तव

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आदरणीय श्री आलोक सीतापुरी 

 

(प्रतियोगिता से अलग) कुंडलिया

दादी दादा से करें, खुल्लमखुल्ला प्यार|

वैलेन्टाइन डे यहाँ, गाये राग धमार|

गाये राग धमार, चित्त को करता चंचल|

मधुर मदिर मधुमास, मचाये मन में हलचल|

कहें सुकवि आलोक, जवानी याद करा दी|

आई लव यू कहें, कान में बूढ़ी दादी||

 

(प्रतियोगिता से अलग) मत्तगयन्द सवैया

हास करैं परिहास करैं मधुमास में रास रचावैं दाई|

फागुन केरि बयारि बहै तब फागुन के गुन गावहिं दाई|  

जो बुढऊ नियराँय कहूँ कुछ दूरिन ते दुरियावहिं दाई|

जो अपना लुरियाँय कहूँ तब चूमि के गाल मनावहिं दाई||  

आलोक सीतापुरी

(दाई: दादी, दुरियावहिं: दूर करना, लुरियाँय: लसना, चिपकना)   

 

(प्रतियोगिता से अलग)

फागुन में बौरा गए,  वयोवृद्ध गंभीर.

नस-नस नैनीताल है, रोम-रोम कश्मीर..

 

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आदरणीय श्री राणा प्रताप सिंह

 

(प्रतियोगिता से अलग) दोहे

सम्मुख है यह कैमरा, पीछे एक दुकान
चुम्बन में डूबे हुए, भूले सब सामान

 

अधरों पर मुस्कान है, जग सारा हैरान
मानो जैसे पढ़ लिया, ग़ालिब का दीवान

 

उम्र ढली तो क्या हुआ, मन तो अभी जवान
मौक़ा जब मिल जाए तो, मत चूको चौहान

 

बूढ़े बरगद पर चढ़ी, हरी प्रेम की बेल
सिंचित हम आओ करें, बना रहे यह मेल

 

साथ रहें दोनों सदा, यही कामना आज
आदर हम देकर इन्हें, गढ़ लें नया समाज

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श्री सौरभ पाण्डेय

 

.छंद - कुडलिया   (प्रतियोगिता से अलग)

’दादी-दादा’ को लिये, अजब लगी तस्वीर

मानों होली पूर्व ही, गुद-गुद हुई अबीर

गुद-गुद हुई अबीर, लहरता रंग लहू में

हाव,  भाव औ ताव, वही जो नई बहू में

दे दो हृदय उधार, करादो प्यार-मुनादी

वेलेण्टिन हो गये, लिपट कर दादा-दादी

 

छंद - घनाक्षरी/ कवित्त    (प्रतियोगिता से अलग)

 

उम्र की उतान पर, प्रेम की उठान पर
बोसे पगे पान में यों, कत्था डली पुड़िया ॥1||

मनहीं सिहर रहा, गुप-चुप भर रहा
दिल की दुकान खुली, खिल-खिल बुढ़िया  ||2||

जबरी धिराय रही, ’सनकी’ भिड़ाय रही
बुढ़ऊ को उसकुस, गजब की तिरिया  ||3||

पोपली चुमाय रही, कनहीं घुमाय रही
छोड़ जान बुरबक, तोहरे ही किरिया  ||4||

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श्री दिलबाग विर्क 

 

दोहे 

 

देखो तुम इस युग्म को , हैं अस्सी के पार |

बनी हुई चाहत अभी , बना हुआ है प्यार ||

 

आड़े आती उम्र ना , बंधन रहे अटूट |

जो नाता हो प्यार का , पड़े न उसमें फूट ||

 

समझो तुम इस प्यार को , ताकत रहे अकूत |

ज्यों-ज्यों बढती उम्र है , त्यों-त्यों  हो मजबूत ||

 

प्रेम दिवस की आज तो , मची हुई है धूम |

दादी का इजहार है , दादा जी को चूम ||

 

उम्र बढ़ी तो क्या हुआ , है सजना का संग |

वफा , आपसी समझ से , चढ़े प्यार का रंग ||

 

 

घनाक्षरी 

 

तोड़े जाति की दीवारें , न यह उम्र को माने

हो अछूता वासना से , बड़ा पाक प्यार है |

कण-कण रंगा हुआ , मिलेगा इस रंग में 

चलती सृष्टि इसी से , यही तो आधार है |

बसाया जिसे दिल में , मान लिया खुदा उसे 

होता पेड़ पत्थरों में , उसका दीदार है |

कहते हैं प्रीत जिसे , पूजा भगवान की है |

क्यों जोड़ते हो जिस्म से , रूह का व्यापार है |

 

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आदरणीय अविनाश एस० बागडे

छन्न पकैया

छन्न पकैया - छन्न पकैया ,क्यों जीवन एकाकी?

चुपके   काका क़े  कानो  में   पूछ  रही है  काकी.

#

छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,बीते कल की बातें.

जीवन  काटे  प्रौढ़ - युगल यूँ  आपस में बतियाते.

#

छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,छोड़ गए हैं सारे!

मजबूरी  ने  साथ  ला दिया,   उभरे  नए सहारे.

#

छन्न पकैया  - छन्न पकैया ,कैसी गुज़री रात ?

काकी  काका  क़े  कानो  मे  पूछ रही  ये बात,

#

छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,इनका जीवन-यापन!

जाने  चलती  सांसों  का ,  कब हो  जाये  समापन.

#

छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,सुन लो मेरी साधो.

'ये' लगती है चतुर सयानी ,'वो' मिटटी का माधो!

#

छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,इतनी बात परखना.

रिश्ते  बर्फ   न  हो  जाएँ ,  संवाद   बनाये   रखना.

#

छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,एक रुपैय्या दे दो.

काकी बोली या  दुकान से  इक   टाफी तो ले दो.

#

छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,चुम्बन देती काकी.

काका भी मदहोश हो गए,    दुनिया   देखे  बाकी.

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छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,करके और बहाना!

हीर कह रही रांझे मुश्किल अब  मिलने है आना!!

#

छन्न पकैया  -   छन्न पकैया ,ये सुखिया-सुखलाल,

लैला-मजनू क़े  वंशज  हैं   या   सोनी - महिवाल ?

दोहावली...

हम भी   आज जवान है,  शौक इन्हें चर्राया!

कल की बातें याद कर,चुम्मा इक चिपकाया!!!

**

सार्वजनिक ये स्थान है,पर दिखता एकांत .

दादी को मौका मिला.पल-छीन हुये सुखांत.

**

प्रेम,प्रकृति का प्रमेय,मुश्किल से हो साध्य.

बंधन वय के तोड़कर,मिला इन्हें आराध्य.

**

चोरी से खींचा गया, कौन ये  छायाकार?

वैसे भी चोरी बिना, कहाँ फला है प्यार!

**

कविता करने के लिये,हर शै है आसान!

अपने घर में हो यही,घट जाएगी शान!!!!  

 

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श्री संजय मिश्रा 'हबीब'

कुण्डलिया (प्रतियोगिता से बाहर)

महके जीवन में कभी, बिन तेरे ना रंग

कभी अकेला तू कहाँ, हर पल तेरे संग

हर पल तेरे संग, निभाती जाऊं कसमें

फूलों का है साथ, पगी जाऊं मैं रस में

मन मेरा आकाश, परिंदा बन तू चहके

अपना सुन्दर बाग, सदा ऐसे ही महके

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जलता दिनभर धूप में, थका नहीं है भोर

मुसकाता मिलने चला, संझा से चितचोर

संझा से चितचोर, यामिनी खिल मुस्काई

निज आँगन में नेह, चांदनी सी बिखराई

आँचल डाले रात, दिवस तबतक ना ढलता

रोशन रखने राह, बना सूरज वह जलता

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प्रेम धरा है, गगन है, प्रेम सरी की धार

प्रेम 'शेष' का फन बड़ा, जहां थमा संसार 

जहां थमा संसार, नहीं जो देता धोखा

सुन्दर पावन आंच, भरे उत्साह अनोखा

ऐसा प्रेरक प्यार, समय मोहित ठहरा है

रंग बिरंगे फूल, सींचती प्रेम धरा है 

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अनुष्टुप छंद - एक प्रयास (प्रतियोगिता से अलग)

|

ढल रही बहारों में, बहती रसधार है

कंटकमय राहों में, हंसता सनसार है

 

संग धरम साथी का, प्रेरक यह साथ हो

जलती मरुभूमी भी, हरियर भिनसार है

 

साथ धवल चन्दा है, चांदनी बरसात सी

कोमल उजियारे का, मोहक अभिसार है

 

अंतरमन भावों से, छलछला रहा अभी

सागर सरिता का यूँ, मिलना उपहार है

 

यूँ बचपन लौटा है, शोख और शरारती

झुर्रियों से यहाँ झांकें, क्या निश्छल प्यार है !

 

कुंडलिया

कुण्डलिया (प्रतियोगिता से अलग)

|

नेह बदरिया छा गयी, मौसम की है मांग

फागुन को मस्ती चढी, अरु दादी को भांग

अरु दादी को भांग, जोश में गडबड कर दी

धर दादा की बांह, गाल में चुम्मा जड़ दी

दादा जी आवाक, चमकती घोर बिजुरिया 

दादी बन कर आज, बरसती नेह बदरिया

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श्री प्रवीण सिंह ‘सागर’

ढल रही उम्र हमारी, अब लड़खड़ा रहे हैं पैर
ऐसे में ऐ ज़िंदगी, बस इतना सी है खैर

कि हमसफ़र की आँखों में, अब भी प्यार का वही नज़ारा है
जिसने प्रतिकार कभी चाहा नहीं, हर पल दिया सहारा है 

.उस माहजबीं का अभी भी, जवान है प्यार मेरे लिए 
.तो क्या हुआ जो चार दशक हो गए हमें फेरे लिए

.उनके बिना जीना कभी, न हमें गवारा था
जिसने बड़े सलीके से हमारे, घरोंदे को संवारा था. 

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श्रीमती सीमा अग्रवाल

 (१)

प्रीत बंसुरिया की लहर. कानन में जब जाय.

वय के सारे बंध सब ,पल भर में बह जाय ll1ll 

 

फागुन कर दे बावरा, दादा जी हरसाय ,

दादी पूछे कान में,  दूं क्या रंग लगाय ll2ll 

 

दादी जी की माँग सुन दादा जी हैं दंग,

हनीमून को जाऊँगी,सजना तुम्हरे संग ll3ll 

 

प्रीत प्यार का उम्र से ना है कोई नात ,

चढ़े प्रेम का रंग जब ,दूजे रंग बह जात ll4ll 

 

जिसने खीचा चित्र ये, उसको जाय इनाम,

सीख बड़ी वो दे गया बिन कौड़ी बिन दाम ll5ll

 

(२)

अन्य छंद

 

दादी जी की मांग, सुन दादाजी हैं दंग,

हनीमून को ले चलो सजना अपने संग,

सजना अपने संग,घुमा दो दुनिया सारी,

मै भी करश्रृंगार लगूँगी बिलकुल न्यारी,

बन पंछी अम्बर से देखूँ धरती सारी,

बिखरा दूं हर गाँव -गली में प्रीत हमारी

 

फागुन कर दे बावरा,दादाजी हर्षाय

दादी पूछे कान में दूं क्या रंग लगाय 

दूं क्या रंग लगाय गुम हुयी सिट्टी-पिट्टी,

मनवा सोंचे कितनी बातें मीठी-खट्टी 

बरसों पहले खेला जब  था फाग अकेले

मन में चित्रों के है लगते अनगिन मेलेl

 

प्रीत प्यार का उम्र से ना है कोई नात 

चढ़े रंग जब प्रेम का दूजे रंग बह जात 

दूजे रंग बह जात अजब है प्रेम नगरिया 

राजा हो या रंक चलें सब एक डगरिया 

सुन लीजे यह बात भाव बस यही टिकाऊ 

सबका होता मोल प्रेम पर नहीं बिकाऊ 

 

(३)

हैं शब्द बहुत कम कैसे जी की बात बताऊँ 

कैसे प्रियतम तुमको मै सब-कुछ समझाऊँ 

नेह बदरिया बन तुम मन अम्बर पर छाए 

पतझर  में भी हो बसंत नव कुसुम खिलाये

जब-जब मै देखूं तुमको मै नूतन हो जाऊं 

कैसे प्रियतम तुमको मै सब कुछ समझाऊँ   

 

चित्र में प्रस्तुत वर्णन को कुछ काल्पनिक भावों  की परिणिति के रूप में  अनुवादित कर एक अंतिम प्रस्तुति और दे रही हूँ....इसे और सहन (वहन) कर लीजिये  दादी उवाच :----

 

तुम जानत साँवरिया हमको ,जबही तो हमें यूँ सताय रहे,

अब बात बताय के सौतन की , रिसियाए हमें मुसकाय रहे, 

तुम लाख छिपाओ भले मन की, पर नैन तो सच बतियाय रहे,

सब खोजखबर बिना बोले कहे, अगुआ बन ये पतियाय रहे l

सुनो ठान लिए हमहूँ मन मा, कुल साठ बसंत समाय दिए,

मन आँगन मा तुम्हरे फिर से, अरजी अपनी हैं लगाय दिए,

अब ढीठ बनो जो बनो तो बनो, हम प्रीत तुम्हे समझाय दिए,

सब लाज-सरम धर ताक़ पे लो, फिर नेह की लौ सुलगाय दिएl 

 

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श्री गणेश जी बागी

(प्रतियोगिता से अलग)

दादी करती याद है, गये दिनों की बात,
नदी किनारे घूमना, धर दादा का हाथ,

.

दादा दादी से कहे , सुनियो बात हमार
पहले जैसा आज भी, क्या करती हो प्यार,

.

दादी शरमा कर जरा, मंद मंद मुस्काय,
काट चिकोटी लात पर , हाँ में सर डोलाय,

.

प्यार अगर है आज भी, कल्लुआ की अम्मा,
जल्दी से अब दे मुझे, गाल पे इक चुम्मा,

.

दादी बोली ये उमर, और गज़ब है हाल,
बैठी दादा के बगल, दादी चूमे गाल,

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श्रीमती राजेश कुमारी

(१)

प्रीत रीत में भेद नहीं,सब कुदरत के खेल 

वृद्ध तरु भी झूम उठे,जब चढ़े प्रेम की बेल 

 

जब चढ़े प्रेम की बेल,युवा मंद-मंद मुस्कावें 

इन्द्र ,शिवा सब देव गण,नेह पुष्प बरसावें 

 

नेह नीर से सींचते ,अपने आँगन की क्यारी  

दीन ,हीन सब नृप बने ,प्रेम की दौलत भारी 

 

जिस घर में नेह की पूँजी, वृद्ध हो सिया राम 

बैकुंठ उन्ही के चरणों में,सकल तीरथ धाम

 

प्रेम ही निष्ठां प्रेम ही पूजा ,प्रेम  हर्दय संगीत 

स्वर्ण युगल समझा रहे, आह्लादित प्रीत रीत.  

 

(2)

उम्र की दहलीज है ,पर आस अभी बाकी है

ये तेरे मेरे प्यार की ,मिठास अभी बाकी है

माना कि झड़ चुके हैं पत्ते सभी बदन  के 

शाख है हरी ,बुलबुलों का वास अभी बाकी है

ना जाने कब ढह जाए ,ये प्यार कि ईमारत 

ये रब की इबादत ,प्रेमी दिलों की सियासत 

पर खुल के जीने का एहसास अभी बाकी है 

ये तेरे मेरे प्यार की ,मिठास अभी बाकी है 

अब जीर्ण हो चुकी है ,जीवन की मधुर वीणा 

पर इसके सप्त सुरों में ,गीत अभी बाकी है 

प्रीत अभी बाकी है,सुरसंगीत अभी बाकी है

ऐ  मेरे साथी, नवल पीढ़ी के  बूढ़े दर्पण 

जो है शेष, वो जीवन भी तुझ पे अर्पण 

क्या कलम कोई परिभाषित कर पायेगा  

हम दोनों के  नेह का ये अटूट  समर्पण

इस गठ बंधन में विश्वास अभी बाकी है 

ये तेरे मेरे प्यार की मिठास अभी बाकी है  

उम्र की दहलीज है ,पर आस अभी बाकी है

 

रचना:

क्या होता  तस्वीर में जो  होती एक युवा बाला 

दादी के इक चुम्मे ने काव्य इतिहास रच डाला 

क्या जवां क्या बूढ़े सब इन्हें देख- देख  हर्षाये 

क्या कवि क्या लेखक देखो सब के सब बौराए   

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श्री रघुबिन्द्र यादव

दोहे

रजिया-रमलू ने किया, यारो सच्चा प्यार।
ज्यों-ज्यो उम्र बढ़ती गई, आता गया निखार।।

 

मासूका है साठ की, आशिक अस्सी पार।
निभा रहे हैं आज तक, यौवन का इकरार।।

 

ख़ौफ़  नहीं है खाप का, नहीं लोक की लाज।
चुम्बन लेकर प्यार का, खोल दिया है राज।।

 

आकर्षण कब देह का, दिल से करते प्यार।
उमर ढली तो क्या हुआ, कायम अभी खुमार।।

 

साठ साल से कर रहे, दोनों सच्चा प्यार।
खुलेआम भी कर दिया, अब इसका इजहार।।

 

मिलजुल कर हमने सहे, पतझड़ और वसंत।
पाक प्रेम कायम रहा, हुआ हवस का अंत।।  

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श्री दुष्यंत सेवक

 

पाकर यह चुम्बन तेरा, मत्त हुआ मैं हाय 

पिए पुरानी मदिरा ज्यों, नशा और गहराय

धोरे हो गए केश सब, मन लेकिन रंगीन

दादा दादी जब मिले, बजे प्रेम की बीन 

बिसराया जग ने भले, साथ है मेरा मीत 

अंत काल तक बनी रहे, तेरी-मेरी प्रीत 

बड़ा आसरा दे हमें, छोटी सी ये दुकान 

दो जून रोटी मिले, बना रहे सम्मान 

इतनी सी है आस अब, वय का आया ढलान

संग संग दोनों को ही, लीजो बुला भगवान्

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श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह (सज्जन)

(प्रतियोगिता से अलग)

मुँह में न दाँत रहै, पेट में न आँत रहै,

तन खुला खुला रहै, या न रहै दमड़ी

हो न फूटी कौड़ी चाहे, मौत आवै दौड़ी चाहे

बाल हों सफेद चाहे, सिकुड़ी हो चमड़ी

खुलै न दुकान चाहे, बिकै न समान चाहे,

मरे स्वर्ग मिलै चाहे, रौरव के अगिनी

बैठी रहा तू नगीचे, जियरा तू रहा सींचे

तब कौन चिंता बाटै, हमका हो सजनी

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श्री नीरज

बुढ़िया-बुढुवा मनुहार करै ऋतुराज बसंत कि मौसम मा.
मुख चुम्बन लोल कपोल लिए ऋतुराज बसंत कि मौसम मा.
सब गाल म लाल गुलाल मले ऋतुराज बसंत कि मौसम मा.
बुढ़िया-बुढुवा भी जवान लगे ऋतुराज बसंत कि मौसम मा.. [१]

मुक्तक --
न तन की झुर्रियां देखो, ये देखो प्यार कितना है .
उमर के टूटते बंधन जो दिल में प्यार इतना है.
बयासी साल से ज्यादा के दोनों वृद्ध दम्पति है
जवानी लग रही बौनी, बुढापन प्यार इतना है.  [२]

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श्री सतीश मापतपूरी जी

 ( प्रतियोगिता से अलग )

उमर  थकाये क्या भला, मन जो रहे जवान.

बूढ़ी गंडक में उठे , यौवन का तूफ़ान .

.

मन का मेल ही मेल है, तन की दूजी बात.

जहाँ प्रीत की लौ जले, होत है वहीँ प्रभात.

.

मन के सोझा क्या भला, तन की है अवकात.

तन सेवक है उमर का, प्रीत का मन सरताज.

.

तन की चाहत वासना,मन की चाहत प्रीत.

प्रेम हरि का रूप है, प्रेम धरम और रीत.

.

तन में एक ही मन बसे, मन में एक ही मीत.

प्रीत नहीं बाजी कोई, नहीं हार - ना जीत.

.

जस पाथर डोरी घिसे, तस - तस पड़त निशान.

मापतपुरी का फलसफा, प्रेम ही है भगवान. 

 

प्रतियोगिता से अलग )

देख लो आँखें खोलकर , जीवन का यह ढंग.

मिलन देखकर दो बूढों का, उमर रह गयी दंग.

उमर रह गयी दंग, जवानी कैसी है यह.

आकर्षण की मधुर, कहानी कैसी है यह.

करते हैं जो प्यार , उन्हें मतलब क्या तन से.

प्रीत एक अनुभूति, वास्ता जिसका मन से.

 

दोहे .

फागुन माह की हवा नशीली, कर देती है मस्त.

क्या जवान और क्या बूढ़े, हो जाते मदमस्त.

 

हो जाते मदमस्त, फाग जब सर चढ़ बोले.

बिन ढोलक और नाल, राग नस -नस में घोले.

 

जीवन -दर्शन को सिखलाते, ये दम्पति निराले.

इन्हें देखकर सबक तो ले लो, बैर पालने वाले.

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श्री अरुण कुमार निगम

छंद (प्रतियोगिता से बाहर)

झुर्रीदार हुये गाल, श्वेत हो चुके हैं बाल
चालढाल है निढाल, मनवा जवान है
हुई उम्र अस्सी साल, सूखे नयनों के ताल
हाल हुआ बदहाल, भाव में उठान है.
लुटा चुके सारा माल, अर्थ ने किया कंगाल
व्यर्थ जेब न खंगाल, मन में तूफान है
खूब रखा है सम्भाल , लबरेज मालामाल
दिल-प्रेम-टकसाल, प्रेम ही जहान है.
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श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

 

प्यार अब भी कम नहीं है

क्या हुआ अपना जमाना अब नही है।
बाजुओं में वो पुराना दम नहीं है॥
ढल चली है रात यौवन की भले ही।
इन दिलों में प्यार अब भी कम नहीं है॥
बढ़ चली है उम्र फिर भी प्यार गहरा है।
अंगूर अपना था मगर किसमिस भी मेरा है॥
क्या हुआ हम हर तरफ से बेकार हो गए।
जी लेगें बाकी जिन्दगी गर साथ तेरा है॥
यूँ तो अपने भी अब पराये हो गए।
दूर हमसे ही हमारे साये हो गए॥
बहुत गई थोड़ी रही कोई चिंता है नही।
प्रेम दिवस के पर्व लो हम तुम्हारे हो गए॥

 

(2)

कुंडलिया
दादा दादी दे रहे,नव प्रेमी को मात।
प्रेम जड़ें गहरी हरी,सूखे टहनी पात॥
सूखे टहनी पात,बाग बसंत है छाई।
मन्मथ मन को मथ रहा,चुम्मा मागें दाई॥
मार्डन जुग की धारा छोड़ो,प्रेम करो सादा।
जइसन प्रेम निभाइन दादी,प्रेम निभावें दादा॥

 

(3)

 

दाद दिया है आपने,मन में खुजली होय।
आभार कैसे मैं करूँ,मिला शब्द नहि कोय॥
मिला शब्द नहि कोय,राज जी छंदौ न जानी।
बागी जी जब मिलै छंद न,वोका मुक्तक मानी॥
घुमा फिरा कर फिर कहूँ,सबको धन्यबाद।
मन तो गदगद होत है,दिया आपने दाद॥

 

(4)

सांझ में लाली गहराती है अक्सर।
सूरज को पास बुलाती है अक्सर॥
बुढ़ापे की मुहब्बत है लाली वही।
हर वृद्ध को पास लाती है अक्सर॥
सुख इसमें है जो उसका वर्णन नहीं।
स्वर्ग सुख मन को दिलाती है अक्सर॥
हमें सहारा इसी उम्र में चाहिए।
हर सहारा यही छुड़ाती है अक्सर॥
साथी का सहारा औ प्यार ही है जो।
हमें लम्बी उम्र दिलाती है अक्सर॥

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श्रीमती सिया सचदेव

 

ज़िन्दगी के कठिन सफ़र में भी साथ तुने मेरा निभाया है 

कोई अच्छे करम किये होंगे, मैंने साथी जो तुझसा पाया हैं 

 

प्यार इतना दिया मुझे तुमने,हर घडी तुमको पास पाया है 

मैं था अनजान हर रवायत से ,तूने  जीना मुझे सिखाया है 

 

लाख सुख दुःख भी संग सहे हमने ,जाने कितनी ही मुश्किलें आई 

साथ  छूटा नहीं कभी अपना,हर कदम तुमको साथ पाया हैं 

मैं तो मसरूफ रहा दुनिया में, वक़्त तुझको भी कभी  दे ना सका 

हंस के तूने निभाई सब रस्मे ,घर को मेरे सदा सजाया है 

 

उम्र के इस पड़ाव पे है खड़े ,इक दूजे का हम सहारा है 

कोई बिछड़ा तो जियेगे कैसे,हर घडी दिल पे डर का साया है 

____________________________________________________

 

डॉ० ब्रजेश कुमार त्रिपाठी

चले पुरवैया,आया फिर से बसंत
हो गया देखो,सभी चिंताओं का अंत
उम्र न दीखे,यहाँ दीखे बस कन्त.
प्यार ही प्यार,बस दिखता जीवंत.

अब चंद दोहे भी ....

नीरस सी यह जिंदगी, कितनी भागमभाग
थोड़ी मस्ती चाहिए, बनी रहे यह आग--१

प्रेम बांधता है हमें, जीवन का यह तंत्र
दादा दादी दे रहे, उपयोगी यह मन्त्र--२

प्रेम कहाँ छिपता कभी, छिपे न मन की आग
प्रीत चाँद की चांदनी, छिपा रही सब दाग--३

मन बौराया तो लगा, आई मौत करीब
किन्तु प्रीत ने छुआ तो, बनने लगा नसीब--४

मन की वाणी मूक पर, नयन कहें अविराम
बेचैनी बढ़ रही है, तुरत लीजिए थाम—५

कुंडली

दादी कहती कान में दादा सुन हरषाय

जो भी देखे दूर से जाने क्यों भरमाय

जाने क्यों भरमाय,..अरे वह उम्र नहीं है

दोनो अब सकुचाय, बात ऐसी निकली है

कह बृजेश माहौल...नशे का ऐसा आदी

हर्षाये दादा जी...  पर अब शर्माती दादी

 

रचना :

 

मस्ती की वह परिभाषा है

मन की छिपी हुई आशा है

मन की बेचैनी का अंत

सखा कहें सब उसे बसंत

 

पश्चिम का वह  वैलेंटाइन 

डे देता है जो उपदेश

मस्त चला कर पुरवैया को

दे बसंत वह ही सन्देश    

 

इसमें जोर कहाँ है मन पर

चलती ऐसी मस्त बहार

दादा-दादी खुल्लमखुल्ला

देखो कैसे करते प्यार

 

आई लव यू खुल्लम-खुल्ला

कहते फिरते युवा-युगल

ऐसे खुशगवार मौसम में

दादी त्यागें क्यों ये शगल?

 

फागुन मस्त-बयारी है

प्रेम-प्यार की बारी है

शर्म और संकोच त्याग कर

कर ले जो तैयारी है  

 

मन की मन में रह जाएँ जो

तो यह मन अकुलाता है

कर गुज़रे जो मन की फिर भी

जाने क्यों घबराता है

 

पर तुम प्यारे! बहक न जाना

प्रेम सलीके से अपनाना

वर्ना बिगड गयी जो जानम  

दोस्त हँसेगा खूब ज़माना

 

______________________________________________

 

श्री अरविन्द कुमार

दादा- दादी प्रेम में, मत कीजे उपहास,
आँखों में माधुर्य है, मुख पर स्मित हास,

मुख पर स्मित हास लिए, दादी यूँ बोली,

क्यूँ करते हो प्राणप्रिय, हमसे ऐसी ठिठोली,

दादा का उत्तर सुनकर, खिल उठी ये वादी,

पहले हैं हम राधा-मोहन, फिर हैं दादा-दादी.

________________________________________________

 

श्री रवि कुमार गिरि

दोहे

 

उम्र बाधा ना बने दिए सबको समझाय ,
निक लगे वो साजना  तोहे बाँहों  में पाय ,
.
जिसको जो भला लगे वही करे वो काम ,
ये उम्र तो कहती हैं ले हरी का नाम  ,
.
सुख के अधार बना ये बुजुर्गो का मेल ,
जीवन की जित हैं ना समझो प्रीत का खेल ,

_________________________________________________

 

श्री अतेन्द्र कुमार सिंह रवि के ९ सवैया छंद

 

छंद -सवैया 

.

सुंदरी सवैया --इसमें ८ सगण और अंत में गुरु मिलकर कुल २५ वर्ण होते हैं , इसे मल्ली भी कहते हैं ......

 (१)

लिखने हम जात जरा इस ओर अभीं हमरे प्रभु साथ रहावैं

तहरे किरिपा अब साथ रहै देखिके छवि को कुछ तो रच जावैं

 .

(२)

निरखे छवि में 'रवि' प्रेम भरा दिखता कब से चलि आवत बावे 

निज होंठ सता कर दादी जरा अस चुम्बन से हिय को हुल्सावे

 

(३)

जब ही जब होंठ सटे तब कन्चन गाल के हाल बतावत दादू 

भर जाय जरा हिय पाय सनेह करे मन भाव बखान जुआजू 



अरविन्द सवैया -- इसमें ८ सगण और अंत में लघु मिलकर कुल २५ वर्ण होते हैं  ......

 

(४)

कितने अरु साथ रहै यह बात नहीं मन में जिनके उपजाय

यह राग सनेह सदेह भरा मन चन्चल आज दिखे हरसाय 

 

मदिरा सवैया -- इसमें ७  भगण और अंत में गुरु मिलकर कुल २२  वर्ण होते हैं  ......दादा के मन उपजी भावना  को मदिरा सवैया के रूप में

 

(५)-

जो रहती तुम साथ सदा अब प्राण प्रिया यह आस भरा 

कानन में कछु आज कहो,भरमा,इक चुम्बन दीन जरा

 

मत्तगयन्द सवैया -- इसमें ७  भगण और अंत में  दो गुरु मिलकर कुल २२  वर्ण होते हैं  ......

 

(६)-

ज्यों छवि में गृह अन्दर में दिखते बहु इपात्र रसोई 

मान सदा करिके इह दादी बनीं अब दादुअ संग सगोई   

.

लवंगलता सवैया -- इसमें ८ जगण और अंत में लघु  मिलकर कुल २२  वर्ण होते हैं  ......   

(७)

अजी इन देह शवेत दुकूल निकेतन में हरसाय रही छन

भरै  मन नेह सदेह भला पन चारहि अब झाँक रही तन

.

वाम सवैया---  इसमें ७ जगण १ यगण मिलकर कुल २४ वर्ण होते हैं ---- इसे मंजरी  मकरकंद और माधवी भी कहते हैं ....................

(८)-

बढे पग आजि सु दीनस दादी जु एहि पड़ाव न देर भ आजू

लिहे भलि थाम अरू अस रोकिय चुम्बन गाल सटावहिं दादू

.

कुन्दलता सवैया --  इसमें ८ सगण 2 लघु मिलकर कुल २६  वर्ण होते हैं ---- इसे ''''''सुख  सुखद और किशोर भी कहते हैं ....................

दादा और दादी की अंतिम इच्छा  के रूप में रचित सवैया

(९)

जग में अब साथ रहो तुम नाथ सदा प्रभु जी संगहि छिटकावत

जब जन्म मिले तुझ संग बनै, निज देह रहै नित ह़ी छलकावत.

_______________________________________________________

डॉ० प्राची सिंह

माटी का घरोंदा देह का घर 

केवल क्षण भर की माया है... 

ये जन्मो का साथ है, फिर 

रूहों को साथ मिलाया है...

_________________________________________________

श्री तिलक राज कपूर

प्रतियोगिता से बाहर

मित्रों अभी-अभी वैलेंटाईन डे निकला है, समय की व्‍यवस्‍था है जिसमें सब कुछ उत्‍सव में परिवर्तित करने का एक बाज़ारी चलन है। मातृ-दिवस, पितृ-दिवस वगैरह-वगैरह सब एक दिन के रिश्‍ते रह गये हैं वो भी वित्‍तीय क्षमता पर आधारित, ऐसे में यह चित्र बहुत कुछ बोलता है और जो बोलता है उसके प्रति मेरा नज़रिया प्रस्‍तुत है।

 

अगर ये ही खुशी देता है तो ऐ मित्र तुम रख लो

रहे हम दूर जिससे उस तरह का चित्र तुम रख लो।

          हमारी देह सतही है सतह से इस का नाता है

          जहॉं पर देह मिट जाये मुझे वो भाव भाता है।

          छुअन इक रूह की, पहुँची नहीं गर दूसरी तक तो

          प्रदर्शन देह भर का राह में खुद को मिटाता है।

 

मगर फिर भी तुम्‍हारी चाह है तो मित्र तुम रख लो

रहे हम दूर जिससे उस तरह का चित्र तुम रख लो।

 

          मोहब्‍बत करने वालों को समझ ये अर्थ आता है

          अगर मिलना नहीं हो रूह का सब व्‍यर्थ जाता है।

          पढें महिवाल-सोणी, हीर-रॉंझा, कैस-लैला को

          समझ आया मोहब्‍बत सिर्फ़ इक अंतस का नाता है।

 

ज़माने की धरोहर है यही तो मित्र तुम रख लो

रहे हम दूर जिससे उस तरह का चित्र तुम रख लो।

____________________________________________________

श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ  

मखमली  याद  को पालकी में बिठा ,

आस  पलकों पर सपने सजाने लगी !

सुरमुई  साँझ  की साँस चन्दन हुई ,

चाँदनी  फिर  महावर लगाने लगी !

गीत  में ढल गयीं  उम्र  की  आहटें ,

ज़िन्दगी धुन नयी गुनगुनाने लगी !

कुछ करिश्मा हुआ उम्र की सांझ भी ,

प्यार की ज्योति से जगमगाने लगी !

____________________________________________________

 

श्री मुकेश कुमार सक्सेना

 

हुयी सब आशाएं जब क्षीण 

कर दिया यौवन ने प्रस्थान.

तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 

दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

 

लगा जब होने शिथिल शरीर 

हुयी जब काया भी बे जान 

तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 

दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

हमारे ज़र्ज़र हुये शरीर 

मगर न रहे कभी गंभीर 

हमारे दिल थे सदा जवान 

तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 

दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

दिया हाथो में मेरे हाथ 

उम्र के हर पड़ाव पर साथ 

सजा कर होंठों पर मुस्कान.

तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 

दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

_____________________________________________

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Replies to This Discussion

साधुवाद!
सराहनीय प्रयास।
सभी रचनाएं एक साथ पढ़ी जा सकती है।
ये तो ऐसा लगता है कि अक्षय अमृत कलशे
एक ही स्थान पर रखे हैं,बस हमें अपनी
औकात के मुताबिक पी भर लेना है।

स्वागतम भाई विन्ध्येश्वरी प्रसाद जी ! समर्थन के लिए साधुवाद मित्र !

सभी रचनाएँ एक साथ छिटके हुए इन्द्रधनुषी रंगों की तरह प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत आभार अम्बरीश जी 

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