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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 35 की समस्त एवं चिह्नित रचनाएँ

सुधिजनो !
 
दिनांक 16 फरवरी 2014 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 35 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.
 
इस बार संकलित रचनाओं की प्रस्तुति डॉ. प्राची के सौजन्य सम्पन्न हो सका है. इस बार के संकलन की विशिष्टता यह है कि आयोजन की प्रस्तुतियों पर आये प्रतिक्रिया छंदों को भी स्थान मिला है.

हालाँकि इसी दौरान मैं इस दफ़े भी एक साहित्यिक समारोह के सिलसिले में एक दिवसीय प्रवास हेतु पटना गया था और वहाँ से आयोजन के अंतिम दिन लखनऊ आ गया.

 

पुनः कहूँ, इस मंच की अवधारणा ही वस्तुतः बूँद-बूँद सहयोग के दर्शन पर आधारित है. यहाँ सतत सीखना और सीखी हुई बातों को परस्पर साझा करना, अर्थात, सिखाना, मूल व्यवहार है.

जैसा कि सर्वविदित है, छंदोत्सव के आयोजन में प्रदत्त छंदों पर ही रचनाओं का प्रस्तुतीकरण होता है. उन छंदों के विधानों के मूलभूत नियम भी आयोजन की सूचना के साथ भूमिका में स्पष्ट कर दिये जाते हैं. प्रतिभागियों से अपेक्षा मात्र इतनी होती है कि वे उन दोनों छंदों के मुख्य नियमों को जान लें और तदनुरूप रचनाकर्म करें.
 
इस बार के आयोजन के लिए चौपाई तथा कुण्डलिया छंदों को लिया गया था. छंद के विधानों या इनसे पहले शब्दों के ’कलों’ और उनसे साधे जा सकने वाले शब्द-संयोजनों के नियमों के लिखे होने के बावज़ूद कई रचनाकार इस बार भी उन्हें बिना पढे प्रस्तुतियाँ दीं. ज़ाहिर है, काव्य-दोष तो होंगे ही.

 

इस बार भी आयोजन की सबसे सार्थक घटना इस मंच के प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराजभाईसाहब की मुखर प्रतिभागिता को मानता हूँ. इन्होंने अपने प्रतिक्रिया-छंदों से रचनाकारों का न केवल उत्साहवर्द्धन किया बल्कि माहौल को सरस भी बनाये रखा. इस क्रम में उनका भरपूर साथ दिया प्रबन्धन की सदस्या डॉ. प्राची और कार्यकारिणी के वरिष्ठतम सदस्य आदरणीय अरुण कुमार निगमजी ने. पिछले आयोजन की तुलना में इस बार उनकी संलग्नता अधिक मनोयोगपूर्ण रही. इतनी कि मैं संचालक के तौर पर अधिकतर अनुपस्थित रहा. ऐसे में आदरणीय योगराजभाईजी का अपनी शारीरिक अस्वस्थता और कमज़ोरी एवं व्यस्तता के बावज़ूद मंच पर सतत बने रहना उनके प्रति मुझे और अधिक श्रद्धावान बना रहा है.

 

पिछले माह की तरह इस आयोजन में सम्मिलित हुई रचनाओं के पदों को रंगीन किया गया है जिसमें एक ही रंग लाल है जिसका अर्थ है कि उस पद में वैधानिक या हिज्जे सम्बन्धित दोष हैं या व पद छंद के शास्त्रीय संयोजन के विरुद्ध है. विश्वास है, इस प्रयास को सकारात्मक ढंग से स्वीकार कर आयोजन के उद्येश्य को सार्थक हुआ समझा जायेगा.

आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव

 

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चौपाई छंद
1. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

तन में चुस्ती, मन के सच्चे । नीली वर्दी में सब बच्चे ॥
छात्र सभी व्यायाम कर रहे । कितना सुंदर काम कर रहे ॥
मौन सभी हैं, कर फैलाये । हर बच्चा शिक्षक बन जाये ॥
तन की रक्षा बहुत जरूरी ।  होगी तब ये शिक्षा पूरी ॥
झांक रहा दीवार पकड़कर । पप्पू खुश है खेल देखकर ॥
सोच रहा, यह दुनिया न्यारी । कब आएगी मेरी बारी ॥
चढ़े सफलता की सब सीढ़ी । ये भारत की भावी पीढ़ी ॥
जो संस्कार मिले बचपन में। काम वही आये जीवन में॥     

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
आयोजन का काटा फीता | रचनाओं से है मन जीता ||
सीधी सादी हर चौपाई | बात बनी है सुंदर भाई ||

डॉ० प्राची सिंह
चित्र छंद में खूब समाया, यह प्रयास है मन को भाया
यह तुक भाई समझ न आये, 'जायें' संग रखा  'फैलाये'
अंतिम पद भी आधा छोड़ा, मात्रा पर भी अटका रोड़ा
तनिक इसे भाई फिर बाँचें, मात्रा गिन गिन इसको जाँचें
चढ़ें सफलता की सब सीढ़ी, ये भारत की भावी पीढ़ी
बात बहुत ये मन को भाई, भैयाजी लें खूब बधाई...

आदरणीय अरुण कुमार निगम
पप्पू की छवि खूब उकेरी  |  भ्रात  बधाई  लीजो  मेरी   ||
आयोजन का फीता काटा | द्वार रँगोली का ज्यों आटा ||
चित्र संग शुभ न्याय किया है | शब्द-शब्द "आरती-दिया" है ||
भली लगी हमको चौपाई | मीठी-मीठी छंद-मलाई ||

आदरणीय अविनाश बागडे
छात्र सभी व्यायाम कर रहे । कितना सुंदर काम कर रहे ॥
चित्रानुरूप  सुन्दर चौपाई , अखिलेश कृष्ण मन को है भाई
 
आदरणीय रविकर
भैया हैं सुन्दर चौपाई | विषयवस्तु पर कलम चलाई |
संशोधन कर सुगढ़ बनाई | रविकर देता चला बधाई

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2. आदरणीय गिरिराज भंडारी

मै बच्चा हूँ भोला भाला I देख रहा भाई की शाला II
ईंटों पर मै खड़ा हुआ हूँ I ऐसे थोड़ा बड़ा हुआ हूँ II
अब मै सब कुछ देख रहा हूँ I मै भी पढ़ता सोच रहा हूँ II
साथ मुझे कोई ले जाये I मुझको भी पढ़ना सिखलाये  II
गणवेशों में जड़े हुये है I लाइन में सब खड़े हुये हैं II
शिक्षक पीटी करा रहे हैं I जैसे मुझको बुला रहे हैं II
पर पीटी से मै डरता हूँ  I जब भी करता, मैं गिरता हूँ II
मै पीटी ना कर पाऊँगा  I छोटा हूँ मै गिर जाऊँगा II
मै शाला जाऊँगा पढ़ने  I अपनी क़िस्मत खुद ही गढ़ने II
लेकिन मै पढने  जाऊँगा I पढ़ के वापस घर आऊँगा II

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
चित्र यहाँ खुल कर है बोला I सुन गुन कर मेरा मन डोला    
लगती हो बेशक यह पहली I हर चौपाई रची सुनहली

डॉ० प्राची सिंह
भंडारी जी यह चौपाई, सुन्दर सुन्दर मन को भाई
ईंटे पर चढ़ बच्चा झाँके, विद्यालय का जीवन आँके
'सोच' रही हूँ 'देख' रही हूँ, बाँच यहाँ तुक लेख रही हूँ
'करा' 'बुला' में भी यह गड़बड़, तुक मिलान में कर दी हड़बड़
कब बच्चे पीटी से डरते, गिरने पर कब भला ठहरते
अंतिम पद में 'लेकिन' खटका, कहन तर्क पाने में अटका
बच्चों का लिखना औ' पढ़ना, अपने हाथों किस्मत गढ़ना
बात बहुत सच्ची है भाई, स्वीकारें तत्काल बधाई

आदरणीय अरुण कुमार निगम
जय जय जय भ्राता भण्डारी | बढ़िया की प्रियवर तैयारी ||
बच्चे को किसलिए डराया |हमको तो यह समझ न आया ||
"जाउंगा"- "जाऊंगा" होगा | ऐसे ही "आऊंगा" होगा ||
बाकी ठीक लगी चौपाई | सच कहता हूँ बहुत बधाई ||   

आदरणीय रविकर
बढ़िया बातें शामिल करते | भावी जीवन चले सँवरते ||
सत्य सिखाते दुनियादारी | बार बार रविकर आभारी ||
लगती ऊँची है यह शाळा | लाले पड़ जायेंगे लाला |
विद्यालय जाना सरकारी | पाओगे खिचड़ी तरकारी ||

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3. आदरणीय अविनाश बागडे

मजबूरी की एक आड़ है ,ईंटों की ये लगी बाड़ है।
आँखे मेरी देख रहीं है , कितना करता कौन सही है।
मै छोटा हूँ मै बच्चा हूँ , अभी उम्र में मै कच्चा हूँ।
कल मै भी शाला जाऊँगा , अनुशासित भी कहलाऊँगा।
मम्मी पापा गए काम पे , कर गए मेरे नीड़ नाम पे।
करता घर की मै रखवाली , रखी जेब में मेरे ताली।
धीरे धीरे उम्र बढ़ेगी , आधी ये  दीवार हटेगी।
मै भी पहनूँगा पोशाकें , कल को इस शाला में जाके।
मम्मी-पापा खूब कमाए , पढने उनका बेटा  जाये।
सैनिक बन कर काम करेगा ,देश का ऊँचा नाम करेगा।

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
सबसे पहली जो चौपाई I "आड़", "बाड़" अखरे हैं भाई II
दो इक दो का गण अड़ता है I छंद यहाँ धीमा पड़ता है II    
ठीक ठाक है चाहे  गिनती I दास करे छोटी सी बिनती  II
वचन दोष मन को भरमाये I "आए" संग मिलाया "जाये" II

आदरणीय योगराज जी के कहे पर सौरभ पाण्डेय
बात उचित ही तात किये हैं । छंद विधा को धरे हिये हैं ॥
लिखी गयी हैं मन से विधियाँ । रचनाकर्ता लें जब सुधियाँ ॥

आदरणीय अरुण कुमार निगम
जय अविनाश बागड़े भाई | छान - छान लागी चौपाई ||
योगराज जी करें इशारे  | हम उनसे सहमत हैं प्यारे ||
फिर देखें - पोशाकें/जाके  | अटके हैं हम इस पर आके ||
देख रही हैं / कौन सही है | सोचें   कैसी  बात  कही है ||

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4.  भाई अतेन्द्र कुमार सिंह

ज्ञान पुंज की अविरल धारा ,ज्ञान पीठ से बहती सारा l
'रवि'छवि में बहु बालक देखे ,ज्ञान मेघ गुरु सींचे जैसे ll
व्यायाम सिखा कर के नाना ,सीख रहे पाठी अभिज्ञाना l
दिखा त्रिवेणी छवि में बनकर ,संग पाठी गुरु बालक हटकर ll
अलग थलग जो बालक देखा,खड़ा हुआ निज घर के रेखा l
उपजा मन में हम भी सीखें ,खड़ा दूर निज मन को सींचे ll
तब बालक मन सोचन लागा ,हरषित मन जो किस रस पागा l
किशोर मन है चंचल दिखता ,दुरहि नक़ल करिके वो सिखता ll
फैलाकर यूँ निज कर अपना ,बुनता है मनु कोई सपना l
उस के हैं किस्मत के लेखे ,पढ़ता सबको कैसे देखे ll

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
"देखे"-"जैसे" की तुकबंदी I बात यहाँ लगती है मंदी II
"देखे" गर "ऐसे" हो पाए I यह चौपाई सज धज जाए  II
"नाना" वाला चरण सुधारो I गाकर देखो खूब निहारो  I
उभरेगी तब ही चौपाई I बात ज़रा समझो हे भाई  II
"मन","किशोर" हों पीछे आगे I चार चाँद फिर जानो लागे II   
यूँ तो मनमोहक हैं वैसे I सुंदर और बनेगी ऐसे II

आदरणीय अरुण कुमार निगम
रवि कवि मस्त लिखें चौपाई | अरुण ह्रदय को बहुत सुहाई ||
गुरु व्यायाम सिखावैं नाना  |  क्या जमता है ताना-बाना ?
सीख  रहा  है  आँखें  मींचे | मनन करे निज मन को सींचे ||
शेष प्रभाकर जी कह डाले |   रवि कवि अद्भुत करें उजाले ||

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5. आदरणीया सरिता भाटिया

मन से सारे भोले भाले I पहुँचे शाला वर्दी डाले
रंग सजे है उन पर नीला I लगता हर कोई फुर्तीला
शोर सुना तो ऊपर आया I देख इन्हें मन है हर्षाया
शिक्षक बजा रहा है सीटी I करते मिलकर सारे पीटी
पाले मन में हैं सब हसरत I करते हैं सब मिलकर कसरत
भगवन करना हसरत पूरी I पढने संग कसरत जरूरी
दुनिया लगती उसको मेला I देख रहा है उनका खेला
दूर खड़ा बाजू फैलाये I आए कोई पार लगाये
मैं भी शाला पढने जाऊँ I खेलूं कूदूँ मौज मनाऊँ
पढ़ लिख के मैं बढ़ा बनूँगा I भारत का मैं नाम करूँगा

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
डूब छबी में कलम चलाई I मनमोहक हर इक चौपाई
छंद रचे हैं खूब जतन से  I वाह वाह निकले है मन से

डॉ० प्राची सिंह
चित्र बोलता है क्या बानी, सरिता जी नें सब पहचानी
सुन्दर सुन्दर छन्द रचे है, सच कहती हूँ खूब जँचे है  
भगवन करिये हसरत पूरी, कसरत पढने संग जरूरी
शब्द किये जब पीछे आगे, सधते दीखे लय के धागे
अनुपम सुन्दर भाव सुनहरे, सबके सब लगते हैं गहरे
सरिता जी लें बहुत बधाई, रचना सुन्दर मन को भाई...

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6. आदरणीया राजेश कुमारी

दीदी भैया प्यारे प्यारे | नीली वर्दी पहने सारे||
पीटी करते हाथ उठायें | मेरे मन को कितना भायें ||
मैं भी उनके जैसा बच्चा | अभी उमर  में पर हूँ कच्चा ||
खड़ा भीत के पीछे झाँकू | मैं भी अपनी हिम्मत आँकू ||
दो ईंटों पर खड़ा हुआ हूँ | अपनी जिद पर अड़ा  हुआ हूँ ||
मुझको देखो तो मैं मानूँ |  हाथ उठाना मैं भी जानूँ ||
मुझको भी अवसर मिल पाता | दौड़ दौड़ विद्यालय जाता ||
काश बड़ा जल्दी हो जाऊँ | सबको अपना दम दिखलाऊँ ||

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
पहलू गुनकर देखे सारे I छिपे हुए सब भाव उभारे
इक से बढ़कर इक चौपाई I आयोजन की शान बढ़ाई
ली मोहक और अनोखी I बात कही है बिलकुल चोखी
धन्य हुए हैं सब नर नारी I जय जय जय राजेश कुमारी

डॉ० प्राची सिंह
अहा ! अहा ! सुन्दर चौपाई, गुनगुनकर है कलम चलाई
शैली भी लगती मनभावन, शब्द गेयता सुन्दर पावन
चित्र ढला शब्दों में ऐसे, जल आकृति पाता है जैसे
अक्षर अक्षर शिल्प निभाया, सचमुच यह मन को है भाया
छंद रचें हर पल गढ़-गढ़ कर, चलें सदा आगे बढ़-चढ़ कर
स्वीकारें करताल बधाई, रची आज अनुपम चौपाई

..........इस पर आद. राजेश कुमारी की प्रति क्रिया
लिख  चौपाई पर चौपाई| आयोजन की शान बढाई||
बात कहूँ मैं बिलकुल साची|कितनी अद्दभुत तुम हो प्राची||

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला
चौपाई है प्यारी प्यारी, जैसी सुंदर राज कुमारी
सार्थक रचना सबको भाई, लेते जाए आप बधाई |

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7.  आदरणीया वंदना

भींत पार की सुन्दर दुनिया I क्या सचमुच है भूल-भुलैया
कोई तो मुझको ले जाए I बॉटल टिफिन नये दिलवाए
विद्यालय का बस्ता भारी I करनी पड़े खूब तैयारी
अक्सर मुझे डराते भैया I लेकिन मैं जाऊँगा मैया
ईंट सहारे ऊपर चढ़कर I कल ना देखूँगा मैं छुपकर
नित-नित मैं व्यायाम करूँगा I जीवन में शुभ काम करूँगा
दीदी जैसा मेडल लाऊँ I साहब पापा सा बन जाऊँ
पंखों को फैलाकर अपने I देख रहा मैं सुन्दर सपने

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
नज़र बहुत ही पैनी पाई I रची निराली हर चौपाई   
रचना का दिल से अभिनन्दन I लीजे मेरा सादर वंदन

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8. आदरणीय रमेश कुमार चौहान

देख रहा बालक  वह  नन्हा  ।  भीत ओट ईटो पर तन्हा
खेल रहें  दीदी  क्या  भइया ।  हाथ रहे  फैलाये   दइया
वस्त्र  सभी  नीला हैं    पहने ।  लगे किसी उपवन के गहने
स्वस्थ रखे तन मन वे अपने ।  बुनते है  जीवन  के  सपने
बजा रहे  गुरूजी जब  सीटी ।  विद्यार्थी  करते  हैं पीटी      
करे  नहीं  कोई  तो  मस्का ।  देख रहा बालक ले चस्का
जरूर अभी मै हूँ कुछ  छोटा ।  नहीं कहीं पर मैंं तो खोटा
कर  सकता मै भी  तो पीटी ।  बजने दो गुरूजी तुम सीटी
मुझे बड़ा  जल्दी   है  होना । पढ़ने का अवसर क्यो खोना
मुझको तो  शाला  है  जाना । अब से ही  मैने  तो  ठाना

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
फिर से भटकी गणना भाषा I दिल को होती घोर निराशा II
तीखे तीखे कांटे जैसे I वचन दोष चुभते हैं ऐसे II
वो ही गलती दो दो बारी I देख देख होता मन भारी  II
गिनकर गुनकर देखो भालो I रचना बेशक एकल डालो II

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9.  आदरणीय सत्यनारायण सिंह

शीत कहर ढाये है भारी, काँप रही है दुनिया सारी।
देखो मौसम की निठुराई, भूल गयी सबकी चतुराई ।१।
विद्यालय का प्रांगण न्यारा, छात्रों से लगता है प्यारा ।
कसरत दूर भगाए सर्दी, बच्चे करते पहने वर्दी ।२।
आलस तज जो जीवन जीते, सुखमय उनका जीवन बीते ।
जीवन का पैगाम यही है. शिक्षा संग व्यायाम सही है ।३।
मन का भोला तन का गोरा, नटखट बड़ा गजब का छोरा ।
करतब करता बालक दीखे, उचक उचक कर पीटी सीखे।४।
मुझसे कुछ दीवाल बड़ी है, मुश्किल बनकर आज खड़ी है।
वरना प्रांगण में घुस जाता, अपनी कुछ करतूत दिखाता।५।


इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
डाली जो अंतिम चौपाई I तुकबंदी की समझ न आई
"होता" संग "दिखाता" भाई I इसने उलझन और बढ़ाई
पहली कोशिश आस जगाये I छंद सभी मन को हैं भाये
दिली बधाई सौ सौ बारी I कोशिश लेकिन रखिए जारी

डॉ० प्राची सिंह
चित्र छंद में खूब समाया , पढ़ कर मन मेरा मुस्काया
कसरत दूर भगाए सर्दी, बच्चे करते पहने वर्दी
बात कही सुन्दर सब वैसे, ‘होता’ संग ‘दिखाता’ कैसे ,
‘सोच’-‘कोस’ भी साथ दिखे  अब, ‘बनी’-‘खड़ी’ का तुक मिलता कब
आलस करे विषैला जीवन, कसरत दे फुर्तीले तन मन
छवि शब्दों में खूब समाई, प्रेषित बारम्बार बधाई

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10. आदरणीय गणेश जी ‘बागी’


नभ में फैला गहरा कुहरा, गूंगा राजा मंत्री बहरा |
बचपन वंचित अधिकारों से,सबको शिक्षा बस नारों से ||
मैं भी बालक तुम भी बालक,शिक्षा पर तो सबका है हक़
फिर किसने दीवार बनाई, यह तो है पैसे की खाई ||
छोटे छोटे भोले बच्चे, भोली सूरत दिल के सच्चे |
इनमे दिखता अपना बचपन, कोई राधा कोई मोहन ||

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कुण्डलिया छंद

1. आदरणीय रविकर

वारी जाऊँ पूत पर, उत्सुक तके परेड |
किन्तु कलेजा काटता, बढ़ बदहाली ब्लेड |
बढ़ बदहाली ब्लेड, अधूरी अर अभिलाषा |
खूब खुदाया खूह, खड़ा खाके गम प्यासा |
रविकर तनु अस्वस्थ, देख जन-गण लाचारी |
बँटे अमीर गरीब, बढ़े नित चहर-दिवारी ||

दीखे अ'ग्रेसर खड़ा, छात्रा छात्र तमाम ।
करें एकश: अनुकरण, आवश्यक व्यायाम ।
आवश्यक व्यायाम, भंगिमा किन्तु अनोखी ।
कई डुबाएं नाम, हरकतें नइखे चोखी ।
वहीँ ईंट पर बाल, लगन से रविकर सीखे ।
ऊँची भरे उड़ान, सहज अनुकर्ता दीखे ॥

ऊँचा उड़ना चाहता, छू लेना आकास ।
चाहे तारे तोड़ना, पर साधन नहिं पास ।
पर साधन नहिं पास, सामने चहरदिवारी ।
किन्तु हौसला ख़ास, नित्य करता तैयारी ।
रख ईंटो पर पैर, ताक ब्रह्माण्ड समूचा ।  
अंतरिक्ष की सैर, करे यह बालक-ऊँचा ॥

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
दीवारों की बात की, सचमुच कही सटीक
पीटी और परेड में, भेद हुआ नहि ठीक
भेद हुआ नहि ठीक, रुचा बाकी जो बोला
परिभाषित है चित्र, जिसे शब्दों में तोला
किस्मत है ये आज, करोड़ों लाचारों की
झेल रहे बन मूक, शरारत दीवारों की  

अनुपम शैली आपकी, अनुपम ही अंदाज़
रविकर छंद नरेश हैं, इन पर सबको नाज़
इनपर सबको नाज़, सुनहली छटा बिखेरें
भाषा के सरताज, मोहिनी छबी उकेरें
सधी हुई सुरताल, छेड़ते ऐसी सरगम
बाकी सारे आम, आप हो अदभुत अनुपम

आदरणीय अरुण कुमार निगम
रविकर जी के छंद में , कहाँ निकालूँ खोट
कुण्डलिया हर एक तो  , लगे हजारी नोट
लगे हजारी नोट ,  रंग में  ललित ललामा
रविकर ठहरे कृष्ण.अरुण है सिर्फ सुदामा
सेहत  कैसी  आज, जरा  बतलावें प्रियवर
सदा रहो खुशहाल ,  हमारे प्यारे रविकर ||

सौरभ पाण्डेय
पहले वाले छंद में, दिखला गये कमाल
’नइखे’ जैसे शब्द को खूब पिरोया ढाल
खूब पिरोया ढाल, शब्द यह भोजपुरी है !
उन्नत देसज शब्द, नहीं यह झोल-करी है !
रविकर हैं उस्ताद, लगाते नहले-दहले
है ये शब्द-कुबेर, दिखें हमसब को पहले..  

आदरणीय विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी
बलिहारी इस पूत पर, कितना साहसवान।
थोड़े शब्दों में कहा, बहुत गूढ़ गुरु ज्ञान॥
बहुत गूढ़ गुरु ज्ञान, नहीं 'अर' को हम समझे।
ऐसे ही आ भूरि, 'खूह' में आ फिर उलझे॥
मैं बालक मति मंद, अर्थ लागे अति भारी।
दूर करों अज्ञान, जाऊँ रविकर बलिहारी॥

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2. आदरणीय रमेश कुमार चौहान

शाला परिसर छात्र हैं, पहने नीला वेष ।
फैलाये है हाथ सब, कसरत का परिवेश ।।
कसरत का परिवेश, गढ़े तन सुडौल अपने ।
पढ़ना लिखना साथ, बुने है जीवन सपने ।।
झांके नन्हा एक, गुॅथे बच्चों की माला ।
बारी मेरी शेष, मुझे भी जाना शाला ।।

छोटू मोटू मै नही, वह कर रहा विचार ।
ईंटों पर वह हो खड़ा, ताक रहा दीवार ।।
ताक रहा दीवार, बाह अपनी फैलाये ।
पी.टी. करते देख, खुशी से मन बहलाये ।
करूं खूब व्यायाम, नही रहना अब मोटू ।
जाना मुझको स्कूल, सोचता है वह छोटू ।।

सच्चा साथी ज्ञान है,  करे जगत उजियार ।
तन मन भरे उमंग जो, भरे सदा सु्विचार ।।
भरे सदा सु्विचार, दांत हो जो खाने के ।
बने नही भण्डार,  काम ना दिखलाने के ।।
छोटू सोचे बात, रहूँ ना मै भी कच्चा ।
देवे जो संस्कार, वही है जग में सच्चा ।।

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
रचनाएँ तीनो जँचीं, सुंदर लगा बखान
लेकिन शैली आपकी, फीकी है चौहान
फीकी है चौहान, वचन का दोष लिखा है
नर मादा का भेद, एक दो जगह दिखा है
मत चूकें चौहान, निशाना ठीक लगाएँ
धीर भीर गम्भीर , रचें ऐसी रचनाएँ  

सौरभ पाण्डेय
सुन्दर रचना आपकी, भाई सुगढ, रमेश
लेकिन तनिक सहेज कर, करते रचना पेश
करते रचना पेश, शब्द के हिज्जे साधे
भाव-कथन यों ठीक, कथ्य भी कहें अगाधे
लेकिन मन है मुग्ध, सुलभ भाई को अंतर
करते रहें प्रयास, रचें पद हरदम सुन्दर

आदरणीय रविकर
कैसा बढ़िया चित्र है, शब्द चित्र भी खूब |
बार बार हे मित्र मैं, पढ़ पढ़ जाता डूब |
पढ़ पढ़ जाता डूब , विषय को खूब समेटा |
पर शाला उत ऊँच, आमजन का इत बेटा |
दिखे पहुँच से दूर, कहाँ से आये पैसा |
मन रेगा मजबूर, हुआ तन जाने कैसा ||

आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले
गाकर देखे छंद सब, और किया व्यायाम,
लगा हमें तब और भी, करना होगा काम,
करना होगा काम, तभी तो बात बनेगी,
कुण्डलिया की चाल, सभी का मन हर लेगी,
करो न कसरत व्यर्थ, गलत शब्दों को लाकर,
चुनो सही हर शब्द, और फिर देखो गाकर ||

आदरणीय रमेश कुमार चौहान
लाख टके का प्रश्न है, जो उठा रहे आप ।
गरीब अमीर हो सुलभ, मिटे सभी संताप ।।
मिटे सभी संताप, शिक्षा तब सर्व सुलभ हो ।
न संसाधन अभाव,  भाव जब भला सघन हो ।
सरकारी में खोट, करे उपचार वहम का ।
जागृत होगा देश, काम जो लाख टके का ।।

गढ़ना था जब नीव जी, दिया कहा मै ध्यान ।
हिन्दी भाषी मै रहा, रख पाया ना मान ।।
रख पाया ना मान, शिक्षक जो हमें पढाये ।
माध्यम हिन्दी जांच, परीक्षक क्यो जांच बढ़ाये ।।
कैसी है यह नीति, कहां हो अब तो बढ़ना ।
सीख रहा अब ‘रमेश‘, ज्ञान ले अब जो गढ़ना ।।

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3. आदरणीय शिज्जू शकूर

चढ़कर ईटें देखता, इक बालक उस पार
पंक्तिबद्ध वे छात्र हैं, बीच बनी दीवार
बीच बनी दीवार, सोचता यही बाल मन
पहनूँ नीले वस्त्र, साथ सभी के छात्र बन
थाम पिता का हाथ, मैं चलूँगा बढ़-बढ़कर
औ जाऊँगा स्कूल, पिता के काँधे चढ़कर*

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
शिज्जू भाई आपका, छंद हुआ पुरनूर   
इक छोटी सी चूक है, कीजे उसको दूर
कीजे उसको दूर, चरण रोले का पढ़कर  
बेटा जाए स्कूल, "पिता के काँधे चढ़कर"
बाकी सब कुछ ठीक, हज़ारों बार बधाई
आजोयन की शान, बनो तुम शिज्जू भाई

डॉ० प्राची सिंह
अनुपम सुन्दर भाव हैं,  परिभाषित है चित्र
सुन्दर कुण्डलिया रची, बहुत बधाई मित्र
बहुत बधाई मित्र, मगर रोला फिर बाँचें
सम चरणों की शब्द शृंखला को फिर जाँचें
कल का यदि निर्वाह, गेयता बढ़ती हरदम
कथ्य बहुत है खूब, शब्द भी लगते अनुपम

****************************************

4. आदरणीया कल्पना रामानी

नन्हाँ बालक चाव से, देख रहा है खेल।
मन को उसके भा रहा, गुरु-शिष्यों का मेल।
गुरु-शिष्यों का मेल, चल रहा मंथन मन में।
वो भी होता काश, ज्ञान के इस आँगन में।
पहुँचे वो किस भाँति, लाँघ दीवार वहाँ तक।
टुकुर-टुकुर कर ताक, रहा है नन्हाँ बालक।

मिलता बचपन में अगर, ज्ञान संग व्यायाम।
सुंदर होगी भोर हर, सुख देगी हर शाम।
सुख देगी हर शाम, व्यवस्थित होगा जीवन।
अनुशासन की नींव, गढ़ेगी काया कंचन।
शूलों को दे मात, फूल सा यौवन खिलता।
ज्ञान संग व्यायाम, अगर बचपन में मिलता।  

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर

कलम चली जो आपकी, छंद रचे भरपूर
मेहनत पर दरकार थी, थोड़ी और ज़रूर
थोड़ी और ज़रूर, फैलता बहुत उजाला  
हो जाते पुरनूर, असर होता दोबाला  
लगन आपकी मगर,दिलाती आशा सब को  
महकेगा गुलज़ार, रूह से कलम चली जो

***************************************

5. आदरणीय अरुण कुमार निगम       

छोटी - सी है उम्र पर,एकलव्य - सी चाह
जुगत भिड़ाकर देखिये , खूब निकाली राह
खूब निकाली राह, किया ऊँचा कद अपना
मन में  यदि संकल्प, सदा पूरा हो सपना
हिम्मत जहाँ बुलंद , झुके पर्वत की चोटी
यह तो थी दीवार , ईंट की फिर भी छोटी ||

शाला का गणवेश है,नीला ज्यों घन श्याम
दिल को थामे ताकता , नन्हा बालक राम
नन्हा  बालक राम  , देखता है हसरत से
तन होता है पुष्ट , आज सीखा कसरत से
रखे   ईंट  पर  पाँव , समेटे  बाँह उजाला
मन में है उद्गार  , मुझे भी भेजो शाला ||
 
शाला की  दीवार से , चिपके ठाढ़े यार
खेल-खिलौने भूल कर,कसरत को तैयार
कसरत को  तैयार , उम्र छोटी है प्यारे
रखो ज़रा-सा धीर, तोड़ लाना फिर तारे
जिज्ञासा का खूब , लगा अंदाज निराला
अन्य देखते बाग, रिझाती तुमको शाला ||

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
भाई साहिब आप तो, अपनी आप मिसाल
कैसी भी रचना रचें, करते खूब कमाल    
करते खूब कमाल, सदा ही छा जाते हैं
सदा आपके छंद, सभी को भा जाते हैं       
दिलकश फिर से आज, आपकी रचना आई
बढ़ा मंच का मान, धन्य हो मेरे भाई

आदरणीय अरुण कुमार निगम
रक्ताले जी आपका,  बहुत-बहुत आभार
कुण्डलिया में भ्रातश्री, प्रकट किये उद्गार
प्रकट  किये उद्गार , कहे मन ओले-ओले
शब्द-बीन सुन  आज, हमारा तन भी डोले
यूँ ही कहते नहीं, "आप  हैं  मित्र  निराले"
बहुत-बहुत आभार , आपका श्री रक्ताले ||

सौरभ पाण्डेय
ज्यों-ज्यों चले मुकाबला, रचें छंद प्रतिछंद
ग़र मिहनत माकूल जो, तो सार्थक हर बंद
तो सार्थक हर बंद, तभी रचना का मतलब  
शिल्प तथ्य या कथ्य, सुगढ़ हो, लिखने का ढब
किन्तु रहे यह ज़ोर, ’करी’ में नमक रहे त्यों  
तभी मजा है खूब, अन्यथा भटकाये ज्यों !!.

*******************************************

6. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले

शाला के इस दृश्य पर, मोहित बाल गणेश |
मन ही मन वह ले चुका, खुद भी यहाँ प्रवेश ||
खुद भी यहाँ प्रवेश, लिए बाहें फैलाए,
करता कसरत नित्य, नित्य मन को बहलाए,
रहता हरदम मस्त, वाह रे ऊपर वाला,
हर बच्चे की चाह, सदा होती है शाला ||

सर्दी के इक सत्र का, देखो सुन्दर चित्र |
शाला के प्रांगण खड़े, सहपाठी सब मित्र |
सहपाठी सब मित्र, ताकता उनको छोटा,
करता कसरत साथ, बाल यह नन्हा खोटा,
फैलाकर दो हाथ, मांगता नीली वर्दी,
बँधे हुए कुछ हाथ, बताते कितनी सर्दी ||

भैया दीदी साथ में, ठाड़े लगा कतार |
करते हैं व्यायाम सब, सम्मुख शाला द्वार |
सम्मुख शाला द्वार, और पीछे दीवारें,
नन्हा बालक एक, कभी ना हिम्मत हारे,
चढ़ा लगाकर ईंट, स्वयम बिन बापू मैया,
फैलाए हैं हाथ, चाहता बनना भैया ||

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
शाला के मजमून पर, रचकर सुंदर छंद     
आयोजन में आपने, बरसाया आनंद
बरसाया आनंद, छंद  हर एक अनोखा
गुल गुलशन गुलज़ार, रंग उभरा है चोखा
फैला ऐसा नूर, हुआ हर ओर उजाला
जय जयकार अशोक, सफल उकरी है शाला  

आदरणीय अरुण कुमार निगम
शाला  उद्वेलित  करे , बाल - ह्रदय में चाह
काम कठिन पर पा गए,बालक मन की थाह
बालक - मन  की  थाह , ढूँढती  नजरें  पैनी
तभी  विराजे  आप , प्रभु   नगरी - उज्जैनी
जो  भी  पढ़ता  छंद ,  वही  होता  मतवाला
सच बोलूँ तो  मित्र,  आप  लगते मधु शाला ||

******************************************

7. आदरणीय अविनाश बागडे

बाहें फैला कर कहे , छोटा सा यह बाल।
मुझको भी शामिल करो,पीटी में तत्काल।।
पीटी में तत्काल , अकेला यहाँ खड़ा हूँ।
छोटा सा  नादान ,  नहीं उस्ताद बड़ा हूँ।
कहता है अविनाश ,  फेरिये यहाँ निगाहें
सर सीटी के साथ , दिखिए नन्ही बाहें।।

पापा संग मम्मी गई , लेने को बाजार।
ड्रेस नया वो लायेंगे , फिर आऊँगा पार।।
फिर आऊँगा पार , सुनूँगा सर की सीटी।
हिला हाथ ओ पाँव , करूँगा मै भी पीटी।।
कहता है अविनाश , न खोवे बालक आपा।
घर जल्द आ जाये , उसके मम्मी-पापा।।

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
सुन्दर अब कोशिश हुई, कोई नहीं निराश
हरसू अब उल्लास है, हे भाई अविनाश
हे भाई अविनाश, छंद रचकर सुंदरतम
कर डाला ऐलान, अभी है बाकी दमखम   
उचरा है इस बार, बड़ा ही गिनकर गुनकर  
उसका साफ सबूत, बनी है रचना सुन्दर

****************************************

8. आदरणीया सरिता भाटिया

पीटी करते हैं सभी नीली है पोशाक
सारे बच्चे हैं खड़े एक रहा है ताक
एक रहा है ताक पार है उसको जाना
खेलें हैं जो खेल देख के उसको आना
शिक्षक हैं दो बीच एक बजा रहा सीटी
दूजा देता सीख, करेंगे कैसे पीटी //

भैया दीदी हैं खड़े नीला है गणवेश
कुछ तो पहले से खड़े कुछ ने किया प्रवेश
कुछ ने किया प्रवेश लगा है आना जाना
इक नन्हा है बाल यहाँ है उसको आना
शिक्षक देते सीख पार हो कैसे नैया
लेकर आशीर्वाद मैं भी चलूँगा भैया //

कसरत करते हैं सभी बूझें कई सवाल
हसरत सीने में लिए एक खड़ा है बाल
एक खड़ा है बाल दूर फैलाये बाहें
लगता उसको खेल कठिन हैं लेकिन राहें
बच्चे आयें स्कूल, ह्रदय में पाले हसरत
बाल रहा है सोच खेल यह कैसा कसरत //

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
सीटी पीटी जम गई, सरिता जी इस बार
कसरत हसरत जोड़कर, छंद किए साकार
छंद किए साकार, कलम इस तरह चलाई
गहराई भरपूर, कुण्डली बाहर आई
सार भरी हर बात, सभी ने ताली पीटी      
सब करते जैकार, भा गई पीटी सीटी

******************************************

9. आदरणीय विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

बालक ये असहाय है, या पितु मातु गरीब।
पाठन की क्षमता नहीं, खोजी फिर तरकीब॥
खोजी फिर तरकीब, खड़ा दीवाल किनारे।

छात्र सिखें व्यायाम, सीखता ये गुरु सारे॥

पी. टी. सीखें छात्र, सीखता ये गुर सारे।  ..   रचनाकार द्वारा संशोधित पंक्ति

संसाधन से हीन, किन्तु साहस का धारक।
है भविष्य आधार, जुनूनी तत्पर बालक॥

इस रचना पर प्रतिक्रया छंद:-

आदरणीय योगराज प्रभाकर
छंद महारत आपकी, "गुरु" से खाए मात
कैसे उलझन दे गई, छोटी सी यह बात ?
छोटी सी यह बात, असर करती है फीका
"सीखें" कर बदरूप, "सिखें" का काला टीका ?
छंद रचो बेदोष. यही दिल में है चाहत
सबको है दरकार, आपकी छंद महारत

*******************************************

आदरणीय योगराज प्रभाकर
दो दिन चाहे बहुत सहा है, आयोजन पर सफल रहा है
इक से बढ़ इक रचना आई  सौरभ जी शतकोटि बधाई ।

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Replies to This Discussion

सादर धन्यवाद, आदरणीय सत्यनारायणजी..

आ० डॉ प्राची सिंह जी तथा मंच संचालक आ० सौरभ पाण्डेय जी 

अंक - 35 की सभी रचना- संकलन के लिए 

हार्दिक धन्यवाद

 


छंदों के प्रयुत्तर में छंद कह कर डॉ प्राची सिंह जी ने दो दिन समां बांधे रखा ..... मैं समर्थन करता हूँ..

वाह वाह प्रस्तुतियों के साथ साथ छंदबद्ध प्रतिक्रियाओं का भी संकलन .... 

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