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गरमी ने है ख़ूब रुलाया
आठों पहर पसीना छाया
बरखा देवी मन को भाती
पानी की भी याद दिलाती।

हम पानी को तरस रहे हैं
गड़-गड़-गड़-गड़ गरज रहे हैं
देखो आए बादल बाबा
पानी का लेकर झाबा।

झम- झम-झम पानी बरसाते
अब झूमें तन , मन हरषाते
नहा रहे बन जाती टोली
बरसात संग खेलें होली।

बारिश जब भी जाती है थम
फिर घर को आ जाते हैं हम
होती तो है फिसलन भी कम
सब फिसल-फिसल कर गिरें धड़म।।

(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

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Replies to This Discussion

बढ़िया प्रयास आदरणीय सतविंदर जी | बधाई | 

आभार आदरणीया दीदी।

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