लाल रंग से चिन्हित शेअर/मिसरे बेबहर हैं 
 नीले रंग से चिन्हित शेअर/मिसरे ऐब युक्त हैं
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(श्री तिलक राज कपूर जी)
हुस्नो-अदा के तीर के बीमार हम नहीं
 ऐसी किसी भी शै के तलबगार हम नहीं।
हमको न इस की फ्रिक्र हमें किसने क्या कहा
 जब तक तेरी नज़र में ख़तावार हम नहीं।
वादा किया कली से बचाते रहे उसे
 बेवज़्ह राह रोक लें वो ख़ार हम नहीं।
जैसा रहा है वक्त निबाहा वही सदा
 ये जानते है वक्त की रफ़्तार हम नहीं
अपना वज़ूद हमने मिटाकर उसे कहा
 ''लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं''
चेहरा पढ़ें हुजूर यहॉं झूठ कुछ नहीं
 कापी, किताब, पत्रिका, अखबार हम नहीं।
हमको सुने निज़ाम ये मुमकिन नहीं हुआ
 तारीफ़ में लिखे हुए अश'आर हम नहीं।
उम्मीद फ़ैसलों की न हमसे किया करें,
 खुद ही खुदा बने हुए दरबार हम नहीं।
बादल उठे सियाह, न बरसे मगर यहॉं
 जिसकी वो मानते हैं वो, मल्हार हम नहीं।
फि़क़्रे-सुखन हमारा ज़माने के ग़म लिये
 हुस्नो अदा को बेचते बाज़ार हम नहीं।
शीरीं जु़बां कभी न किसी काम आई पर
 झूठे किसी के दर्द के ग़मख़्वार हम नहीं।
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(श्री मोहम्मद रिज़वान खैराबादी जी)
तुमने उठाई राह में दीवार, हम नहीं..
 फिर भी ये कह रहे हो गुनाहगार हम नहीं...
 
 उम्मीद कर रहा हूँ वफ़ा की उन्ही से मैं.... 
 कहते हैं जो किसी के तलबगार हम नहीं...
 
 दिल में नज़र में तुम हो तो फिर किस तरह कहें... 
 ऐ दोस्त अब भी करते तुम्हे प्यार हम नहीं....
 
 दुनिया की ठोकरों ने गिरा कर ही रख दिया.. 
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं....
 
 वो तो शगुन में आज अंगूठी भी दे गए,.. 
 हम लाख कह रहे थे कि तैयार हम नहीं...
 
 हम उनकी धुन में हैं तो ज़माने की क्या खबर.. 
 दुश्मन लगे हैं घात में हुशियार हम नहीं...
 
 होंगे तुम्हारे हुस्न के मारे हुए बहुत.. 
 लेकिन तुम्हारे इश्क में बीमार हम नहीं....
 
 फिर कौन सी क़सम पे उन्हें ऐतबार हो... 
 जब वो समझ रहें हैं कि ग़म ख्वार हम नहीं...
 
 "रिजवान" कुछ कहें न तुम्हारी जफा पे हम.. 
 तुम क्या समझ रहे हो समझदार हम नहीं.....
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(श्री अशफाक अली गुलशन खैराबादी जी)
करते हैं उनसे प्यार का इनकार हम नहीं
 दिल कर रहा है दर्द का इज़हार हम नहीं
 
 दिरहम नही है पास ख़रीदार हम नहीं 
 यूसुफ के और होंगे तलबगार हम नहीं
 
 हमने वतन के वास्ते अपना लहू दिया 
 उनकी नज़र में फिर भी वफादार हम नहीं
 
 कैदी बना लिया है रक़ीबों ने शहर में 
 लो अब तुम्हारी राह में दिवार हम नहीं
 
 कैसे खुलेगा राज़ हकीक़त का दोस्तों 
 आइनये ख़ुलूस का इज़हार हम नहीं
 
 सच बोलने पे आज भी सूली मिले तो क्या 
 अल्लाह जनता है ख़तावार हम नहीं
 
 बातिल परस्त दिल न सुने और बात है 
 अपनी नज़र में अब भी गुनहगार हम नहीं
 
 एक जान थी जो वक्फ़ तेरे नाम कर चुके 
 फिर भी तेरी निगाह में दिलदार हम नहीं
 
 कायम रहा है हम से भरम बरगोबार का 
 "गुलशन" में बन के फूल रहे ख़ार हम नहीं
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(श्री राणा प्रताप सिंह जी)
कह दे खताएं कर के खतावार हम नहीं 
 ऐसी ज़मात के तो तरफदार हम नहीं| 
 
 कल कह दिया है हार के सूरज ने शब् से ये 
 लो अब तुम्हारी राह मे दीवार हम नहीं 
 
 मत देख हमको शक की निगाहों से ऐ सनम 
 हर बार हमीं थे मगर इस बार हम नहीं 
 
 बेहतर लगे तो मान ले तू मेरा मशविरा 
 हामी की तेरी वरना तलबगार हम नहीं 
 
 पहलू मे तेरे बैठे हैं कुछ तो ज़रूर है 
 सोहबत की तेरी वरना तो हक़दार हम नहीं
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(श्री मोहम्मद नायाब जी)
निकले कोई भी राह से दिवार हम नहीं
 लोगों वफ़ा के फूल हैं अब ख़ार हम नहीं
 
 अब आशिकी में तेरे गिरफ्तार हम नहीं 
 इस शहर में बहुत हैं तेरे यार हम नहीं
 
 उनके जो ग़म मिले उन्हें अपना बना लिया 
 फिर भी वो कह रहे है कि ग़मख्वार हम नहीं
 
 दिल में छुपा के उनके सभी राज़ रख लिए 
 फिर भी वो कह रहें हैं वफादार हम नहीं
 
 अमृत की शक्ल में यहाँ क्या-क्या मिला के आज 
 वो ज़हर बेचते हैं ख़रीदार हम नहीं
 
 हाँ ज़हन चाहता था भुला दें तुम्हे मगर 
 दिल हम से कह रहा था कि तैयार हम नहीं
 
 "नायाब" जा रहा हूँ जहाने ख़राब से 
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं
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(श्री सौरभ पांडे जी) 
 
 कैसे करो वज़ू कि वो जलधार हम नहीं
 गंगा करे गुहार, गुनहग़ार हम नहीं 
 
 जिनके लिये पनाह थे उम्मीद थे कभी 
 वोही हमें सुना रहे ग़मख़्वार हम नहीं 
 
 हमने तुम्हारी याद में रातें सँवार दीं 
 अबतो सनम ये मान लो बेकार हम नहीं 
 
 दुश्वारियाँ ख़ुमार सी तारी मिजाज़ पे 
 हर वक़्त है मलाल कि बाज़ार हम नहीं 
 
 हक़ मांगने के फेर में बदनाम यों हुए
 लो, बोल भी न पा रहे खूँखार हम नहीं 
 
 हम शख़्शियत पे दाग़ थे ऐसा न था, मग़र - 
 ’लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नही’ 
 
 मासूमियत दुलार व चाहत नकार कर
 जो बेटियों पे गिर पड़े ’तलवार’ हम नहीं
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 (श्री आदित्य सिंह जी) 
 
 माना कि आपकी तरह हुशियार हम नहीं,
 अपनों से आपकी तरह गद्दार हम नहीं.. 
 
 हालां कि ज़िंदगी में हैं दुश्वारियाँ बहुत,
 ईमान बेचने को हैं तैयार हम नहीं.. 
 
 दिल में जो बात है, वही लब पे है हर घड़ी, 
 दिल-साफ़ आदमी हैं, कलाकार हम नहीं.. 
 
 हाँ जाम हाथ में है, शराबी न समझना,
 महमान-ए-मयकदा हैं, तलबगार हम नहीं.. 
 
 टुकड़ों को जोड़-जोड़ के, फिर दिल बना लिया,
 फिर से लगाएं इतने भी दिलदार हम नहीं.. 
 
 इल्ज़ाम-ए-तर्क-ए-ताल्लुक ख़ुद पे लगा लिया,
 "लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.." 
 
 देखी जहां मुसीबत, हमको चला दिया,
 हैं हमसफ़र तेरे, कोई हथियार हम नहीं..
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 (श्री अविनाश बागडे जी)
 (१) 
 किसी का क़त्ल कर सके औजार हम नहीं,
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(श्री अहमद शरीफ कादरी हसरत जी)
अब तो तुम्हारे इश्क में बीमार हम नहीं 
 उल्फ़त में अब तुम्हारी गिरफ्तार हम नहीं
चलना हमारे साथ में दुशवार हे अगर 
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं
दो पल जो मेरे साथ न ग़र्दिश में रह सके
 उनसे तो अब वफ़ा के तलबगार हम नहीं
हालात कह रहे हें क़यामत करीब हे 
 ग़फलत की फिर भी नींद से बेदार हम नहीं
हमने भी अपने खून से सींचा हे ये चमन 
 ये किसने कह दिया के वफ़ादार हम नहीं
ज़ुल्मो सितम करे है जो मजहब की आड़ में  
 ऐसे गिरोह के तो मददगार हम नहीं
'हसरत' हमें तो प्यार ही आता हें बांटना
ज़ोरो जफा सितम के तरफदार हम नहीं
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(श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी)
तलवे जो चाटते वो वफ़ादार हम नहीं 
 आशिक हैं किंतु इश्क में बीमार हम नहीं 
 
 आखिर ढहे हम आज मुहब्बत के बोझ से 
 लो अब तुम्हारी राह के दीवार हम नहीं 
 
 लिपटे हुए हैं राख में पर यूँ न छेड़िए 
 मुट्ठी में ले लें आप वो अंगार हम नहीं 
 
 रोटी दिखा के माँ की बुराई न कीजिए 
 भूखे तो हैं जरूर प’ गद्दार हम नहीं 
 
 पत्थर भी खाएँ आप के, फल आप ही को दें 
 रब की दया से ऐसे भी लाचार हम नहीं 
 
 दिल के वरक़ पे नाम लिखा है बस एक बार 
 आते जो छप के रोज, हैं अख़बार, हम नहीं 
 
 घाटा, नफ़ा, उधार, नकद, मूल, सूद सब 
 सीखे पढ़े हैं खूब प’ बाजार हम नहीं
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(श्री नफीस अंसारी जी)
मन्सब के मस्नदों के तलबगार हम नहीं
 रखते नज़र में दिरहम-ओ-दीनार हम नहीं
 
 आहले ज़मी के दर्द से बेजार हम नहीं 
 बेशक बुलंदियों के परस्तार हम नहीं
 
 दी हैं ख़ुदा ने फितरते इंसान को लगजिशें 
 दावा करेंगे क्या की गुनेहगार हम नहीं
 
 रस्मे वफ़ा निभाई मगर इस के बावजूद 
 तेरी नज़र में साहिबे किरदार हम नहीं
 
 इससे ज्यादा वक़्त बुरा और होगा क्या 
 ठोकर भी खा के नींद से बेदार हम नहीं
 
 तू चाहे भूल जाए तेरी बात और है 
 कम होने देंगे दिल से तेरा प्यार हम नहीं
 
 माजी अगर मिसाल है हुस्ने खुलूस की 
 अब भी किसी के वास्ते आज़ार हम नहीं
 
 भटके हुओं को राह पे लाना मुहाल है 
 इंसान ही तो हैं कोई अवतार हम नहीं
 
 अपना मिलाप हो न सका यूँ तमाम उम्र 
 इस पार तुम नही कभी उस पार हम नहीं
 
 पत्थर समझ के क़द्र न कर तू मगर ये सुन 
 ठुकरा रहा है ऐसे तो बेकार हम नहीं
 
 तुझ पर भरो कर के बहुत खाए हैं फ़रेब 
 अब ऐतबार करने को तैयार हम नहीं
 
 ले डूबा कश्तियों को तेरा जोम नाख़ुदा 
 अब देंगे तेरे हाँथ में पतवार हम नहीं
 
 इतना शऊर है की समझ लें भला बुरा 
 दीवानगी में ज़हन से बीमार हम नहीं
 
 अज्मे बुलंद रखते हैं हालात कुछ भी हों 
 घबरा के मान लें जो कमी हार हम नहीं
 
 अपना उसूल है कि जो दुश्मन दिखा दे पीठ 
 उसपर नफीस करते कभी वार हम नहीं
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(श्री अरुण कुमार निगम जी)
(१) 
देखें न फायदा यहाँ , व्यापार हम नहीं 
 सौदे की बात मत करें, बाजार हम नहीं .
 
 पढ़के सबेरे, शाम को फेंका, इधर उधर 
 सुनो, ख़त हैं पहले प्यार का, अखबार हम नहीं. 
 
 गर वक़्त काटना है ,कहीं और काटिए 
 अजी जिंदगी हैं आपकी, इतवार हम नहीं.
 
 तुमको नज़र न आयेंगे, हम नींव बन गए 
 लो अब तुम्हारी राह में , दीवार हम नहीं. 
 
 दीवान आपका है, रुबाई भी आपकी 
 अब आपकी ग़ज़ल के, अश'आर हम नहीं.
 
 अब भी बुलाती हैं हमें,गलियों की खिड़कियाँ 
 ये बात खूब जान लो, लाचार हम नहीं.
 
 नज़रों से जीत लेते हैं हम जंगेमोहब्बत 
 बेताज बादशाह हैं , तलवार हम नहीं.
***
(2)
चंदन से लिपटे नाग की, फुँफकार हम नहीं
 भूले से मत ये सोचना , दमदार हम नहीं . 
 
 ओढ़ी है खाल गीदड़ों ने , शेर-बब्बर की
 रंग ले बदन को अपने, वो सियार हम नहीं. 
 
 हम शंख हैं तू फूँक जरा , इंकलाब ला 
 घुंघरू की रंग – महल में , झंकार हम नहीं. 
 
 गुरु – दक्षिणा में हमने , अंगूठा ही दे दिया
 अर्जुन के गांडीव की , टंकार हम नहीं. 
 
 कुण्डल-कवच भी हँस के अपने दान दे चुके
 हैं शाप - ग्रस्त माना , लाचार हम नहीं. 
 
 हमने तो अपनी इच्छा से मृत्यु को चुन लिया
 लो अब तुम्हारी राह में , दीवार हम नहीं.
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(श्रीमती राजेश कुमारी जी) 
जानम तेरी खता के गुनहगार हम नहीं 
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं 
 
 बेगाना बन के देखा और चेहरा घुमा लिया 
 लो अब तुम्हारे प्यार में गिरफ्तार हम नहीं 
 
 दिल पर लिखाहै खुद मिटाया भुला दिया 
 छोडो किसी जमीन के अख़बार हम नहीं 
 
 अश्कों से सींच कर गुलशन बना दिया 
 कैसे कहें बहार के हक़दार हम नहीं 
 
 जीने दो जी रहे हैं हम जिस मुहाल में 
 अब तो तेरी वफ़ा के तलबगार हम नहीं 
 
 शम्मा जलाई दिल की अँधेरा मिटा दिया 
 फिर भी तेरी नजर में समझदार हम नहीं 
 
 तस्कीन ना मिली मुड़ गए सरे-राहे मैकदा 
 लो अब तुम्हारी चाह में लाचार हम नहीं 
 
 साजे आरजू को बजा कर छुपा दिया 
 लो अब तुम्हारे साज की झंकार हम नहीं 
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(श्री संदीप द्विवेदी वाहिद काशीवासी जी) 
 (१) 
क्खेंगे तुमसे कोई सरोकार हम नहीं;
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं;
जलवा तेरा है ख़ूब, कहाँ तू, हैं हम कहाँ,
 हैं शख़्स मामूली अजी फ़नकार हम नहीं;
इतनी सी बात पर तू मुझे तोलने लगा,
 क़ीमत है कुछ तो अपनी के बेकार हम नहीं;
वादों के जाल में तेरे हम फंस चुके बहुत,
 आएँगे तेरी चाल में इस बार हम नहीं;
माना के बाज़ुओं में है ताक़त तेरे बहुत,
 कमज़ोर कुछ ज़रूर हैं लाचार हम नहीं;
हर शर्त है क़ुबूल सिवा एक बात के,
 ख़ुद्दारी अपनी छोड़ दें तैयार हम नहीं;
नीलाम हो रही थी वफ़ा एक दिन वहाँ,
 उस दिन से जाते हैं कभी बाज़ार हम नहीं;
(२) 
वादा किया तो टालते हैं यार हम नहीं;
 दिल को तेरे देंगे कोई आज़ार हम नहीं; 
 
 हाजत नहीं है हमको के बीमार हम नहीं;
 जा लौट जा लेंगे कोई तीमार हम नहीं; 
 
 जब तुमने कह दिया तुम्हें स्वीकार हम नहीं;
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं; 
 
 हर मोड़ पर धोका ही मिला है हबीब से,
 रखते हैं उससे कोई भी दरकार हम नहीं; 
 
 ख़ुश्बू गुलों की बन के तेरे गिर्द हम रहें,
 चुभ जाए पग में जो तेरे वो ख़ार हम नहीं; 
 
 महफ़ूज़ रख ले हमको तू, दिल की किताब हैं,
 उस ताक पे रखा कोई अख़बार हम नहीं; 
 
 डगमग क़दम ये देख ग़लत सोचता है तू,
 हम तो हैं मारे इश्क़ के मैख़ार हम नहीं; 
 
 पीते हैं कभी ग़म में कभी यूँ ही बेवजह,
 साक़ी तेरी अदा के तलबगार हम नहीं;
(1) 
माना तुम्हारे प्यार का हक़दार हम नहीं.
 कैसे कहें कि इश्क में गिरफ़्तार हम नहीं.
किश्ती से क्यों उतर रहे यकीन मानिए.
 साहिल हूँ मान लीजिये, मंझधार हम नहीं.
दिल से निकाल के भी क्या निकाल पायेंगे.
 दिल है कोई मकाँ नहीं , किराएदार हम नहीं.
तेरे शहर को छोड़कर खुद जा रहे हैं हम. 
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.
मुमकिन ये कैसे है कि दिल बददुआ ना दे .
 एक आम सा इंसान हैं,  अवतार हम नहीं      
********
(2) 
मत भागिए खुद्दारा हथियार हम नहीं.
 छोटा ही आदमी सही बेकार हम नहीं.
 हर शाम ही रोती हैं महंगाई का रोना.
 कैसे बताएं उनको सरकार हम नहीं .
 फूलों को लगाते हैं जुड़े में प्यार से .
 हमसे बचाते दामन ,कोई खार हम नहीं.
 माना की आप ही हैं अभी देश के खुदा.
 सूरत बदल सकती है लाचार हम नहीं.
 फरमाइशों से आपकी आज़िज हूँ सनम.
 अजी आपके दिवाने हैं, बाज़ार हम नहीं .
 मेरी तरफ से आपको आज़ादी है सनम.
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.
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बेबाक हैं, रंगे हुए सियार हम नहीं 
 गोया कि चुनावों के उम्मीदवार हम नहीं
उघाड़ते हैं गर्द गलीचों में जो दबी 
 हम हैं वो ग़ज़लगो कि, चाटुकार हम नहीं
वादों पर अपनी जान की बाज़ी भी लगा दें
 वादों के अपने पक्के हैं, सरकार हम नहीं
जो उठ खड़े हुए तो तख़्त ओ ताज छीन लें 
 क्षणभर में बैठ जाए जो गुबार हम नहीं
तुमने ही राह ए मक्तल, खुद के लिए चुनी 
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं
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(श्री विवेक मिश्र जी) 
उल्फत में मिट सकें न जो वो यार हम नहीं
 कैसे कहा ये तुमने वफादार हम नहीं
 
 अश्कों में लम्हा-लम्हा सही गल गये हैं हम 
 लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं
 
 तेरा ही हक़ रहेगा सदा मेरी जान पर 
 फिर क्या कहेगा साहिबे किरदार हम नहीं
 
 जीवन की समस्याओं के पिंजरे में कैद हैं 
 उड़ने का भी हो पा रहे अधिकार हम नहीं
 
 अश्कों को अपने दिल की तिजोरी में क्यों रखें 
 गम का करें तुम्ही से व्यापार हम नहीं
 
 हमने नहीं कहा तो वो बोले नहीं नहीं 
 तेरी नहीं से जी सकें तैयार हम नहीं
 
 आँखों का समंदर है तुम्ही को संभालना 
 डूबा तो बचा पाएंगे संसार हम नहीं
 
 सम्मान है सभी का हमारी निगाह में 
 करते कभी किसी का तिरस्कार हम नहीं
 
 शाम-ओ-सहर तो धोखे ही खाता रहा "विवेक" 
 नादान दिल को कर सके होशियार हम नहीं
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(श्री हरजीत सिंह खालसा जी) 
माना तुम्हारे ग़म के खरीदार हम नहीं,
 पर यह न सोचना कि तलबगार हम नहीं......
 
 जो था करीब दिल के, बहुत ही करीब था,
 उससे करीबियों के हि हकदार हम नहीं...
 
 सबको मना तो लेते ज़ुबां की दलील से,
 दिल कैसे मानता कि गुनहगार हम नहीं,
 
 लाखों मुसीबतों में हजारों सवाल हैं,
 उसपर ये आफतें कि समझदार हम नहीं....
 
 कोई हमें उदास करे तो किया करे
 अब इन उदासियों के तरफदार हम नहीं....
 
 सब कुछ मिटा दिया वो तमन्ना वो जुस्तजू,
 "लो अब तुम्हारी राह, में दीवार हम नहीं",,,,,
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सर मैं आपकी बात समझ रहा हूँ, हर नीले मिसरे के सामने एक पंक्ति लिखना कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं था. कितने साथी इस लाल-नीली रंगत पर रिएक्ट करते हैं सिर्फ ये देखने की तमन्ना से उसे छोड़ दिया.
मेरा भी यही आशय है कि दोष है इतना इंगित कर देने से शायर ने अब तक पढ़े पाठों और चर्चाओं के आधार पर दोष स्वयं पहचानने का प्रयास करना चाहिये। यह भी तो सीखने की प्रक्रिया का अंश है। मेरा लिखा शायर के प्रश्न पर ही है।
आदरणीय तिलक सर, अनुरोध है कि "ऐब" पर भी विस्तृत पाठ ग़ज़ल की कक्षा में लगाने की कृपा करें |
ग़ज़ल के उस्ताद सीखने के क्रम में ऐब को प्रारंभ में दूर रखते हैं जिससे ग़ज़ल की मूल संरचना पर ध्यान केन्द्रित रहे। अभी बहुत सी ग़ज़लों में इसकी भी समस्या दिख रही है।
यह अवश्य कर सकते हैं कि सदस्यों की ग़ज़लों पर जब कोई ऐब इंगित किया जाये ता उस ऐब की व्याख्या भी संक्षिप्त रूप से कर दी जाये तथा बाद में उसका विस्तृत विवरण पोस्ट के रूप में देदिया जाये।
अब तक जिन दोषों का नाम तरही में आ चुका है वो एकजाइ हो जायें तो अब तक के दोषों पर कुछ पोस्ट लगा लेते हैं।
//आपकी बात से सहमत हूँ भी अहमद शरीफ कादरी जी, इस आशय की अर्जी ओबीओ ग़ज़ल गुरु श्री तिलक राज कपूर साहिब को पेश कर दी गई है.//
शत प्रतिशत सहमत.
इस अर्जी पर मेरे भी हस्ताक्षर ले लिए जाएँ.
हुजूर आप सभी का आदेश सर माथे पर। मैं बार-बार एक बात पूर्ण विनम्रता के साथ कहता रहा हूँ कि मैं इस वृहद् विधा का गुरु न तो स्वयं को मानता हूँ और न ही इस लायक हूँ। मेरा प्रयास तो स्पष्ट है कि जो मुझे ज्ञात है वो मैं सभी के समक्ष रखूँ और फिर जो वो जानते हैं वह उनकी ओर से आये। ज्ञान का परिमार्जन एक सतत् प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहती है और इसका खुला विकास वहीं हो पाता है जहॉं सभी अपने विचार निस्संकोच रखें।
ग़ज़ल के इतिहास देखें तो स्वनामधन्य उस्ताद कितने भी रहे हों जिन्हें उस्ताद की मानयता प्राप्त है, ऐसे नाम अँगंलियों पर गिने जा सकते हैं।
हम सभी एक चौपाल लगा कर एक दूसरे से सीखने की प्रक्रिया में हैं और इसके प्रति सभी को सहज, सुलभ, सहयोगी व सक्रिय होना जरूरी है।
सहमत हूँ आदरणीय |
//हम सभी एक चौपाल लगा कर एक दूसरे से सीखने की प्रक्रिया में हैं //
तभी तो इन्हीं पन्नों में, इसी चर्चा के दौरान, हमने नत-मस्तक साझा किया है कि यह् सारा कुछ व्यक्तिपरक न हो कर समूहपरक हो. तो मेरी इस पंक्ति से कुल आशय यही है.
अब जबकि एक प्रतीक्षित प्रक्रिया प्रारम्भ हो ही गयी है तो इस प्रक्रिया को आवश्यकतः प्रतिष्ठित करते हुए ’सीखने-सिखाने’ की परिपाटी, जो कि आयोजनों का अन्योन्याश्रय हिस्सा रही है, को पुनः शाब्दिक किया जाय. कुछ आयोजनों से ग़ज़लों या प्रविष्टियों पर सीधे कुछ कहने से बचा जाय का मनस हावी होता जा रहा है. यह आदर्श परिपाटी कुछ माह पूर्व तक आयोजनों में दोष-चर्चा और सुधार-बहस का विषय हुआ करते थे. यह अवश्य है कि व्याप गये इस ’चलने दो चलता है’ के स्थावर विचार के पीछे कुछ नामधन्य आत्म-मुग्धों की चिल्ल-पों भी कारण रहा है. लेकिन ग़ज़ल के अरूज़ या रचनाओं की विधा से कम्प्रोमाइज नहीं करना ओबिओ की विशिष्टता रही है. यह विशिष्टता प्रतिष्टित बनी रहे.
सादर
:))))))))
//कितने साथी इस लाल-नीली रंगत पर रिएक्ट करते हैं सिर्फ ये देखने की तमन्ना से उसे छोड़ दिया//
दवा कड़वी होती है, आदरणीय. किंतु शुभचिंतक इसकी फ़िक्र नहीं करते कि बीमार उसे हज़ार गालियाँ देगा. वे रोगी को दवा पिलाते ही हैं. जो ठीक होने की तमन्ना रखते हैं वो दवा के स्वाद पर नहीं, बल्कि दवा की खूबियों और तासीर पर नत मस्तक होते हैं. ओबिओ का मंच बहुत बड़े उद्येश्य के साथ चल रहा है.
बहुत से आत्ममुग्धों को हम आप ने देखा है और कितने ही और आयेंगे. अगर इसकी चिंता होती तो क्या हम ’गुडी-गुडी’ न बने रहते !? हम आप सभी हर ऐरी गैरी रचना या प्रविष्टि पर मात्र ’वाह-वाह’ का कशीदा क्यों नहीं पढ़ते हुए दीखते ?
मिसरे जब ’लाल’ रंग से तरबतर होने लगे तो एक परिपाटी बनी और इसने कितने ही संज़ीदा शायर पैदा किये. अब यह ’नीला’ रंग विन्यास में नया आकाश उपलब्ध करायेगा, इसका परम संतोष है.
आपके इस सद्-प्रयास पर आपको नमन करता हूँ. वैसे एक बात अवश्य है कि यह सारी कवायद व्यक्तिपरक न हो कर समूहपरक होना चाहिये. गुणीजनों से ओबिओ धनी है. क्या संज़ीदे कवि, शायर या लेखक इससे लाभान्वित न होंगे ?!
मूल उद्येश्य साहित्य साधना और साहित्य सेवा है. परम लक्ष्य और दर्शन के आगे हर चिल्ल-पों समयानुसार तूती की आवाज़ हो जायेगी.
सादर
सौरभ जी सादर नमस्कार ! आपने लाख टके की बात कह दी यही बात मैं कई दिनों से कहना चाहता था लेकिन संकोच बस नहीं कह पा रहा था। चूंकि मंच पर नया हूँ इस लिए हिम्मत भी नहीं कर पाया। आजकल देखने को मिलता है की इंटरनेट पे ब्लोगो और ऑनलाइन पत्रिकाओं की भरमार है और बहुत सारे आत्ममुग्ध कवि और शायर दो चार तुकबंदी करके वाह वाह बटोरने लगते है ...कमेन्ट दो कमेंट लो की परिपाटी शुरू हो गयी है...यदि आपने कहीं किसी की ग़लती जाहिर कर दी या उसे दुरुस्त करने की सलाह दे दी तो वो आपसे नाराज । आपने स्वयं देखा होगा कितनी स्तरहीन रचनाओं को भी ढेरों वाह वाह मिलते हैं और बहुत सारी उच्च कोटि की रचनाएँ खाली पड़ी रहती हैं। अगर इस मंच पर कड़ुवी घुट्टी का मूल मंत्र चलता रहा तो साहित्य की सच्ची सेवा जारी रहेगी। आप और अन्य सीनियर रचनाकार बिलकुल सही हैं और इस मंच पर ओछी रचनाओं को बढ़ावा भी न दिया जाये। पूरे ओबीओ परिवार और उनके संरक्षक मण्डल को बहुत बहुत बधाई !!
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