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ओबीओ महा-उत्सव अंक - 22 में सम्मिलित समस्त रचनाएँ

ई-पत्रिका ओबीओ के सुधी पाठकों के लिये महा-उत्सव अंक- 22 में सम्मिलित समस्त रचनाओं को पूर्ववत् संग्रहीत करने का प्रयास हुआ है. आयोजन में स्वीकृत सभी रचनाओं को इस संकलन में स्थान मिला है. फिर भी, भूलवश, यदि किसी रचनाकार की कोई रचना छूट गयी हो तो हम क्षमाप्रार्थी हैं. आप पाठकों से सादर अनुरोध है कि आप हमें अवश्य सूचित करें ताकि उक्त रचना को इस संकलन में शामिल कर लिया जाय.

तो आइये हम सद्यः समाप्त आयोजन की सभी रचनाओं का पुनर्रसपान करें -

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उमाशंकर मिश्र

(प्रथम प्रविष्टि)

विष ज्वाला शीतल करन, शिव जी भाल लगाय|
अर्ध - चन्द्रमा सोहते , औघड़ रूप सजाय||
औघड़ रूप सजाय , बने थे शिव जी जोगी|
तब से वर्षा करे , चन्द्र बन अमृत डोंगी||
चन्द्र - किरण की आब , बने अमृत का प्याला |
शरद - पूर्णिमा रात , भसम हो विष की ज्वाला||

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(द्वितीय प्रविष्टि)

भूखे बालक की उंगली
चंद्रमा पे टिकी थी
ले ममता का आँचल
माँ की साँसे रुकी थी
कान्हा की भी उंगली
चाँद पे रुकी थी
बाल हठ के आगे
यशोदा भी झुकी थी
आज का ये कृष्ण
भूख से पीड़ित है
तन नंगा कुपोषित
धूल से धूसरित है
आरजू में उठी उंगली
मैय्या बहुत छोटी है
वो चन्द्रमा नहीं
वो तो मेरी रोटी है
मैय्या ठिठोली न कर
भूख बड़ी आई है
परात में रोटी नहीं
रोटी की परछाई है
माँ की ममता यहाँ
ऐसे गस खाई है
आंसुओं की धार
कपोलों में छाई है
बादल में छिपे चाँद
की आँखे भी डबडबाई है
चन्द्रमा की आंखे
उस माँ पे टिकी थी
ममता के आगे
जो सरे आम बिकी थी ...
ममता के आगे
जो सरे आम बिकी थी ...

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अरुण कुमरा निगम

(प्रथम प्रविष्टि)

चाँद उमर के साथ दिखाये प्राणप्रिये
चंदा- मामा पुए पकाए प्राणप्रिये
बचपन में हर बच्चा खाये प्राणप्रिये |
दूध - कटोरी डाल बताशा अम्मा जी
लल्ला लल्ला लोरी गाये प्राणप्रिये |
तरुणाई की अरुणाई दृग में उतरी
हर सूरत में चाँद दिखाये प्राणप्रिये |
सजनी लिखती मन की पाती मेंहदी से
चंदा साजन तक पहुँचाये प्राणप्रिये |
दम भर चंदा इधर,उधर मुँह फेर थका
नर्गिस ने क्या राज सुनाये प्राणप्रिये |
दो - दो चाँद खिले हैं ,एक है बदली में
दूजा , घूँघट में शरमाये प्राणप्रिये |
नून-तेल का चक्कर जब सिर पर छाया
चाँद नजर रोटी में आये प्राणप्रिये |
दाग दिखाई देते हैं अब चंदा में
मांगने जब कोई चंदा आये प्राणप्रिये |
चमक उठी है चाँद, हटा कर केश घटा
अकलमंद अब हम कहलाये प्राणप्रिये |
अब भी हो तुम चाँद न यूँ छेड़ो मुझको
फिर आंगन दो चाँद समाये प्राणप्रिये |
चंदा - तारे , साथ छोड़ परदेस गये
तन्हा रह गये, सपन सजाये प्राणप्रिये |
चाँद – सरीखी वृद्धावस्था रोती है
अब आँखों को चाँद न भाये प्राणप्रिये |
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(द्वितीय प्रविष्टि)

मालती सवैया

(1)

पीर सुमीर न जान सकै, पहचान सकै मन भाव न कोई
देह लखै अरु रूप चखै, उपमान कहै मन-भावन कोई
वा जननी धरनी सुमिरै , पहुँचाय उसे बिनद्राबन कोई
माइ जसोमति सी धरनी ,ममता धरि नैनन सावन रोई ||

(2)

पूनम रात उठैं लहरें , ममता हिय हाय हिलोर मचावै
हूक उठै ,सुत चंद्र दिखै, सरसै सरि सागर सोर मचावै
माइ कहै सुत हाँस सदा,दुनियाँ भर में चितचोर कहावै
चंद्र कहै मुख हाँसत है , मन पीर सदा मनमोर समावै ||

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संजय मिश्र ’हबीब’

(प्रथम प्रविष्टि)

छन्न पकैया, छन्न पकैया, उज्ज्वल रूप सुहाए।
चाँद खड़ा हो दूर गगन में, मन मोहे, मुसकाए॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, गज़ब कहानी रामा।
धरती मैया का वह भाई, सबका चन्दा मामा॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, रूठे आज कन्हैया।
मुझको ला दो मैं खेलूँगा, चंद्र खिलौना मैया॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, श्राप दक्ष का ऐसा !
चन्दा निसदिन रूप गँवाता, कभी न पहले जैसा॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, देख नियंता जागा।
चन्द्र देव को देवलोक से , हर कर राहू भागा !!

छन्न पकैया, छन्न पकैया, देख देख ललचाये।
चन्दा पूनम का पाने को, सागर उछला जाये॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, लाल शरम के मारे।
ज़ुल्फों की बदली सरकाता, सजना चाँद निहारे॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, काटे कटे न रजनी।
चन्दा बसता दूर देस में, सुमिर लजाये सजनी॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, देखा सुंदर मुखड़ा।
बेटी ले गोदी दिल बोला, चंदा का यह टुकड़ा॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, है दुनिया का मेला।
तारों की बारात लिए भी, चन्दा चला अकेला॥

छन्न पकैया, छन्न पकैया, छन्न हबीब सुनाता।
चन्दा की गाथाएँ गुंथ कर, छन्न पकैया गाता॥

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(द्वितीय प्रविष्टि)

चन्दा, साँच सदा समझायो॥

चंद्र कला ज्यों जीवन तेरा,
दिन दिन घटता जायो।
काली रैना एक बिताकर,
फिर बहुरूप दिखायो।
चन्दा, साँच सदा समझायो॥

सुख दुख आनी जानी माया,
बदरी घिर भरमायो।
चन्दा चमके सारी रैना
जग जगमग कर जायो।
चन्दा, साँच सदा समझायो॥

बिन सूरज चन्दा है रीता,
प्रभु बिन मनुज सिरायो!
क़हत हबीब सुनो भई संतों
सुमिर भुवन तर जायो।
चन्दा, साँच सदा समझायो॥

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(तृतीय प्रविष्टि)

(1)
देखा सब कुछ आदि से, इसने तीनों काल।
कहाँ सृष्टि उन्नत हुई, कहाँ जगत पामाल॥
कहाँ जगत पामाल, सजाने फिर प्रभु आए।
प्रतिक्षण रहा निहार, बिना पलकें झपकाए॥
कौन चला सदराह, किधर गइ लांघी रेखा।
सबका एक गवाह, नहीं क्या इसने देखा??

(2)
नभ का आभूषण कहो, या प्रेमी का मित्र।
कवि आँखों में बस रहा, सुंदरता का चित्र॥
सुंदरता का चित्र, चकोरा निरख बिताए।
जागे सारी रात, मगन मन अति हर्षाए॥
गोदी में प्रतिरूप, लिए मोहे उर सबका।
झील उठाये बांह, थाह लेती है नभ का॥

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लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला

(प्रथम प्रविष्टि)

सूरज के आतप से ले अपने उर में
अमृत घोलता फिर उस तपन में
अमृत सी शीतल किरणे देता हमको
मानो ऋण चुकाने देता चाँद पृथ्वी को |

जिसको अपनाया प्रभु राम ने
अपना नाम के आगे चन्द्र लगाकर
जिसको धन्य किया योगेश्वर ने
चन्द्र वंश में अवतरित होकर
जो ललाट पर शोभित शिव शंकर के
उसे नमन करते हम शीश झुका के |

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(द्वितीय प्रविष्टि)

रिश्ता नजदीक का
दक्ष प्रजापति जंवाई
रिश्ते में कड़वाहट आई
सती का आग्रह
भोलेनाथ साडू भाई आए
आ चन्द्र को शीश बैठाए

चाँद की दरयादिली
सूरज बाबा से
आतप पाए
घोल अमृत उसमे
धरती पर
शीतला लुटाए |

चाँद की कलाए
कभी घटने लगती
फिर पुनः बढती
समुद्र में
उथल-पुथल लाती
जिदगी क्या है, समझाती

चंदा को देखो
कभी चांदनी फैलावे
अम्मा सुई को पोती
कभी मेघो में छुप जावे
माँ बोली, किखावे वो
आँख-मिचोली खिलावे

चंदा मामा
कभी टुकड़ा सा
कभी पूरा गोला
आम्मा बोली बेटे
जीवें में सुख-दुःख
कभी धुप कभी छाँव
जिन्दगी का खेला |

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(तृतीय प्रविष्टि)

कुछ पाने को माँ की आँचल में-
मुह छिपा कान में कहता है बेटा
माँ-बाँप का नाम रोशन करता बेटा
प्रथ्वी के गर्भ से छिटक जन्मा चंदा
भले ही अपने दादा सूरज से रोशन होता
पर प्रथ्वी को रात में रोशन करता चंदा |

मेरे रेगिस्तान की धोरारी धरती पर
पूनम की चांदनी में आओ सैर करे
सोने जैसी पीली-पीली ये माटी
भीनी भीनी सुगंध जिसमे आती
ऊँट पर बैठ प्रेयसी चले मदमाती
तब चाँद की रोशनी बहुत ही भाती

प्रेयसी के मन में चाँद पर जाने की
चाँद पर पहुँच अमृत भर लाने की
नहीं तो चाँद में प्रथ्वी को झांकती-
प्रियतम निकलावादो एक खिड़की
सूत कातती चंदा की माता की
दर्शन करने की इच्छा मेरे मनकी |

मुझे याद है शरद की पूनम को
माँ खीर बना रखती थी ऊँची छतपे
मन ललचाता मेरा मन खाने को
कहती चाँद से अमृत आने दे उसमे |
इस शरदोत्सव को बुला सभी कवियों को
अमृत सी बनी खीर बांटेंगे सब कवियों को |

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राजेश कुमारी

(प्रथम प्रविष्टि)

सेदोका (एक जापानी विधा 38 वर्ण 577 577)

(1)
चाँद निकला
बदरी का आँचल
धीमे धीमे ढलका
शांत झील में
प्रतिबिम्ब समाया
अंजुरी में चमका

(2)
किस अदा से
आज चाँद निकला
नजरें टिक गई
अधर हिले
चांदी के बदन पे
वो प्यार लिख गई

(3)
चांदनी रात
चंद्रमा की चकोरी
निकलती घर से
विरह व्यथा
नैनों से कहे कैसे
मिलने को तरसे

(4)
चंदा का गोला
दरख़्त में अटका
कई दिन से भूखा
झपट पड़ा
उसे रोटी समझा
कुदरत का खेला

(5)
चंदा मामा भी
औ चंदा माशूका भी
चकोरी प्रीतम भी
चंदा गृह भी
कवि की कल्पना भी
प्रभु की अल्पना भी

(6)
अर्ध चंद्रमा
सजे शिव के शीश
पूजा जाता पर्वों में
पूर्णिमा चाँद
चाँद देख मनाते
करवा चौथ ,ईद

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(द्वितीय प्रविष्टि)

रजत हंस पर होकर सवार
रात गगन वत्स छत पर आया,
देख वर्च लावण्य उसका
सुन री सखी वो मेरे मन भायाI
वो समझा मैं सोई थी
मैं सुख सपनो में खोई थी
चूम वदन मेरा उसने
श्वेत किरण का जाल बिछाया,
हिय कपोत उसमे उलझाया
सुन री सखी वो मेरे मन भायाI
खुले थे चित्त कपाट मेरे
वो दबे पाँव चला आया
अधरों की अधीरता सुन आली
साजन कह कर दिल भरमाया
सुन री सखी वो मेरे मन भायाI
उसके बिन अब तो रह न सकूंगी
तूने देखा तो डाह करूंगी
चांदी की पालकी लाएगा
मुझे ब्याह ले जायेगा
मेरे लिए उसने गगन सजाया,
पग- पग तारों का जाल बिछाया
सुन री सखी वो मेरे मन भाया

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(तृतीय प्रविष्टि)

क्षणिकाएं

(1)
चेहरे का वो दाग हमसे छुपाते रहे
पर हमको उसी दाग में वो चाँद नजर आते रहे

(2)
अम्बर से उतरकर चाँद मेरी पलकों पे सोता है
तन कहीं मन कही ऐसा भी होता है

(3)
नटखट चन्द्र ने निशा की
माला तोड़ी होगी,
वरना क्यूँ छितराते नभ में
इतने सितारे
उषा ने फिर डाह की लाली भर दी होगी
वरना क्यूँ बरसाता रवि इतने अंगारे
संध्या ने ढांप दिया होगा
उसका लावण्य,
वरना क्यूँ जाकर परदेश में
ऐसे रात गुजारे

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कुमार गौरव ’अजीतेन्दु’

(प्रथम प्रविष्टि)

चन्द्रमा

चन्द्रमा लुभाता है
नयनों को,
देता है शीतलता
मन-अंतर-आत्मा को,
करता है दूर
थकान दिन भर की,
मिलती है शांति
इसकी छत्रछाया में,
मिलता है सुअवसर
कुछ विचारने का,
मनन करने का,
अगले दिन के लिए ;
चन्द्रमा साक्षी है
सम्पूर्ण घटनाओं का,
करता है सचेत
गलतियों का दोहराव न हो,
सत्कार्यों का विराम न हो,
इसका निर्मल प्रकाश
कहता है हमसे,
शिक्षा लो अपनी भूलों से,
प्रेरित हो पुण्यकर्मों से,
संकल्प ले लो
एक नए युग के आरम्भ का |

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(द्वितीय प्रविष्टि)

चंदा - मनहरण घनाक्षरी

शैतानी करते बच्चे, न दूध पीते न सोते,
चंदा मामा दिखला के, बच्चे फुसलाइए |

रूठे जो कभी प्रेमिका, करे न बात आपसे,
दे के चंदा की उपमा, उसको रिझाइए |

दिल करे लिखने का, गीत-कविता प्यार की,
कथा चंदा-चकोर की, कभी न भुलाइए |

है कोई जो दुनिया में, हो बिना अवगुण के,
मीत केवल चंदा में, दाग न दिखाइए |

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वन्दना गुप्ता

(प्रथम प्रविष्टि)

चाँद

तुम पहले और आखिरी
सम्पुट हो मेरी मोहब्बत के
जानत हो क्यों ?
मोहब्बत ने जब मोहब्बत को
पहला सलाम भेजा था
तुम ही तो गवाह बने थे
शरद की पूर्णमासी पर
रास - महोत्सव मे
याद है ना ............
और देखना
इस कायनात के आखिरी छोर पर भी
तुम ही गवाह बनोगे
मोहब्बत की अदालत में
मोहब्बत के जुर्म पर
मोहब्बत के फसानों पर
लिखी मोहब्बती तहरीरों के
क्योंकि
एक तुम ही तो हो
जो मोहब्बत की आखिरी विदाई के साक्षी बनोगे
यूँ ही थोड़े ही तुम्हें मोहब्बत का खुदा कहा जाता है
यूँ ही थोड़े ही तुम्हारा नाम हर प्रेमी के लबों पर आता है
यूँ ही थोड़े ही तुममे अपना प्रेमी नज़र आता है
कोई तो कारण होगा ना
यूँ ही थोड़े ही तुम भी
शुक्ल और कृष्ण पक्ष मे घटते -बढ़ते हो
चेनाबी मोहब्बत के बहाव की तरह
वरना देखने वाले तो तुममे भी दाग देख लेते हैं
कोई तो कारण होगा
गुनाहों के देवता से मोहब्बत का देवता बनने का ................
वरना शर्मीली ,लजाती मोहब्बत की दुल्हन का घूंघट हटाना सबके बाकी बात कहाँ है ......है ना कलानिधि!!!!

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(द्वितीय प्रविष्टि)

ए चाँद
मत झांको आसमाँ से धरती पर
नहीं रहता अब यहाँ कोई निगेहबान
नहीं कसता कोई कसीदे अब तुम पर
नहीं करता कोई तुलना तुमसे
अपनी महबूबा की
नहीं देखता तुममे कोई
बुढिया को सूत कातते
नहीं बहलाती माँ आज बच्चे को
तुम्हें मामा कहकर
फिर किसलिए
एक हसरत मन में लिए
झाँका करते हो धरती पर
जानते हो
नहीं रही ये धरती भी अब वैसी
जिसे देख तुम अपनी
मासूमियत बिखराया करते थे
नहीं रहा यहाँ के अनाज में वो ख़म
जिसे खाकर कीमत चुकाया करते थे
क्योंकि
आज का मानव बन गया है मशीन
एक ऐसी मशीन जिसने नाप ली है दूरी
धरती से तुम्हारी सतह तक की
देखो जैसे इसने
धरती को बना दिया वीभत्स
वैसे ही तुम्हें भी ना बना दे
लाक्षागृह
क्योंकि एक इसी काम को तो
ये बेहतर अंदाज़ में कर सकता है
संवेदनहीन हो चुका है
आज का मानव
सिर्फ अपनी जरूरतों और चाहतों
के आगे
ना धरती, ना इन्सान , ना अन्तरिक्ष
सब कम पड़ जाते हैं
तभी तो बसाना चाहता है
तुम्हारे किनारों पर भी बस्ती
और फैलाना चाहता है
वैसा ही आतंक
जैसा धरती झेल रही है
क्या तुम झेल सकोगे ?
कर लो खुद को तैयार
अगर बचना चाहते हो
चलने से
इन कंटकाकीर्ण राहों से
तो मुँह फेर लो तुम भी
ढूँढ लो कोई दूसरी धरती
जहाँ तुम्हारी क़द्र हो
जहाँ तुम्हारा स्वागत हो
जहाँ बच्चा तुममे खिलौना देखे
जहाँ माँ की लोरियों में तुम्हारा जिक्र हो
एक सम्बन्ध स्नेह का बंधे
अगर चाहते हो
स्वच्छ निर्मल पाक रहना
तो झांकना बंद कर दो धरती पर...............

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संदीप कुमार पटेल

(प्रथम प्रविष्टि)

फिरे वो आसमाँ पे चाँद बंजारा लगा मुझको
छुपे वो बादलों से इश्क का मारा लगा मुझको

भटकता रात भर यूँ तिश्नगी चाहत मुहब्बत ले
हसीं वो चाँद बादल से भी आवारा लगा मुझको

मुहब्बत है बहुत मैं जानता हूँ पाक मौजों से
मचलती मौज पाने चाँद बेचारा लगा मुझको

कहा था चाँद उसको दिल्लगी ही दिल्लगी में जो
वही अब दूर जा के आँख का तारा लगा मुझको

चलो जब चाँद तुम यूँ चांदनी को साथ लेकर के
मुहब्बत से वही गुलजार गलियारा लगा मुझको

मिला के हाथ दोनों चाँद मैंने जब कभी देखा
निकाला गर्दिशों से वो बड़ा प्यारा लगा मुझको

अमावश में कहाँ छुपता फिरे है "दीप" ये चंदा
डरा सा छटपटाता दर्द का मारा लगा मुझको

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(द्वितीय प्रविष्टि)

मुक्तक

चाँद खिलौना मांग रहे कान्हा अतिभोलापन ये देखो
चन्द्र-प्रभा मुस्कान लिए कह माया का नर्तन ये देखो
छुपता चाँद कहाँ बदली में चंदनिया छिटके जब ऐसी
खेल रहे प्रभू नाच नचा माँ से कहते दर्पण ये देखो

प्रीत चढी जस भांग धतूरा केशव चाँद लगे राधा को
प्रेम सुधारस छलका ऐसी कान्हा आज ठगे राधा को
मंद मधुर मीठी मीठी सी बजती मुरली जब कान्हा की
असमंजस भरते वो शब्द लगे नित प्रेम पगे राधा को

चाँद जलाता तन-मन विरहा में जब वो कान्हा बन आता
चमके और गिराए वो बिजली बादल में जा के छुप जाता
हाय अभागी मैं मतवारी किसको तन मन सौंप दिया ये
वो मनमोहन गिरधारी मुरलीधर ही छलिया कहलाता

"दीप" कहो कैसे राधारानी बिन कान्हा के रह जाती हैं
चाँद नहीं आये जब छत पे अखियाँ निर्झर बह जाती है
चाँद निहार रहीं कान्हा छवि देख रही राधा जी इकटक
हाथ रखे दिल पे अपने सब हाल दिलों के कह जाती हैं

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(तृतीय प्रविष्टि)

चाँद

(1)
गुनी जनों में से एक
विलक्षण
चिंतन को आयाम देता होगा
ज्योतिषी ने तपाक से कहा
अतिउत्तम |
किन्तु
चाँद होते हुए भी बेदिमाग

(2)
सावन का मौसम है
घनघोर घटा छाई है
घुप्प सन्नाटा पसरा है
रात में सम्हल सम्हल के चलना
फिसल सकते हो
गिर सकते हो
मैंने सुबह आँगन में
बड़े बड़े चाँद देखे है

(3)
उसने अंतिम यात्रा देखी
चाँद ने
उसकी
हाँ सभी जानते हैं
सभी चाँद के आशिक है
इसीलिए चाँद जिन्दा है

(4)

रोज रोज दिवाली
इन लोगों ने
चाँद पाल रखा है घर में
संदूक में बंद कर दिया
लो आ गयी अमावस
मन गयी दिवाली
रोज रोज दिवाली
बिना चाँद

(5)

दूर जल रही कुछ लकडियाँ
उठ रहा मद्धम मद्धम धुआँ
कुहरे की धुंध में
अद्वितीय तीव्र दीप्त स्तम्भ में
लटका हुआ दीखता है चाँद

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अम्बरीष श्रीवास्तव

(प्रथम प्रविष्टि)

कह मुकरी

शीतल चित्त करे भरमाये
मोहक रूप हृदय बस जाये
नेह लिए मुसकाए बन्दा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा!!

मन सागर में ज्वार उठाये
रात चाँदनी आग लगाये
नेह प्रीति का डाले फंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा!!

प्यार हमारा जब भी पा ले
रात चांदनी डेरा डाले
जालिम हरजाई वह बन्दा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा!!

रोज रोज जियरा तड़पाये
देखे बिना रहा नहिं जाये
वचन न बोले एक सुनंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा!!

दिल ये चाहे जिसकी दीद
जिसे देख कर होती ईद
छिपा आज क्यों तम की मांद?
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चाँद|

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(द्वितीय प्रविष्टि)

कुछ दोहे

दुनिया में सूखा पड़ा, पेट गया है सूख.
चुपड़ी रोटी चाहिए, मुझे लगी माँ भूख.

जन्मा कवि के वंश में, चंदा तो है दूर.
सूखी रोटी खा यहाँ, जी ले तू भरपूर..

आई है जन्माष्टमी, कान्हा का है राज.
चंद्र खिलौना चाहिए, मैया मोरी आज..

उस पर भी कब्जा हुआ, अमेरिका का हाथ.
चंदा भी भूला हमें, रहे चाँदनी साथ..

मामी मेरी चाँदनी, रहती सारी रात.
दूध पिलायेगी हमें, साथ मिलेगा भात..

मामा मामी दूर के, कभी न करते मेल.
मृगमरीचिका मान कर, माटी से तू खेल..

बाबा करते कल्पना, रचते कविता रोज.
फिर भी क्यों भूखे यहाँ, कब जायेंगे भोज..

इस माटी में दम बड़ा, इससे ही कर प्यार.
इक दिन होगा चाँद पर, लगा स्वयं में धार..

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अविनाश बागड़े

(प्रथम प्रविष्टि)

चाँद:दो कुण्डलियाँ चित्र.....

1)
अम्मी बचपन में करे चंदा से मनुहार.
दूध कटोरे में आए, लल्ला को पुचकार.
लल्ला को पुचकार,न जाने क्या-क्या बोले!!!
बड़ा हठीला लल्ला,फिर भी होंठ न खोले.
कहता है अविनाश, चाँद की लेकर चुम्मी.
पिला रही है दूध, देखिए अब भी अम्मी.

2)

लाया हूँ वो चाँद मै , देखो मेरी जान.
संग सितारें भी इसमे ,अब तो जाओ मान.
अब तो जाओ मान, प्राण अटकें हैं मेरे.
फेरे सप्त लगाने,कितने हो गये फेरे!!
कहता है अविनाश , प्रेम की देखो माया!
चाँद को प्रेमी ये नभ से है खींच लाया..

************

(द्वितीय प्रविष्टि)

दस हाइकु...
1-चाँद सयाना
अमावास की रात
ढूंढे बहाना.

2-दिन बंजारा
सूरज चाँद-तारे
रात आवारा.

3-चांदनी रात
ताजमहल सोया
सपने साथ.

4-चाँद या रोटी
आसमान का तवा
खुदा ने बांटी.

5-चन्द्र कलाएँ
जीवन कट रहा
किसे बताएं!

6-चाँद खामोश
रात है तन्हा-तन्हा
ख़ाली आगोश.

7-चंदा मामा है
रिश्ता नजदीक का.
धरती माँ है.

8-देश में चाँद
वतन की सदायें
आंसू बहाए.

9-ईद का चाँद
प्यार का आसमान
मंसूबे बांध...

10-मुख चन्द्रमा
निहारता चकोर
हो गई भोर.

===============

सौरभ पाण्डेय

चाँद : पाँच आयाम

1.
धुआँ कहीं से निकले --
     आँखों से
     मुँह की पपड़ियों से
     चिमनी के मूँबाये अहर्निश खोखले से.
धुक चुके हर तरह
तो चुप जाता है / हमेशा-हमेशा केलिये
      एक मन
      एक तन
      एक कारखाना.. .
चाँद बस निहारता है.

2.
अभागन के हिस्से का अँधेरा कोना
चाँदरातों का टीसता परिणाम है.

3.
मेरे जीवन का चाँद अब कहाँ ?
हाँ, तुम बादल हो --भरे-भरे.. .

4.
निरभ्र आँखों
तब देर तक देखता था चुपचाप
मोगरे / के फूलों की वेणी / की सुगंध बरसाता हुआ
चाँद.. .
अब चादर तान चुपचाप सो जाता है.

5.
वो
अब चाँद नहीं देखता / गगन में
दुधिया नहायी रहती है
उसकी चारपायी
सारी रात.

==================

डॉ. प्राची सिंह

चन्दा रे तेरी चंदनिया
सारे जहाँ पे है छा रही,
महका जिया, साजन प्रिया, मैं
नेह भीनी स्वाति नहा रही,
कर वन्दना स्वीकार चन्दा, साँची प्रीत का वरदान दे l
अर्चना बारम्बार चन्दा, भाग्य अक्षय आयुष्मान दे l l

मन अंगना सुरभित पल्लवित
पिया के ह्रदय सदा ही बसूँ,
हथेलियों महके मेंहंदी
साजन का उसमें नाम लिखूं,
हैं नेह के उदगार चन्दा, दो जिस्मों को एक प्राण दे l
अर्चना बारम्बार चन्दा, भाग्य अक्षय आयुष्मान दे l l

हो तिमिर जहाँ, वो दीप बनें
उजियारे वो स्वर्णिम कर दें,
सदा धर्मबद्ध हो आचरण
सत्य मार्ग पर ही कदम बढ़ें,
हो धैर्य का आधार चन्दा, नित नव्य तू कीर्तिमान दे l
अर्चना बारम्बार चन्दा, भाग्य अक्षय आयुष्मान दे l l

पुष्प जल रोली दीप अक्षत
थाल हस्त सजा ढूँढू तुझे,
क्षण भर निहारूँ रूप तेरा
बदरी छिप अब तड़पा न मुझे,
रहें सोलह शृंगार चन्दा, अखंडित सुहाग का दान दे l
अर्चना बारम्बार चन्दा, भाग्य अक्षय आयुष्मान दे l l

=========================

विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

॥मालती सवैया॥

ज्योति अलौकिक छाई रही नभ,देखि रही बसुधा हरसाई।
चांद क रूप सलोन लगे अब,कौन कहै उपमा कह भाई॥
भागि गये निज गेह सभै तुम,ढूढ़त हौ उपमा कह जाई।
चांद बराबर चांद बना अब,दूसर चांद क कौन बनाई॥

चंद के ज्योति लखात पिया छवि,छाइ रही तन पे तरुनाई।
मोद लिये मन नाचति हैं अब,साजति हैं यवना बलखाई॥
लाज लगै अब बाप मिलैं जब,भ्रात मिलैं तिरछा मुसकाई।
चांद के हाथ पठावति पाति बचावति चातक से खत आई॥

॥सुन्दरी सवैया॥

इतनी उपमा कवि देन दिये अब,चांद क कांकर पाथर बांचो।
हरसाउ वियोगिन चांद न दाहक जीवत,हैं रवि के कर सांचो॥
बिलखाउ सुजोगिन चांद भयो ग्रह,जामे पिया छवि सुन्दर रांचो।
शिव शीश कहां अब चंद्र यहां जब,झूठ भये उपमानहि पांचो॥

====================

सीमा अग्रवाल

तुम उजले हो सब कहते हैं
मै न कभी कह पाऊँगी
चंदा बोलो सित किरणों की
संसृति क्या यह तेरी है ?

परहित जल हर दिन जो भटके थका-थका सा गात लिए
ज्योत सजा उसकी तुम तन पर मुस्काते हो रात लिए
ताराधीश तुम्हे सब कहते
मैं न कभी गह पाऊँगी
कांतिवान नक्षत्र यामिनी
निर्मिति क्या यह तेरी है ?

मठाधीश बन कर बैठे हो कहलाते हो अमृतकर
पर छोटे से इक बादल मे खो जाते हो तुम शेखर
सुनो तमोहर नाम तुम्हारा
मै ना कभी दोहराऊंगी
सुधारश्मि की दिव्य पयस्विनी
प्रतिकृति क्या यह तेरी है ?

======================

सुरीन्दर रत्ती

चाँद

चौदहवीं के चाँद हो, कब तलक तरसाओगे
आसमां से ही देखोगे, ज़मीं पे कब आओगे
यह गुरुर-ए-जवानी, बहुत दूर ले जायेगी
तुम चाह के भी न, मेरे क़रीब आओगे

बादलों की ओट का, लेते हो रोज़ सहारा
लुका-छिपी के खेल से, कुछ न हासिल कर पाओगे
शर्मो-हया, शीतलता, चंचलता बची नहीं
सूरज की तरह तुम भी, शोले बरसाओगे

दिल है पास तुम्हारे या, संग लिये फिरते हो
ज़ख्मों से तन भरा हो, तो भी तीर चलाओगे
ये बेरुखी की बातें, बरसों बाद मुलाकातें
मुंह फेरना ठीक नहीं, रु-ब-रु कब आओगे

कोई गरजता है कभी, तो कोई बरसता है
नागों सा इक दिन "रत्ती" रत्ती निगल जाओगे

=============

अलबेला खत्री

(प्रथम प्रविष्टि)

अतुकान्त कविता : चाँद

कहने को ख़ूब उजाला है
पर मुँह तो तेरा काला है
और काला ही रहेगा मिस्टर चाँद !
इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है
बैठ जाओ भले महादेव के मस्तक पर
बनवा दो चाहे शुद्ध स्वर्ण से सोमनाथ मन्दिर
दिखाते रहो बल अपना समुद्र की लहरों को
करते रहो सुधावर्षण शरद पूर्णिमा की रात में
कहलाओ प्रतीक भले ही रूप के
हो जाओ चहेते प्रेमी पन्छियों के
ढल जाओ गीतों और ग़ज़लों में
बन जाओ मामा बच्चों के
या और भी तुम से जो बन पड़े करलो.........
लेकिन
कलंकित थे, कलंकित हो और कलंकित ही रहोगे

हो सकता है अहिल्या तुम्हें क्षमा कर दे
लेकिन मैं नहीं करूँगा
हरगिज़ नहीं करूँगा
तुमने न केवल राजा और ऋषि में भेद किया है
बल्कि जिस थाली में खाया, उस में छेद किया है
और करते आ रहे हो
लगातार
हर बार
सूर्यग्रहण के दिन तू ही आड़े आता है न चाँद !
धरती और सूर्य के मध्य
तू ही आता है न संकट बन कर ?

जिस से जीवन का उजाला पाता है
उसी की राह में रोड़ा अटकाता है ?
अरे कलमुंहे
तू किसी का सगा नहीं है
इसीलिए
तेरा सम्मान रहा नहीं है

चढ़ते हैं लोग जूते समेत तुझ पर और रिसर्च करते हैं
झंडा गाड़ते हैं अपने अपने मुल्क का
खुदाई करते हैं तेरी..........

होगा तू महान तेरे घर में
मैं तो बे ईमान ही कहूँगा
और जब तू प्रायश्चित नहीं करेगा
मैं भी अपने निर्णय पर अडिग रहूँगा

*******

(द्वितीय प्रैष्टि)

चाँद की दैनन्दिनी

एकम तक गर्भ में रहता है
दूज को जन्म लेता है
तीज को किलकारियां मारता है
चौथ को बालक्रीड़ा करता है
पाँचम को विद्यालय जाता है
छठ को कालेज जाता है
सातम को जवान होता है
आठम को काम पे लगता है
नौमी को सगाई होती है
दशमी को विवाह होता है
ग्यारस को बाप बनता है
बारस को दादा बनता है
तेरस को यशस्वी होता है
चौदस को मनस्वी होता है
पूनम को परिपूर्ण तपस्वी होता है

एकम को अहंकार आता है
दूज को तन में विकार आता है
तीज को बीमार पड़ जाता है
चौथ को व्यापार में घाटा खाता है
पाँचम को प्यार में धोखा खाता है
छठ को अधेड़ हो जाता है
सातम को स्मृति कमज़ोर पड़ जाती है
आठम को आँखें जवाब दे जाती हैं
नवमी को वृद्ध आश्रम में भेज दिया जाता है
दशमी को बिस्तर पकड़ लेता है
ग्यारस को हृदयाघात होता है
बारस को सन्निपात होता है
तेरस को आई. सी. यू. रखा जाता है
चौदस को वेंटिलेटर के सहारे सांस लेता है
अमावस को मृत घोषित कर दिया जाता है

चाँद की ये तीस दिन की दैनन्दिनी
सृष्टि नियन्ता का संकेत है
हर मानव के लिए
जो समझ लेता है
वो स्वयं को साध लेता है, साधु बन जाता है
और जो नहीं समझता
वो मेरी तरह दुनियादार बना रहता है

जीवन और मृत्यु की भाषा
चंद्रलिपि में लिखी गई है
ये वो शाश्वत कविता है
जो सृष्टा द्वारा रची गई है
____आओ, हम भी बांचलें इस काव्य को और समझ लें जीवन का अर्थ .
____वरना सारी समझदारी और बुद्धिमता है इस जग में व्यर्थ

*****************

(तृतीय प्रविष्टि)

चाँद : दो कुंडलिया

कविता लिख दूँ चाँद पर, यदि तुम करो पसन्द
मेरा तो इक लक्ष्य है, उर उमड़े आनन्द
उर उमड़े आनन्द, सुरतिया खिल खिल जाये
हाय किसी उर्मिला से अपना उर मिल जाये
जीवन के मरुथल में बह जाये रस सरिता
करूँ समर्पित मैं तुमको अपनी हर कविता

चन्दा केवल एक है, अनगिन यहाँ चकोर
सभी ताकते चाँद को हो कर भाव विभोर
हो कर भाव विभोर, इश्क़ में मर जाते हैं
पर दीदारे-यार वो मन भर कर जाते हैं
हाय मोहब्बत ही बन जाती है इक फन्दा
कितने आशिक जीम गया यह ज़ालिम चन्दा

==============

दिनेश मिश्र ’राही’

सिंहावलोकन-सवैया

उजियारु करै नित चाँद सदा मन शीतलता की दिखै लड़ियाँ.
लड़ियों में गुथा हो सदा मन मोर, चकोर पियार करै घड़ियाँ.
घड़ियाँ पिय आवन की तरसैं हरषे नित नेह झरैं झड़ियाँ.
झड़ियाँ नित नेह की फूलैं फलें नित प्यार से प्यार जुड़ें कड़ियाँ..

======================

अशोक कुमार रक्ताले

(प्रथम प्रविष्टि)

दोहे

शीश धरे शिव चाँद को,बैठे हैं कैलास/
गौरा भी संगे सदा,मन में है उल्लास//

गौरा बैठी शिव कने, पूछत प्रश्न अनेक/
कब कब पूजें चाँद को,दें कोई उपदेश//

याद आय यह दूज को, तीजे पूजा जाय/
गणेश चौथ न देखिये, करवे देखा जाय//

हर पूनम को व्रत रखें, विष्णु बनें सहाय/
कोजागिरी कि रात को,अमृत ये बरसाय//

महत्त्व अमावस का भी, मनमहेश बतलाय/
आए जब शनि सोम तो,नदी नहाने जाय//

**********

(द्वितीय प्रविष्टि)

अपना अपना चाँद. कुंडलिया.

1.
घोर अमावस रात्री ,नजर न आये मांद/
गौरी निकरे आँगना, चार लगा दे चाँद//
चार लगा दे चाँद, मिटा रही अंधियारा/
रोशन घर का चाँद,हुआ है जग उजियारा//
बेटी पढ़ती आज, होती दुनिया में भोर/
बिन शिक्षा के आज,है रात अमावस घोर//

2.
बिखरी हुइ है चांदनी, मन चंदा के आस/
बिन चंदा के आँगना, मनवा हुआ उदास//
मनवा हुआ उदास, मांगता हरदम चंदा/
हुआ लालची दास, चाँद के कारण अंधा//
पाया ना कोई चाँद, चाँदनी निखरी निखरी/
छोड़ी चाँद कि आस, चांदनी खुल के बिखरी//

==================

योगेन्द्र बी. सिंह ’आलोक सीतापुरी’

कह मुकरियाँ

दर्शन पावन परम सुखारी
जिसे देख हो ईद हमारी
अरमानों का एक एक पुलिंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा..

राका जब बांहें फैलाये
राही मंद मंद मुस्काए
साथ निभाए पवन परिंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा..

चढ़ता ज्वार उतरता भाटा
दिखे भूख को रोटी आटा
प्रेम जगत का परमानंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा..

जिसके सबसे रिश्ते नाते
बुढिया बैठी चरखा काते
काटे रात बना कर फंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा..

घटता बढ़ता पड़े दिखाई
मुन्ने को दे दूध मलाई
चम चम चमके कभी न गन्दा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा..

रात दिखावे दिए कटोरा
जिसको देखे एक चकोरा
दूध बताशे खाए बंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा..

पूनम का भरपूर खिलौना
दिखे नहीं मावस की रैना
दिन दिन बढ़ता है मुस्टंडा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा..

===============

गणेश जी ’बाग़ी’

पांच एकादशियाँ (3-5-3=11)
(1)
चन्द्रमा
माँ ने कहा
हैं मामा

(2)
बादल
छुपा है चंदा
आ भी जा

(3)
चांदनी
है तेरे बिन
नागिन

(4)
धोखा है
चलता चंदा
आँखों का

(5)
चन्द्रमा
नहीं अछूता
दाग से

=====================

योगराज प्रभाकर

छन्न पकैया छन्न पकैया, अस्सी तीन तिरासी
नौ दो ग्यारह हुआ अँधेरा, आई पूरनमासी (1)

छन्न पकैया छन्न पकैया, फिरता रहे आवारा
आज समझ में आया मेरे, काहे चाँद कुँवारा (2)

छन्न पकैया छन्न पकैया, भाये नहीं गुलामी
तभी तो चंदा मामा अब तक,लाया न है मामी (3)

छन्न पकैया छन्न पकैया, कैसा अजब नतीजा,
बापू मेरा तो लगता है, चन्द्रमा का जीजा. (4)

छन्न पकैया छन्न पकैया, मैं तो ढूँढूँ कबरें
लेकिन मुझमे चंदा ढूँढें, मेरी माँ की नज़रें (5)

छन्न पकैया छन्न पकैया, निकला बड़ा निकम्मा
चाँद छोड़ कर कहाँ गई है, चरखे वाली अम्मा (6)

छन्न पकैया छन्न पकैया, काटो ज़रा चिकोटी
हर भूखे को काहे दिखती, चंद्रमा में रोटी ? (7)

छन्न पकैया छन्न पकैया, फेंका धागा-गंडा
वर्ना चंदा पर क्यों गड़ता, अंग्रेजों का झंडा. (8)

छन्न पकैया छन्न पकैया, वादा करते जाना,
चंदा मामा किसी अमावस, आ मुखड़ा दिखलाना (9)

छन्न पकैया छन्न पकैया, धुत्त नशे में बंदा,
करवा रखे गोरी फिर भी, छत पर ढूंढे चंदा (10)

छन्न पकैया छन्न पकैया, फिर न हुआ सवेरा
जिस दिन सीमा पर डूबा था, घर का चंदा मेरा (11)

===============

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

माँ तुम कब आओगी

माँ माँ माँ ओ प्यारे चंदा मामा
धरती से दूर मगर रिश्ता पुराना
सूरज का तुम आतप सहते
धरती को देते शीतलता
तारों संग खुद विचरते
स्निग्ध चाँदनी की चादर से
ओस कण मोती से चमकते
जन्मते शिशु के जग में
तुम चंदा मामा कहलाते
पावन रिश्ता भाई बहनों का
जिसे जीवन भर निभाते
मैं जब रोती हठ करती
तुझसे मिलने को
गोद में ले माँ तुझे दिखा
मीठी रोली गाती
अर्ध निद्रा में पलक झपक
माँ के आँचल में सो जाती
श्रवण पूर्णिमा रक्षा बंधन
कर श्रृंगार करती माँ वंदन
माँ गयी थी तुमसे मिलने को
प्रेम डोर रक्षा बंधन करने को
चंदा तुम रोज मेरे घर आते हो
न माँ को न उनकी खबर लाते हो
नानी बूढ़ी हो चुकीं
धर सर खटिया सो रही
माँ कैसे चरखा काटेगी
चन्दा के दुःख बांटेगी
रहने दो कपडे गुडिया के
ये भी अब बड़ी हो चुकी
मामा माँ से जा कहना
तेरी हैं अनगिनत तारा बहना
निभा दे धर्म भाई का
भेज दे मेरा गहना
==================

राज तोमर

मोरे चाँद रे, आ जा आ जा
मोरे घर, मोरे चाँद रे.
बीती रैना ताके ताके
रोई अँखियाँ जागे जागे

सुध मा तोरे ये मर मर जाये
मनवा न मोरा अब मुस्काए
कासे कहूँ हाय ..आजा आजा.
मोरे चाँद रे, चाँद रे

रुत बैरी है, सावन बरसे
पिया की प्यासी घरती तरसे
कारी बदरिया मोरे अंगना रे
मन कोरो बिन चाँद रे.
आ जा, मोरे घर चाँद रे.!!

=====================

दिलबाग़ विर्क

तांका ( 5, 7, 5, 7, 7 )

होड़ में लगे
चमक बिखेरते
दोनों ही चाँद
माँ की गोद में एक
एक आसमां पर ।

सेदोका ( 5, 7, 7, 5, 7, 7 )

1.
मुस्करा रहा
चाँद-सा वो चेहरा
बैठा माँ की गोद में
फीका - फीका है
माँ के चाँद के आगे
चाँद आसमान का ।

2.
ऐ आसमान
एक चाँद मेरा भी
क्यों इतरा रहे हो
तेरा जो चाँद
उसमें दाग कई
बेदाग मेरा चाँद ।

==============================================

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सभी की रचनाओं का एक जगह पर संकलन का प्रयास बहुत प्रशंसनीय है सौरभ पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई एवं आभार 

आपका आभार आदरणीया राजेशकुमारीजी. 

भाई नीरजजी, आपने इस प्रयास को मान दिया, यह पूरे मंच के लिये हर्ष की बात है. 

सधन्यवाद

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