(२१२२ ११२२ ११२२ २२/११२ )
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ये दुआ है कि ख़ुशी आपके घर में आये 
 हादिसा पेश न जीवन के सफ़र में आये 
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 अश्क आँखों में अगर हों तो ख़ुशी के हों बस  
 और सैलाब न अब दीदा-ए-तर में आये 
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 प्यार की राह को आसाँ न समझना कोई 
 हौसला हो वही इस राह-गुज़र में आये 
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 कोशिशें लाख  करे तो भी नहीं है मुमकिन 
 ताब-ए-ख़ुर्शीद तो हरगिज़ न क़मर में आये 
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 ग़ैर के ऐब को आसाँ है नज़र में रखना 
 ऐब ख़ुद का न किसी की भी नज़र में आये 
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 अपने हाथों से लुटा दूं ज़र-ए-उल्फ़त सबको 
 कोई ऐसा भी हुनर दस्त-ए-हुनर में आये 
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 मांग लें आप मुआफ़ी तो बुरा ही क्या है 
 गर ख़ता आपकी कोई जो ख़बर में आये 
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 इसलिए हाज़िरी देते हैं ख़ुदा के दर पर 
 ताकि हर रोज़ कमी उनकी न ज़र में आये 
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 कौन शीशे के घरोंदे में लगाएगा शजर 
 कौन रहने को 'तुरंत' आइना-घर में आये 
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 गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी |
 २४/०२/२०१९
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी ,
स्नेहिल उद्गारों से सुसज्जित सराहना के लिए ह्रदय तल से आभार एवम सादर नमन
|
आ. भाई गिरधारी जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई।
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'लाख कोशिश भी करे तो भी सदा नामुमकिन'
इस मिसरे को अगर यूँ कर लें तो गेयता बढ़ जाएगी:-
'लाख कोशिश करे तो भी ये नहीं है मुमकिन'
' ऐब ख़ुद का न किसी के भी नज़र में आये'
इस मिसरे में 'के' की जगह "की" करना उचित होगा ।
'मांग लेना कभी माफ़ी है बुरी बात नहीं'
इस मिसरे में सहीह शब्द "मुआफ़ी" है,देखियेगा ।
'इसलिए हाज़िरी देते हैं ख़ुदा के दर वो'
इस मिसरे में 'दर वो' को "दर पर" कर लें ।
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