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दस्तूर इस जहाँ के हैं देखे अजीब अजीब (१९)

(२२१ २१२१ १२२१ २१२  )
दस्तूर इस जहाँ के हैं देखे अजीब अजीब
दुश्मन भी एक पल में बने देखिये हबीब
***
बनती बिगड़ती बात अचानक कभी कभी
बिगड़े नसीब वालों के खुल जाते हैं नसीब
***
वादा किया था हम से सजा लेंगे ज़ुल्फ़ में
लेकिन सजा है ज़ीस्त में क्यों आपके रक़ीब
***
नज़दीक आज लग रहा होता है दूर कल
जो दूर दूर रहता वो हो जाता है क़रीब
***
होता है पर कभी कभी ऐसा भी मो'जिज़ा
बनता ग़रीब बादशा और बादशा ग़रीब
***
हैरत है बातिलों की यहाँ चल रही है ख़ूब
सच के नसीब में लिखी क्यों है ख़ुदा सलीब
***
औरत शराब ज़र ज़मीँ का जोर हो जहाँ
संतों के ऐसे आप न बनिए कभी अक़ीब
***
दरकार है जनाब मुसल्सल हों कोशिशें
दो चार हर्फ़ सीख के बनते नहीं अदीब
***
उल्फ़त को तोलने की न कोशिश करें 'तुरंत '
नापे जो प्यार को बनी अब तक नहीं जरीब
***
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
२७/०१/२०१९
शब्दार्थ - मो'जिज़ा =चमत्कार ,बातिलों=झूठों
अक़ीब =अनुयायी ,अदीब=साहित्यकार
जरीब=जमीन मापने की ज़ंजीर
(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on February 2, 2019 at 1:43am

भाई Sushil Sarna जी आपकी सराहना के लिए ह्रदय तल से आभार एवं सादर नमन | 

Comment by Sushil Sarna on February 1, 2019 at 7:26pm

हैरत है बातिलों की यहाँ चल रही है ख़ूब
सच के नसीब में लिखी क्यों है ख़ुदा सलीब

वाह आदरणीय बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल पेश की है आपने। इस दिलकश ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।

Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 31, 2019 at 10:01am

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'  जी ,आपकी स्नेहिल सराहना के लिए ह्रदय तल से आभार | सादर नमन | 

Comment by नाथ सोनांचली on January 30, 2019 at 10:21pm

आद0 गिरधारी सिंह गहलोत जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल मिली पढ़ने को आपके जानिब से, मुबारकबाद कुबुल फरमाएं। इस शेर पर अतिरिक्त तालियाँ

औरत शराब ज़र ज़मीँ का जोर हो जहाँ 
संतों के ऐसे आप न बनिए कभी अक़ीब 
***

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