For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कुछ अपनी कुछ जग की : तब और अब बनाम बच्चे परिवार को वृत बनाते हैं // -- सौरभ

 

आज मन फिर से हरा है। कहें या न कहें, भीतरी तह में यह मरुआया-सा ही रहा करता है। कारण तो कई हैं। आज हरा हुआ है। इसलिए तो नहीं, कि बेटियाँ आज इतनी बड़ी हो गयी हैं, कि अपनी छुट्टियों पर ’घर’ गयी हैं, ’हमको घर जाना है’ के जोश की ज़िद पर ? चाहे जैसे हों, गमलों में खिलने वाले फूलों का हम स्वागत करते हैं। मन का ऐसा हरापन गमलों वाला ही फूल तो है। इस भाव-फूल का स्वागत है।

अपना 'तब वाला' परिवार बड़ा तो था ही, कई अर्थों में 'मोस्ट हैप्पेनिंग' भी हुआ करता था। गाँव का घर, या कहें, गाँव वाला घर हर तरह की होनियों और हर तरह के व्यवहारों, यानी हर तरह के ’परोजनों’ की धुरी हुआ करता था। सभी चाचा, सभी चाचियाँ वस्तुतः भाभी-भउजी, बबुआजी-बबुनीजी हुआ करते। सभी नन्हें-नन्हियाँ, मुन्ने-मुन्नियाँ, ऑब्वियसली, भाई-बहन। चचेरा-चचेरी जैसे शब्द भाव में नहीं थे, न तब जीवन में लाये गये थे। जब ये भाव में ही नहीं आये थे, तो ऐसे शब्दों को समझा भी नहीं जाता था। जब समझा नहीं जाता था, तो जिया
भी नहीं जाता था। जो थे, बस भाईजी थे, भइया थे, कई-कई भाई थे। दीदिया थी, बुचिया थी, कई-कई बहिनियाँ थीं। जो थे सब अपने थे। घर-परिवार की व्यवस्था पारिवारिक तो थी ही, सामूहिक भी थी। सामूहिकता का यह दायरा घर की चौहद्दी फलाँगता हुआ कब सामाजिक हो जाता, पता ही न चलता। ऐसा कि ’परोजनों’ के दौरान गाँव क्या, जवार के भी हीत-मीत, नातेदारों-जानकारों से किसी और कई ’सहयोग’ के लिए कहा जाना या उसका लिया जाना अद्भुत ’अधिकार’ से हुआ करता। ऐसे सहयोग घर की सीमा के बाहर निकले तो आर्थिक नहीं हुआ करते। बल्कि, ’चौकी-तखत, या कड़ाह, या चार गो बलीत (तकिये) और गद्दे-चादर, या फिर ’मैन-पावर’ की गुहार.. कि, दस दिन खातिर अपना लइकियन के घरे भेज दीहऽ’ टाइप। यानी, जो जिस क़ाबिल हुआ उससे वैसा ही सहयोग। कई बार तो कहना भी नहीं पड़ता, ऐसी वस्तुएँ स्वयं ही समयानुसार पहुँचवा दी जातीं और लोग अपने परिवारों के साथ समय से पहुँच जाते। ऐसा सारा ताना-बाना कई अर्थों में व्यक्ति की निजी सोच और उसके व्यापक विचारों की गठन की नींव हुआ करता।

लेकिन यह भी था कि जिसकी जैसी प्रवृति होती उसकी सोच इन सब से वैसे ही सूत्र भी पकड़ती। कुछ को यह सब भारी ढकोसला लगता, जो अकसर ’चाय की गुमटियों’ पर सामाजिक परंपरा-परिपाटियों और इसकी ’रूढ़ियों’ के विरुद्ध तार्किक निर्लिप्तता के साथ ख़ूब मुखर होता। सुनने वाले भी अपने कानों से ’ज्ञान’ के लिए सुनते और आपस में कनखियों से ’रस’ ले कर ताड़ते।

 

ऐसे में किसी ’परोजन’ पर किसी भाई का घर न पहुँचना या न पहुँच पाना उसे नैतिक ’पाप’ का भागीदार बनाता। लेकिन यह भी था कि आजका अपना वाला ये दौर गाँव वाले उस घर-परिवार की क्षितिज पर दस्तक देने लगा था। कई बार भाईजी, भाई या भइया लोग ऐसे ’पाप’ का भागीदार हो जाया करते। हालाँकि उनके पास इस ’पापग्रस्तता’ को लेकर वाज़िब कारण और अकाट्य तर्क हुआ करते। जिनमें नौकरी की ज़िम्मेदारियों से ’छुट्टी’ न मिलने से लेकर बच्चों के ’इस्कूल’ से ’अवकाश’ न मिल पाना भी हुआ करता था। कहीं ओहदा ’बड़ा’ हुआ तो उसको लेकर तारी हुई सचमुच की विवशता तो जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ ही बना देती थी। लेकिन, फिर भी, उनके उन वाज़िब कारणों और अकाट्य तर्कों के बावज़ूद दुआर की बैठकियों में ऐसों की अनुपस्थिति की मर्मांतक पीड़ा के साथ बार-बार चर्चा होती। मुखर चर्चा। दबी ज़ुबान में चर्चा। यानी ज़बदस्त चर्चा !

इन चर्चाओं का अंत अकसर बुज़ुर्ग़ों और बड़ों द्वारा उन अनुपस्थितों को ’अपने मन का’ होने या ’पगहा तुड़ाने की कोशिश’ करने को आतुर बोलते हुए मन भर मौखिक लानत भेजने के साथ होता। जो अकसर उन अनुपस्थितों से होता हुआ उनकी पत्नियों और आगे उनकी ससुराल तक जाता। ऐसी लानतों का सूत्र जवान हो चुके कुँवारे ’छोटे’ रस ले कर बखान करते फिरते। सच्चाई यह थी, कि ऐसे परोजन किसी एक का दायित्व नहीं हुआ करते। चाहे उन परोजनों का ’कारक’ कोई हो। तभी तो अनुपस्थितों का मौद्रिक कण्ट्रिब्यूशन बिना नागा अवश्य पहुँच जाता। जिसकी चर्चा बुज़ुर्ग़ और बड़े अकसर नहीं करते। वस्तुतः, उस दौर का पारिवारिक और सामाजिक ताना-बाना तबके समय और उसकी ज़रूरतों के अनुसार बुना हुआ था। अब जो कुछ दीखता है, वह अब की परिस्थितियों और इसकी आवश्यकताओं और व्यवस्थाओं के अनुसार है। 

 

आज जबकि परिवारों की वो 'वाइब्रेंट' पीढ़ी अपने संध्याकाल से गुजर रही है। कइयों के तो अपने-अपने सूरज डूब चुके हैं। तो कई प्रासंगिकता के पश्चिमी क्षितिज पर हैं, व्यतीत व्यवहारों और चर्चाओं की तमाम क्लिष्ट-अक्लिष्ट स्मृतियाँ और बच गये अपनों के अवशेष मन को गाहे-बगाहे झकझोरते रहते हैं। तब की घटनाओं और चर्चाओं का भौंचक निग़ाहों वाला अबोध-साक्षी खुद के वज़ूद को भी आज काल के मानकों पर कसा हुआ देख रहा है। गीत-नवगीत विधाएँ इन्हीं नम आँखों की ईज़ाद हुआ करती हैं। और, ऐसी ही नम आँखों से ये रस-प्राण पाती हैं।

 

मैं आज विकैरियसली अपने उसी दौर में चला गया हूँ, जब भरे-पूरे परिवार को अपनी तमाम धमक और सारी ठसक के बावज़ूद उसे यह भान नहीं हुआ करता था, कि, वैसा सारा कुछ, वैसा महौल, उस परिवार की आखिरी पीढ़ी जी रही है। उस बृहद परिवार के उस दौर के नन्हें-नन्हियाँ, मुन्ने-मुन्नियाँ अपने-अपने कर्मक्षेत्र में आज ज़िम्मेदार कार्मिक हैं। अपने-अपने ’परिवारों’ में सभी अपने तईं व्यस्त हैं, त्रस्त हैं, तो मस्त भी हैं। जीवन का यह दौर भी सभी तरह के स्याह-सफेद को लिए दुर्निवार है, अनवरत है। 

 

बेटियाँ आज इतनी बड़ी हो गयी हैं कि वे स्वयं ही निर्णय ले कर अपने अवकाश के दौरान तबकी ’बड़की भाभी’, आजकी अपनी दादीजी से भेंट करने उनके पास पहुँच गयी हैं। मरुआया हुआ मन फिर से हरा हो गया है। जबकि आज इसे पूरा भान है, यह सुखवास उस ’दौर’ के जीवंत प्राकट्य की प्रच्छाया मात्र है, जब परिवार भरा-पूरा होने की ठसक और अपनी तमाम धमक को बड़े गर्व से जीता था।
***
सौरभ

Views: 447

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Gajendra shrotriya on December 29, 2018 at 4:37pm

सादर अभिवादन आदरणीय। मन की भावदशा से उपजे इस स्वाभाविक शब्दचित्रण को पढ़कर  विगत स्मृतियाँ जीवंत हो उठी। हालाँकी वय और अवस्था के दृष्टिकोण से मेरा संचित अनुभव आपकी तुलना में काफी कम है ।और परम्पराओं के उत्थान-पतन का भी आप जितना साक्षी नहीं रहा हूँ। फिर भी मुझे लगता है कि शायद मैं गुज़रते वक्त की उस आख़री पीढ़ी से हूँ जिसने संयुक्त परिवार की सांस्कृतिक परम्पराओं का निर्वहन एक उन्नत सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत किया है। मेने भी वो समय अपने बचपन में देखा है जब किसी आयोजन प्रयोजन का सामूहिक प्रबंधन परिजनो द्वारा अच्छी सामाजिकता के साथ किया जाता था। सामाजिक पारिवारिक संबंधों में बिखराव के इस दौर में विगत की सुखद स्मृतियाँ ही मन को सुकून देती है। काश आने वाली पीढ़ियों को भी भरापूरा परिवार और उससे उपजी ठसक नसीब हो।

Comment by Samar kabeer on December 27, 2018 at 6:55pm

जनाब सौरभ पाण्डे साहिब आदाब,आपकी तहरीर इतनी तवील है कि इस समय इसे पढ़ना और समझना मेरे लिए मुमकिन नहीं है,तरही मुशायरे के बाद इसे ज़रूर पढूंगा ।

फिल्हाल इस प्रस्तुति पर मेरी तरफ़ से बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, प्रस्तुत छंदों की सराहना हेतु आपका हृदय से आभार. सादर "
1 minute ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। बहुत सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
1 hour ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"सरसी छंद *****मिट्टी  के  दीपों  की  जगमग,  दीपों  वाला …"
1 hour ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"सरसी छंद * शहरों  में  भी   गाँवों  जैसे, सजे  हाट…"
1 hour ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाशजी  दीपावली अन्नकूट भाई दूज और छठ की शुभकामनाएँ । छंद पर आपका प्रयास सराहनीय…"
7 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभाजी, दीपावली अन्नकूट भाई दूज और छठ की शुभकामनाएँ । खिल उठता है बुझा हुआ मन, आते जब…"
8 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश जी चित्रानुकूल बहुत सुन्दर छंद सृजन। हार्दिक बधाई "
8 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"वाह...दीपोत्सव के हर आयाम को समेट लिया है आपके इस गीत ने।अंतिम छंद का भाव बहुत सार्थक। हार्दिक बधाई…"
8 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
" आदरणीय चेतन प्रकाश जी जी एस टी का जिक्र रोचक बन पड़ा है। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ…"
8 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, दीपावली अन्नकूट भाई दूज और छठ की शुभकामनाएँ । सरसी छंद की बीस पंक्तियों के लिए…"
8 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। चित्रानुरूप सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
9 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"सरसी छंद +++++++++ हर बरस हर नगर में होता, अरबों का व्यापार।         …"
9 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service