For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६३

1222 1222 1222 1222

(मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)

जिन्हें भी टूट के चाहा वो पत्थर के सनम निकले
चलो अच्छा हुआ दिल से मुहब्बत के भरम निकले //1

उड़ें छीटें स्याही के, उठे पर्दा गुनाहों से
कभी तो तेग़ के बदले म्यानों से कलम निकले //2

हवा में ढूँढते थे पाँव अपने घर के रस्ते को
तेरी महफ़िल से आधी रात को पीकर जो हम निकले //3

तू मुझसे दूर होता जा रहा है दिन ब दिन चुपचाप
दुआ करता हूँ ये डर भी फ़क़त मेरा भरम निकले //4

तेरी ख़ू ए तग़ाफ़ुल ने मुझे भी सख़्त कर डाला
मेरी तुर्राबयानी में तेरे सब पेचोख़म निकले //5

लगी है आग शोलों के बिना पेट्रोल डीज़ल में
कि डॉलर के मुक़ाबिल हिन्द के रुपये भी कम निकले //6

मियाँ कश्मीर की वादी है ये, जन्नत गुनाहों की
यहाँ खेतों में फसलों की जगह बंदूक़-ओ-बम निकले //7

जो थे दारुल हिफाज़त बेसहारा औरतों के घर
वो सब अय्याश नेता के ठिकाने थे, हरम निकले //8

ये दुनिया देख ली हमने अज़ाबे ज़ीस्त में जलकर
पसे रहलत मिले जो भी ख़ुदारा वो इरम निकले //9

मेरे पावों से आ लिपटे कई दीगर मसाइल भी
कि सू ए यार की जानिब मेरे जब भी क़दम निकले // 10

हुए अजदाद की जागीर से बेदख्ल जो हम भी
कि ये अहसान भी अपनों के ही फ़ैज़ो करम निकले //11

रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा मरने का चखने को
न जाने किस घड़ी सीने से आख़िर कार दम निकले //12

न दे तू रिज़्क़ खाने को मगर ऐ मुफ़लिसी मेरी
पुराने ख़ुम से दो ही घूँट पीने को तो रम निकले //13

मज़ा आता नहीं है अब हमें सिगरेट पीने का
धुआँ बनकर जिगर से राज़ मेरे सारे ग़म निकले //14

~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"

(आवश्यक बदलाव के बाद एवं तीन नए अशआर के साथ) 

Views: 749

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 11:40am

आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब, आपके सुझावों के साथ तरमीम की हुई व दो नए अशआर के साथ पूरी ग़ज़ल, सादर. 

1222 1222 1222 1222

(मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)

जिन्हें भी टूट के चाहा वो पत्थर के सनम निकले
चलो अच्छा हुआ दिल से मुहब्बत के भरम निकले //1 

उड़ें छीटें स्याही के, उठे पर्दा गुनाहों से 
कभी तो तेग़ के बदले म्यानों से कलम निकले //2

हवा में ढूँढते थे पाँव अपने घर के रस्ते को
तेरी महफ़िल से आधी रात को पीकर जो हम निकले //3

तू मुझसे दूर होता जा रहा है दिन ब दिन चुपचाप
दुआ करता हूँ ये डर भी फ़क़त मेरा भरम निकले //4 

तेरी ख़ू ए तग़ाफ़ुल ने मुझे भी सख़्त कर डाला
मेरी तुर्राबयानी में तेरे सब पेचोख़म निकले //5

लगी है आग शोलों के बिना पेट्रोल डीज़ल में 
कि डॉलर के मुक़ाबिल हिन्द के रुपये भी कम निकले //6

मियाँ कश्मीर की वादी है ये, जन्नत गुनाहों की 
यहाँ खेतों में फसलों की जगह बंदूक़-ओ-बम निकले //7 

 

जो थे दारुल हिफाज़त बेसहारा औरतों के घर

वो सब अय्याश नेता के ठिकाने थे, हरम निकले //8

 

ये दुनिया देख ली हमने अज़ाबे ज़ीस्त में जलकर

पसे रहलत मिले जो भी ख़ुदारा वो इरम निकले //9


हुए अजदाद की जागीर से बेदख्ल जो हम भी 
कि ये अहसान भी अपनों के ही फ़ैज़ो करम निकले //10

रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा मरने का चखने को
न जाने किस घड़ी सीने से आख़िर कार दम निकले //11

न दे तू रिज़्क़ खाने को मगर ऐ मुफ़लिसी मेरी

पुराने ख़ुम से दो ही घूँट पीने को तो रम निकले //12

मज़ा आता नहीं है अब हमें सिगरेट पीने का 
धुआँ बनकर जिगर से राज़ मेरे सारे ग़म निकले //13  

 



~राज़ नवादवी

"मौलिक एवं अप्रकाशित"


Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 11:34am

जनाब समर कबीर साहब, दो अशआर और जोड़ रहा हूँ, सादर:

जो थे दारुल हिफाज़त बेसहारा औरतों के घर

वो सब अय्याश नेता के ठिकाने थे, हरम निकले

 

ये दुनिया देख ली हमने अज़ाबे ज़ीस्त में जलकर

पसे रहलत मिले जो भी ख़ुदारा वो इरम निकले

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 9:29am

आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. आपकी इस्लाह का  भी ह्रदय से आभार. 

 

१. सच है कि शब्द वह्म है. ये शेर हटा देता हूँ.

 

२. सिलाह का बहुवचन अस्लिहा اسلحہ है, हिन्दी में अंत में विसर्ग : आयेगा जो इसके उच्चारण को दीर्घ बनाता है है. इस ऐतबार से अस्लिहा-ओ-बम होगा, मगर फिर भी शेर बेबेह्र हो जाता है, चुनांचे इस शेर को भी हटाता हूँ. 

 

३. बेदख्ल शब्द के बारे में मालूमात थी, मगर बेदख़ल के प्रयक्त किये जाने के बारे में अपने शुबहे को मिटाना चाहता था, आपके बताई तरकीब से मिसरे को बदलता हूँ. 

 

४.  'रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा ए मौत चखने को'---- इसे  'रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा मरने का चखने को' ऐसा कर देता हूँ. मगर इज़ाफ़त कहाँ लगती है कहाँ नहीं, इसे थोड़ा और विस्तार से बताएं तो और भी मुफ़ीद होगा.

 

५. ‘आख़िर कार’ हो सकता है ‘आख़िर बार’ क्यों नहीं, कृपया थोड़ा और समझाएं ताकि वजह भी समझ में आ सके. फ़िलहाल, इसे शेर को भी आपके बताये अनुसार बदलता हूँ. 

 

सादर  

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 8:48am

आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 8:48am

आदरणीय नीलेश नूर साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 8:48am

आदरणीय ब्रिजेश कुमार साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 8:47am

आदरणीय अजय तिवारी साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2018 at 8:19am

आ. राज़ साहब,
अच्छे अशआर हुए   हैं... बाक़ी समर सर की टिप्पणी से मुझे  भी बहुत सीखने को मिला है 
सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 27, 2018 at 9:18pm

आ. भाई राज नवादवी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 27, 2018 at 8:08pm

वाह आदरणीय राज साहब बड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई..

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .इसरार
"आदरणीय सुशील सरना जी, आपने क्या ही खूब दोहे लिखे हैं। आपने दोहों में प्रेम, भावनाओं और मानवीय…"
6 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post "मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए शेर-दर-शेर दाद ओ मुबारकबाद क़ुबूल करें ..... पसरने न दो…"
6 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)
"आदरणीय धर्मेन्द्र जी समाज की वर्तमान स्थिति पर गहरा कटाक्ष करती बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने है, आज समाज…"
7 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर updated their profile
14 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। आपने सही कहा…"
Wednesday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"जी, शुक्रिया। यह तो स्पष्ट है ही। "
Sep 30
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"सराहना और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी"
Sep 30
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"लघुकथा पर आपकी उपस्थित और गहराई से  समीक्षा के लिए हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश जी"
Sep 30
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"आपका हार्दिक आभार आदरणीया प्रतिभा जी। "
Sep 30
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"लेकिन उस खामोशी से उसकी पुरानी पहचान थी। एक व्याकुल ख़ामोशी सीढ़ियों से उतर गई।// आहत होने के आदी…"
Sep 30
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"प्रदत्त विषय को सार्थक और सटीक ढंग से शाब्दिक करती लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय…"
Sep 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"आदाब। प्रदत्त विषय पर सटीक, गागर में सागर और एक लम्बे कालखंड को बख़ूबी समेटती…"
Sep 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service