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बाज़ुओं में ....

कौन रोक पाया है
समय वेग को
अपने गतिशील चक्र के नीचे
हर पल को रौंदता
चला जाता है
और लिख जाता है
धरा के ललाट पर
न मिटने वाली
दर्द की दास्तान

शायद
तुमने मेरे चेहरे की लकीरों को
गौर से नहीं देखा
तुमने सिर्फ
मुहब्बत के हर्फ़ पढ़े हैं
उन हर्फों को
बेहिजाब होते नहीं देखा
किर्चियों से चुभते हैं
जब ये हर्फ़
समय के अश्वों की
टापों के नीचे
बे-आवाज़ फ़ना हो जाते हैं

इससे पहले कि
मैं आईनें से
परहेज़ करने लगूँ
तुम चले आना

इससे पहले कि
मैं अपने चेहरे पर
वक़्त की परछाईयों को
जीने लगूं
तुम चले आना

इससे पहले कि
मैं गुजरे लम्हों की चादर ओढ़े
तारीकियों में ग़ुम हो जाऊं
तुम चले आना

इससे पहले कि

हयात
मुझसे खफ़ा हो जाए
तुम चले आना

मेरे हमसफ़र
इससे पहले कि
कोई लम्हा
हमारे हर लम्हे को
ग़ुमनामी की सौगात दे दे
तुम
मुझे
बढ़ा कर अपना हाथ
बाज़ुओं में समेट लेना

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on June 14, 2017 at 7:05pm

आदरणीय रामबली गुप्ता जी प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। 

Comment by रामबली गुप्ता on June 13, 2017 at 4:20pm
आद0 सुशील सरना जी आपकी अतुकान्त प्रस्तुतियां तो शानदार होती ही हैं। इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए हृदय से बधाई स्वीकारें। सादर
Comment by Sushil Sarna on June 11, 2017 at 12:09pm

आदरणीय  Mohammed Arif जी प्रस्तुति आपकी स्नेहिल प्रशंसा की आभारी है।

Comment by Mohammed Arif on June 10, 2017 at 9:50pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, बहुत ही भावपूर्ण सुंदर रचना । बधाई स्वीकार करें ।

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