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इन बन्ज़र आँखों में समंदर कल भी था और आज भी है
प्यास से मरना मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है

कोई इलाज-ए-ज़ख्म-ए-दिल वो ढूँढ न पाया आज तलक
बेबस का बेबस चारागर कल भी था और आज भी है

उसी राह से कितने मुसाफ़िर मंज़िल तक जा पहुँचे, मगर
उसी जगह पर राह का पत्थर कल भी था और आज भी है

अजल से लेकर आज तलक जाने कितनों की नींदें ठगीं
बदनामी का दाग़ चाँद पर कल भी था और आज भी है

दैर-ओ-हरम,दश्त-ओ-सहरा में मिलता भी कैसे उनको
वो जो बशर के दिल के अंदर कल भी था और आज भी है

वक़्त का मरहम भी "जय" इसको भरने में नाक़ाम रहा
दिल पे निशान-ए-ज़ख्म-ए-नश्तर कल भी था और आज भी है

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on February 12, 2017 at 12:14am

बहुत ही अच्छी गज़ल लिखी है, आदरणीय जयनित जी।

Comment by Gurpreet Singh jammu on February 10, 2017 at 7:47am
आदरणीय जयनित कुमार मेहता जी..नमस्कार....आपकी ग़ज़ल बहुत पसंद आई....बहुत ही रवानी में बहती गई है ग़ज़ल...और इस रदीफ ने तो इतना मन मोह लिया कि मैं इसी रदीफ पे ग़ज़ल कहने को आतुर हुआ जा रहा हूँ...आपने जो मतले के मिसरे में बदलाव किया है उसके बारे में जो मुझे मेहसूस हुआ वो यहाँ कहना चाहता हूँ...
"प्यास से मरना मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है"
इस में एक तो प्यास का "स" के ठीक साथ में दूसरा "स" कुछ सही नही लग रहा...क्या इसे ही ऐब-ए-तनाफुर कहते हैं....और दूसरा मुझे यह लगा कि अगर प्यास से कल मर ही गए तो फ़िर आज का ज़िक्र कैसे....
आदरणीय जयनित जी मैं अभी ग़ज़ल के क्षेत्र में नया हूँ...सिर्फ अपनी सीखने कि उत्सुकता के अधीन आ कर ही यह पूछ बैठा हूँ...अगर मैं कहीँ गलत हूँ तो क्रुप्या मुझे मुआफ कीजिएगा और मेरी शंका दूर कीजिएगा..
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:14pm
आदरणीय दिनेश जी, आपसे ऐसी प्रतिक्रिया पाना मेरे लिए बहुत हर्ष की बात है। आशीर्वाद बना रहे आपका। सादर।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:12pm
बहुत बहुत स्नेह है आपका आदरणीय आशीष यादव जी। हार्दिक धन्यवादी हूँ आपका।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:12pm
आदरणीय समर कबीर जी, आपके निरंतर मार्गदर्शन का ही परिणाम है कि अच्छी ग़ज़लें कह पाता हूँ। सादर धन्यवाद आपको।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:10pm
आदरणीय गुरप्रीत सिंह जी, हृदय तल से धन्यवाद आपको।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:09pm
आदरणीय मो० आरिफ़ साहब,बहुत बहुत शुक्रगुज़ार हूँ आपका।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:09pm
आदरणीय मिथिलेश जी, आप वरिष्ठजनों से जो कुछ सीखा उसी के आधार पर सतत प्रयास करते रहते हैं, ताकि हम भी कुछ अच्छा कह-लिख पाएं। और आपसे ऐसी प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हूँ। बहुत आशीर्वाद है आपका। सादर।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:06pm
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी, आपके उत्साहवर्धक टिप्पणी से हर्षित हूँ। व आपके संकेत पर मैंने उस मिसरे में संशोधन कर दिया है। हार्दिक धन्यवाद आपको।
Comment by दिनेश कुमार on February 9, 2017 at 9:03pm
बहुत ख़ूब। वाह वाह आ. जयनित भाई। लाजवाब ग़ज़ल हुई है।

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