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भारत में हर मास में, होता इक त्यौहार

केवल सावन मास है, पर्वों से भरमार |1|

 

रस्सी बांधे साख में,  झूला झूले नार

रिमझिम रिमझिम वृष्टि में, है आनन्द अपार |२|

 

जितने हैं गहने सभी, पहन कर अलंकार

साथ हरी सब चूड़ियाँ, बहू करे श्रृंगार |३|

 

काजल बिन्दी साड़ियाँ, माथे का सिन्दूर

और देश में ये नहीं, सब हैं इन से दूर |४|

 

कभी तेज धीरे कभी, कभी मूसलाधार

सावन में लगती झड़ी, घर द्वार अन्धकार |५|

 

दीखता रवि कभी कभी, जब है सावन मास

बहुत नहीं है रौशनी, मिलता नहीं उजास |६|

 

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Kalipad Prasad Mandal on August 9, 2016 at 6:03am

आपका आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी ! आपको पसन्द आया जानकर प्रेरणा मिली |

सादर  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 7, 2016 at 7:23pm

बहुत बढ़िया प्रयास हुआ दोहों पर सम सामयिक दोहे ..हार्दिक बधाई आद० कालिपद प्रसाद जी |

Comment by Kalipad Prasad Mandal on August 6, 2016 at 7:28pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,उत्साह वर्धन के लिए  हृदयातल से आभारी हूँ | छन्द के बारे में जो कुछ जाना आप ही के "छन्द विधान" से जाना | कृपया आगे भी मार्ग दर्शन करते रहिये | आश्विन मास के बारे में सोचा नहीं था | देखूँगा |

सादर  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 6, 2016 at 2:05pm

आपकी कोशिश के लिए हृदयतल से बधाइयाँ. 

पहले दोहे की तार्किकता तनिक शंका के घेरे में है. क्या आश्विन मास को देखा गया है कि वह अपनी गोद  में कितने पर्व-त्यौहारो को समेटे हुए है ? .. :-))

बहरहाल, आपकी कोशिश बनी रहे. इस हेतु पुनः मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ 

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