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परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए(ग़ज़ल 'राज')

221  2121  1221  212

 

उनके खजाने जैसे ही वोटों से भर गये                                                                                                                                       नकली लगे हुए वो मुखौटे उतर गये

आकाश में उड़े न उड़े फिक्र क्या उन्हें

,जाते हुए गरीब के वो पर कुतर गए

 

उनका उभर गया है जमीर आईने में क्या,

जो  लोग आज अक्स से अपने ही डर गए.

 

हर सिम्त दर्द-ओ-गम का समंदर उमड पड़ा,

माकूल हसरतों के जजीरे बिखर गए

 

मायूस ढूँढती फिरें सरहद की बुलबुलें,

अब देश भक्ति के वो तराने किधर गए.

 

गलती करें तो सोचते किसका पड़ा असर

,बच्चे हमारे अपने हैं तो अपने पर गए

 

वो दूसरों के अश्क सदा देखकर हँसे

,ठोकर जो जिन्दगी में मिली तो सुधर गए

 

करते रहे सितम पे सितम बे जुबानो  पर,

उनकी खुली जुबान तो क्यूँ कर अखर गए.

 

अपने मकाँ बना के बड़ा खुश हुआ बशर,

परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए.

 

रंगीनियाँ बिखेरती कातिल अदा से वो                                                                                                 सैय्याद की गिरफ्त में सारे हुनर गए.

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on November 4, 2015 at 8:37am

आ० श्री सुनील जी ,आपको ये अशआर पसंद आये दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया .

Comment by shree suneel on November 3, 2015 at 10:31pm
करते रहे सितम पे सितम बे जुबानो पर,
उनकी खुली जुबान तो क्यूँ कर अखर गए.... बहुत बढि़या

अपने मकाँ बना के बड़ा खुश हुआ बशर,
परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए.... व्वाहह वाकई उम्दा शे'र बहुत ख़ूब
बधाई आपको आदरणीया, इन अशआर के लिए.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 3, 2015 at 8:09pm

आ०  गिरिराज जी,आपको  ग़ज़ल अच्छी लगी मेरा लिखना सफल हुआ हार्दिक आभार आपका  


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Comment by गिरिराज भंडारी on November 3, 2015 at 6:13pm

आदरणीया राजेश जी , अच्छी गज़ल कही है , दिली मुबारकबाद कुबूल करें ।

अपने मकाँ बना के बड़ा खुश हुआ बशर,

परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए.  -- इस शेर के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 3, 2015 at 9:53am

आपके कहने  के अनुसार  ग़ज़ल को एडिट किया है आ० मनन जी  तथा अनुस्वार  भी हटा  दिए  हैं  | इस्स्लाह  के लिए मिथिलेश भैया ,आ०  रवि शुक्ल जी व्  आपका तहे  दिल  से  शुक्रिया.  

Comment by Manan Kumar singh on November 2, 2015 at 8:54pm
मेरा भी आशय अनुस्वार से ही था राजेश कुमारी जी।हाँ,क्यूँ आखर गए पुल्लिंग की तरफ इंगित करता है,जुबान की तरफ नहीं;मेरा अहि आशय था।विशेष तौर पर आप को जो माकूल लगे।

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Comment by rajesh kumari on November 2, 2015 at 8:27pm

हाँ,मायूस ही रहना चाहिए मायूसं नहीं,मात्रा भी बाधित हो रही है और शुद्धि भी ??? आ० मनन कुमार जी ,मैं आपके कहने का आशय नहीं समझ पाई मायूस में कहाँ मात्रा बाधित हो रही है मायूस को २२१ में ही बाँधा है कृपया बताएं शुद्धि में कहाँ गड़बड़ है ?? इसे पोस्ट को करने में कुछ तकनीकि गड़बड़ हुई  कहीं कहीं बिंदु खुद ब खुद लग गए अशआर भी आगे पीछे हो गए आपका मतलब  बिंदु से है अर्थात मायूसम कोई शब्द ही नहीं होता उसे लेने का क्या लोजिक होगा इतना तो आप भी समझ सकते हैं आप इसे टंकण त्रुटी भी कह सकते थे | दूसरी बात अखर गए इसमें क्या  अर्थ बाधा आपको प्रतीत हुई मैं नहीं समझ पा रही हूँ ---उसकी खुली जुबान तो क्यूँ कर अखर गए----अर्थात उनका बोलना क्यूँ बुरा लगा ?  आपका बहुत- बहुत शुक्रिया 

Comment by Manan Kumar singh on November 2, 2015 at 8:12pm
अच्छी गजल,भावों से ओत-प्रोत आदरणीया।हाँ,मायूस ही रहना चाहिए मायूसं नहीं,मात्रा भी बाधित हो रही है और शुद्धि भी;फिर 'उनकी खुली जुबान तो .....अखर गए' कुछ अर्थ-बाधा प्रतीत होती है,वैसे आप खुद देख लें,बहुत बहुत बधाई आपको।

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Comment by rajesh kumari on November 2, 2015 at 7:17pm

आ० डॉ ० आशुतोष जी ,आपको ग़ज़ल के अशआर पसंद आये मेरा लिखना सार्थक हो गया आपका तहे दिल से बहुत- बहुत आभार |


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Comment by rajesh kumari on November 2, 2015 at 7:16pm

आ० रवि शुक्ल जी ,आपकी शेर दर शेर समीक्षा से उत्साहित हूँ आपकी इस्स्लाह भी स्वागत योग्य है ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ ..दरअसल ये एक फिलबदीह ग़ज़ल थी जो सिर्फ दर पंद्रह  मिनट में लिखी थी जो जैसी की तैसी ही पोस्ट कर दी अपनी मूल प्रति में अवश्य संशोधन कर लूँगी बहुत- बहुत आभार |

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