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गज़ल....खार रचता आदमी....

बह्र... 2122   2122   212

खुद को खुद से कब समझता आदमी.

जीत  कर  जब  हार  कहता  आदमी

मौन  में  संजीवनी  तो  है  मगर

मैं हुआ कब चुप अकडता आदमी.

आस्मां के पार भी खुशियां  दुखी,

हर कदम पर शूल सहता आदमी.

फूल-कलियां मुस्कराती हर समय,

देवता  को    भेंट   करता   आदमी.

आदमी  ही  आदमी  को  पूजता,

आचरण पशुता अखरता आदमी.

प्यार  में   सम्वेदना   करुणा   बहुत,

कीट, खग, पशु हित विलखता आदमी.

धर्म "सत्यम" के शिवा कुछ भी नहीं,

मैं, अहम  वश  खार रचता  आदमी.

के0पी0 सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 30, 2015 at 11:01pm

आ0 लडीवाला भाईजी,    आपका तहेदिल से शुक्रिया ...आभार.....सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 30, 2015 at 10:59pm

आ0 भंडारी भाई जी,   गज़ल पर विशद तर्कसंगत विवेचना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया ...आभार.   गज़ल की बारीकियो तक मेरी पहुंच  अभी नही बन पाई है....फिर भी अपनी समझ के अनुसार प्रयासरत हूं. बिना आप लोगो के यह सब सम्भव नहीं हो सकेगा.

मौन  में  संजीवनी  तो  है  मगर     --

कब हुआ चुप  बस अकडता आदमी.     -- उला मे आये मगर शब्द के भाव  के अनुसार, कौन सा भाव  सानी मे हो , पहले वाला या मै                                                         जो कह रहा हूँ अभी वो ॥.............. " मैं " सर्वनाम  और  क्रिया विशेषण दोनो के लिये  ही                                                            प्रयुक्त हो रहा है. इसलिये मेरे हिसाब से पहले वाला ही सही है.

आदमी  हो, पूज्य  लगता आदमी 

किंतु पशुता  हो , अखरता आदमी.      ---  रचना कार के भावों तक पहुँचना आसान नहीं होता , फिर भी अगर कुछ सही लगे तो स्वीकार कीजिये ,----------गेयता नही  आ रही  है.........पहले वाला ही  सही है.

हाँ एक बात और जो पहले भूल गया था  -- 

मैं, अहम  वश  खार रचता  आदमी.      ---  मै और अहम एक ही भाव के शब्द हैं........आपने बिल्कुल सही कहा .  मैं सहमत हूँ.

 

पर , अहम  वश  खार रचता  आदमी.    --- ऐसा करें तो  ? सोचियेगा ।  .....बहुत ही सुंदर भाव....शुक्रिया आभार. सादर

 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 28, 2015 at 11:31am

बहुत सुंदर  और भावरण  गजल ले लिए बधाई  श्री केवल प्रसाद जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 28, 2015 at 11:17am

आदरणीय केवल भाई , भाव और तार्किकता को समझाना मुश्किल काम होता है , फिर भ्र्र उदारण दे के प्रयास कर रहा हूँ , उला को सानी का कौन भाव संतुष्ट कर रहा है , मेरी समझ में --

मौन  में  संजीवनी  तो  है  मगर     --

कब हुआ चुप  बस अकडता आदमी.     -- उला मे आये मगर शब्द के भाव  के अनुसार सोचियेगा , कौन सा भाव  सानी मे हो , पहले वाला या मै जो कह रहा हूँ अभी वो ॥

आदमी  हो, पूज्य  लगता आदमी 

किंतु पशुता  हो , अखरता आदमी.      ---  रचना कार के भावों तक पहुँचना आसान नहीं होता , फिर भी अगर कुछ सही लगे तो स्वीकार कीजिये ,

हाँ एक बात और जो पहले भूल गया था  -- 

मैं, अहम  वश  खार रचता  आदमी.      ---  मै और अहम एक ही भाव के शब्द हैं

 

पर , अहम  वश  खार रचता  आदमी.    --- ऐसा करें तो  ? सोचियेगा ।  

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 28, 2015 at 10:26am

आ0 वामनकर भाई जी,  आपका हार्दिक आभार. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 28, 2015 at 10:26am

आ0 जान भाई जी,  आपका हार्दिक आभार. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 28, 2015 at 10:25am

आ0 भन्डारी भाई जी,  आपका हार्दिक आभार.  भाई जी मैं समझ नही सका तनिक और स्पष्ट करें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 4:19am

आदरणीय सत्यम जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई आपको

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 26, 2015 at 9:15pm

मौन  में  संजीवनी  तो  है  मगर

मैं हुआ कब चुप अकडता आदमी  वाह वाह !

सुन्दर गज़ल हुयी है आदरणीय केवल सर! बधाई!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 25, 2015 at 9:48pm

आदरणीय केवल भाई , गज़ल खूब सुन्दर हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ गज़ल के लिये ।  तार्किकता के लिहाज़ से चाहें तो शे र न. 2 और शे र न. 5 को आप और देख सकतें हैं ॥

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