२१२२/२१२२/२१२
 सादगी से  घर  सँभाला कीजिए
 लालसा को मत उछाला कीजिए।१।
 *
 यह धरा  तो  रौंद  डाली  जालिमों
 चाँद का मुँह अब न काला कीजिए।२।
 *
 करके सूरज से उधारी आब की
 चाँद से कहते उजाला कीजिए।३।
 *
 जब नया देने की कुव्वत ही नहीं
 मत फटे में  पाँव  डाला कीजिए।४।
 *
 गर तबीयत  जाननी  है  देश की
 सबसे पहले ठीक आला कीजिए।५।
 *
 चाँद तारे सिर्फ महलों को न दो
 झोपड़ी में भी उजाला कीजिए।६।
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
 मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आ. भाई ब्रिजेश जी, गजल की सराहना के लिए धन्यवाद।
बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय...
आ. भाई आज़ी तमाम जी, अभिवादन। गजल पर उपस्थिति सराहना व टंकण त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।
लेकिन "की" सही है ।
सादर प्रणाम आदरणीय धामी सर
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है
जब नया देने कि कुव्वत ही नहीं...... गौर कीजियेगा शायद
गलती से कि को की व कुव्वत को कुब्बत लिख गया है
सादर
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