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अथिति देबोभवा

पहले की सोच

अथिति होता था भगवान्

घर में होती थी खुशियाँ

और बनते थे पकबान

बदला अब परिवेश और

 बदल गई हे सोच

इस्नेक्स में सिमट गया

पहले का प्रीतभोज

प्रथम दिवश तो गर्मजोशी से

 होती खातिरदारी

दुतीय दिवश से आवभगत में

चलने लगती आरी

कल तो खाए मालपुए

रसगुल्ले मैसुरपाग

आज पतली दाल हे

और कद्दू की साग

कद्दू की साग होता

जाने का निवेदन

क्योंकि कमर तोड़ महगाई में

 कम पड़ता हे बेतन

तृतीय दिवश पूंछा जाता

क्या खिचड़ी खाओगे

अतिथि देवो भव चुके

किस गाड़ी से जाओगे

एह्तेयातन होती दुआर पर

तख्ती या दरवान

आगंतुक या मेहमान

हम कुत्तों से सावधान

Dr.Ajay Khare

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Comment by अरुन 'अनन्त' on December 16, 2012 at 1:13pm

सर त्रुटियों के कारण रचना का मज़ा किरकिरा हो रहा है,  सर यह सिर्फ मेरा मानना है इसे अन्यथा न लें सादर

Comment by Dr.Ajay Khare on December 16, 2012 at 10:13am

Adarniya bagi ji abhi suruaat he aap sabhi ke margdarshan and prerna se nikhaar aayega bas aap isi tarah kaan khichte rahiye danyabaad


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 16, 2012 at 10:09am

हड़बड़ी में गड़बड़ी

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 15, 2012 at 8:10pm

यही है आधुनिक महमान बाजी

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