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आसमां परिंदो का

मन कहता है
आसमां में चलो
दिमाग कहता है
चले आसमां में
तो गिर जाओगे
दिल और दिमाग ने
किया मिलकर मंथन और
कर दिया फैसला
जिंदगी की मेरी
संभल कर चलो
जमीन पर
पहुंच जाओगे मंजिल पर
न पालों ख्‍वाहिश
आसमां में उडने की
क्‍योंकि
जमीं तुम्‍हारी
आसमां परिंदो का
अपनी हद में रहो
उडने दो उन्‍हें भी
खुले आकाश में
फिर देखा है न
आसमां में उडने वाले को
उन्‍हें भी आना होता है
अपनी जमीं पर
इसलिए
मान लिया मैंने
फैसला दोनों का
आसमां को छोड
जमीन देख रहा हूं
जहां पर बना लूं
अपने ख्‍वावों का आशियां.

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on March 30, 2012 at 7:18am

हरीश जी, पंख निकल आयें तो चीटियाँ भी आसमान में उड़ने की ख्वाहिशें पाल लेती हैं.मगर हश्र सबने देखा है. सुन्दर रचना बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 29, 2012 at 8:09am
आसमां में उडने वाले को
उन्‍हें भी आना होता है
अपनी जमीं पर
इसलिए
मान लिया मैंने
फैसला दोनों का
आसमां को छोड
जमीन देख रहा हूं
जहां पर बना लूं
अपने ख्‍वावों का आशियां....bahut prabhaavit karti panktiyan apni had me hi khush rahna chahiye.bahut umda bhaav rachna ke.bahut khoob.
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on March 29, 2012 at 5:21am
 आदरणीय हरीश भट्ट साहब बहुत अच्छा फैसल लिया आपने
अपना आशियाँ जमीं पर बनाया, कुछ ख्वाब हमें भी बताइए!
मुझे भी अपना हम सफ़र बनाइये!
च्छे अबिब्यक्ति लगी आपकी ! बधाई! 
Comment by Harish Bhatt on March 29, 2012 at 1:44am

आदरणीय प्रदीप जी और महिमा जी कविता पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्‍यवाद.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 28, 2012 at 7:58pm

aadrniya harish ji vastav mai sundar kriti, anand aa gaya.badhai.

Comment by MAHIMA SHREE on March 28, 2012 at 4:11pm
आसमां को छोड
जमीन देख रहा हूं
जहां पर बना लूं
अपने ख्‍वावों का आशियां....वाह !! जमीनी सोच को दर्शाती आपकी रचना..हमे अपनी जड़ो की और देख मजबूती से खड़े होने का सन्देश देती है......बहुत-२ बधाई हरीश सर...

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