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तुम्हारे लिए

 

खुद हो के बेरंग, क्यों दुनिया के लिए रंग लाती हो ?

अपनी मंज़िल भूलकर, क्यों दूजे की राह सजाती हो ?

जो बीत गया वो फिर लौट के न आनेवाला

यकीन कर लो मेरा, क्यों अपनी जान जलाती हो ?

सच तुम कहती हो ये दुनिया बड़ी मतलबी है

मैने देखा तुमने देखा, क्यों बीती बात जगाती हो ?

मिलना - बिछड़ना  है  किस्मत की आँख- मिचोली  

स्वीकार कर लो यही बेहतर, क्यों नैनो को रूलाती हो ?

सफ़र ख्वाब का कभी रुका नहीं, रोज नये रूप मे मिलता  

सत्य यही जीवन का है, क्यों  नयी सुबह ठुकराती हो ?

(कृति - बब्बन जी, २५ जून २०१३, सेवाग्राम )

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मौलिक एवं अप्रकाशित

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Views: 378

Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on June 29, 2013 at 4:46pm

बहुत ही सुंदर व मर्मस्पर्शी रचना....................

Comment by Sumit Naithani on June 28, 2013 at 3:54pm

मिलना - बिछड़ना  है  किस्मत की आँख- मिचोली  

स्वीकार कर लो यही बेहतर, क्यों नैनो को रूलाती हो ?...बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ 

Comment by Priyanka singh on June 28, 2013 at 2:31pm

सुंदर.....आपको बधाई !

Comment by विजय मिश्र on June 28, 2013 at 1:09pm
सांत्वना भरे मीठे उलाहनों से भरी मानवीय संबंधों को दुलारती-पुचकारती एक मन बाँधने और ढाढस बँधाने वाली सुंदर कविता . कविवर ! बधाई .
Comment by रविकर on June 28, 2013 at 9:45am

बहुत बढ़िया आदरणीय-

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 27, 2013 at 10:16pm
"खुद हो के बेरंग, क्यों दुनिया के लिए रंगलातीहो ?

अपनी मंज़िलभूलकर, क्यों दूजे की राह सजाती हो ?

जो बीत गया वो फिर लौटके न आनेवाला

यकीन करलो मेरा, क्यों अपनी जानजलाती हो ?"...आदरणीय..डा.बब्वन जी, भावनाओ से ओतप्रोत वास्तविकता ली हुई पंक्तियां..शुभकामनाऐं
Comment by वेदिका on June 27, 2013 at 9:44pm

बढ़िया प्रयास पर बधाई!! 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 27, 2013 at 7:46pm

आ0 बब्बन भाई जी, ’सफ़र ख्वाब का कभी रुका नहीं, रोज नये रूप मे मिलता
सत्य यही जीवन का है क्यों नयी सुबह ठुकराती हो?’.....बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by D P Mathur on June 27, 2013 at 7:19pm

खुद हो के बेरंग, क्यों दुनिया के लिए रंग लाती हो ?
अपनी मंजिल भूलकर, क्यों दूजे की राह सजाती हो ?
आदरणीय बब्बन जी नमस्कार ,सीख भरी इस सुन्दर रचना के लिए आपको बधाई !

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