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 मुझसे ऐ जान-ए-जानाँ क्या हो गई ख़ता है 
 जो यक-ब-यक ही मुझसे तू हो गया ख़फ़ा है 
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 कुछ भी नहीं है शिकवा कुछ भी नहीं शिकायत
 क़िस्मत में जो है मेरे  वो मुझको मिल रहा है 
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 आंखों में नींद रुख़ पर गेसू बिखर रहे हैं 
 हिज्र-ए-सनम में शायद वो जागता रहा है 
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 शाख़-ए-शजर हैं सूखी मुरझा गई हैं कलियाँ 
 गुलशन हुआ है वीरां कैसा ग़ज़ब हुआ है 
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 इक पल में रूठ जाना इक पल में मान जाना 
 उसकी इसी अदा ने दीवाना कर दिया है 
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 जब है सज़ा सुनाई दार-ओ-रसन की हमको 
 फिर पूछते हो क्यूँ अब ख़्वाहिश हमारी क्या है 
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 तेरी ख़ुशी में ख़ुश हूँ ग़म में तिरे परेशाँ 
 मर्ज़ी है जो भी तेरी  मेरी वही रज़ा है 
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 दार-ओ-रसन =सूली फाँसी 
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सलीम रज़ा साहब आदाब,
बहुत ही बेहतरीन अश'आरों से सजी ग़ज़ल । हर शे'र बढ़िया । दीली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
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