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आँखों देखी 9 एक बार फिर डॉक्टर का चमत्कार

आँखों देखी 9  एक बार फिर डॉक्टर का चमत्कार

    हम लोगों के लिए 21 जून 1986 का दिन एक यादगार दिन बनकर रह गया है. आज शीतकालीन दल के वे चौदह सदस्य न जाने कहाँ-कहाँ बिखरे हुए हैं लेकिन उस दिन की स्मृति हम सबके दिल में अपना स्थायी आसन बिछा चुकी है. सुबह से ही मंच आदि को अंतिम रूप दिया जा रहा था. जो नाटक और गायन में अपना योगदान दे रहे थे उनका रिहर्सल देखते ही बनता था. चूँकि दल का रसोईया पूरे कार्यक्रम में अहम भूमिका निभा रहा था, रसोई का दायित्व उन पर छोड़ दिया गया जो कार्यक्रम में सक्रिय अंश नहीं ले रहे थे. फिर भी विदेशी अतिथियों के लिये कुछ तैयारी रसोईये ने पिछली रात को स्वयं ही कर ली थी.


    सुबह अपने स्टेशन से चलकर रूसी और जर्मन दल के लगभग दस सदस्य देर दोपहर हमारे यहाँ पहुँच गये. बहुत दिनों बाद कुछ और इंसानों को सामने देखकर जो भावनाएँ उमड़ीं हमारे मन में उसे केवल अनुभव किया जा सकता है, उस खुशी का वर्णन करना सम्भव नहीं. शाम को कार्यक्रम शुरु हुआ. टेबल टेनिस मेज़ को हटाकर वहाँ मंच बनाया गया था और लाउंज के बाकी हिस्से में कुर्सियाँ और सोफ़े लगाकर प्रेक्षागृह का रूप दिया गया था. लगभग चार घन्टे के कार्यक्रम के दौरान अतिथिगण स्तब्ध होकर देखते रहे कैसे भारतीय अपनी संस्कृति को जीते हैं और कैसे मनोरंजन का अर्थ हमारे लिये मात्र खाना और पीना ही नहीं होता. हर आईटम के पहले हिंदी तथा रूसी भाषा में उसके विषयवस्तु को समझा दिया जा रहा था. फलत: अतिथियों ने कार्यक्रम का पूरा आनंद लिया. सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद हमलोगों ने उनके साथ शतरंज, कैरम और टेबल टेनिस खेला. उपहारों का आदान-प्रदान हुआ. फिर सब लोग रेडियो रूम में गये और अंटार्कटिका के दूसरे, दूर दराज स्टेशनों से सम्पर्क स्थापित किया गया. यह हमारे लिये सम्मान की बात थी कि ठीक Mid Winter Day में हमारे कार्यक्रम में उपस्थित रहने के लिये रूसियों ने अपने स्टेशन के कार्यक्रम को एक-दो दिन इधर-उधर कर लिया था.


    हम “पोलर मैन” बनकर खुश थे. शीतकालीन अंटार्कटिका अब करवट बदल रहा था और हमारा लक्ष्य था वह दिन जब दो महीने का अंधकार भेद कर सूर्य की पहली किरण फिर “दक्षिण गंगोत्री” के छत पर पड़ेगी. अच्छे - बुरे मौसम के बीच हम आशान्वित थे कि हमें आकाश में ‘ऑरोरा ऑस्ट्रैलिस’ (Aurora Australis) दिखेगा. लेकिन अफ़सोस, उस दैवी प्रकाश की क्षणिक झलक के अतिरिक्त हमें कुछ भी देखने को नहीं मिला.
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15 जुलाई 1986 के आसपास का समय था जब आकाश को हमने खूनी लाल होते देखा. मुझे लगा कुछ घंटे में सूर्योदय होने वाला है लेकिन पूरे एक सप्ताह तक सुबह के समय लाल रहने के बाद एक सुबह सूर्य की पहली झलक दिखाई दी. दिवाकर का पीला चक्र पूरी तरह क्षितिज के ऊपर नहीं आ सका और पांच-सात सेकण्ड के दर्शन के बाद फिर क्षितिज के पीछे ही कहीं खो गया. यह दिन और यह अनुभव हमारे लिये विशेष महत्व का था. अगले दिन सुबह वही दृश्य लेकिन इस बार लगभग एक मिनट तक सूर्य क्षितिज की प्राचीर पर झूलकर पृथ्वी पर ताक-झाँक कर रहा था. तीसरे दिन ही वह ज़ोर लगाकर प्राचीर पर चढ़ बैठा और अपनी दीप्ति से अंटार्कटिका को उद्भासित करता रहा कई मिनट तक. इस प्रकार सूर्योदय और फिर सूर्य का आकाश के आंगन में उछलकर इतना ऊपर उठ जाना कि क्षितिज उसे छूने के लिये लालायित हो उठे – ये दृश्य देख पाना हम लोगों के जीवन की महान उपलब्धि है.


    सूर्योदय के साथ ही तापमान बढ़ने लगा और माईनस 40-45° सेल्सियस से हम माईनस 25-30° सेल्सियस के दायरे में आ गए. पसीना तो नहीं छूटा लेकिन मन मानो किसी कारागार की दीवार तोड़कर दौड़ने लगा. स्टेशन के बाहर हम अधिक समय बिताने लगे. पूरे क्षेत्र की साफ़ सफ़ाई की गयी. गाड़ियों को गैराज से निकाल कर उन्हें यात्रा के लिये तैयार किया जाने लगा और टहलने के लिये हम स्टेशन से काफ़ी दूर तक निकलने लगे. हाँ, हमेशा यह नियम माना जाता था कि कोई अकेले न जाए, स्टेशन में कम से कम एक सदस्य को पता रहे कि कौन बाहर जा रहा है और कितनी देर में वापस आएगा. बाद में एक रजिस्टर रख दिया गया. जो बाहर जाता उसमें लिखकर जाता कि किस दिशा में जा रहा है, कितने बजे और कितनी देर के लिये. कोशिश यही रहती कि बाहर जाने वाले को एक वॉकी-टॉकी सेट दे दिया जाए जिससे वह स्टेशन के साथ सम्पर्क बनाए रख सकता था.


    हमारी ही तरह रूसियों के तेल के टैंकर और अन्य बड़े भण्डार आईस शेल्फ़ के किनारे रहते थे जहाँ जहाज़ उन्हें उतार कर जाता था. हम लोग अपनी आवश्यक्ता के अनुसार उन्हें गाड़ियों में अथवा स्नो-स्कूटर के पीछे स्लेज पर लादकर समय समय पर शेल्फ़ से अपने स्टेशन ले आते थे. अंटार्कटिका में यह काम महत्वपूर्ण तो है ही, साथ ही अभियान दलों की व्यवहार कुशलता, अंटार्कटिका को समझने की शक्ति, साहस, धैर्य और प्रबंधन कुशलता की अग्नि-परीक्षा भी है. हमारा स्टेशन शेल्फ़ में किनारे से मात्र 15 कि.मी. दूर था. अत: हमारे लिये यह काम थोड़ा आसान था. लगभग सौ किलोमीटर दूर से रूसियों का वहाँ आना इतना आसान नहीं था. इस प्रकार भण्डार को लाने ले जाने की प्रक्रिया उन दो महीनों में बंद रहती थी जब चौबीस घंटे अँधेरा रहता था. इसीलिए जुलाई के अंत में सूर्योदय होना शुरु होने के साथ ही ‘कॉन्वॉय’ ले जाने का सिलसिला शुरु हो जाता था. फिर नवम्बर के महीने से कई जगह सतही बर्फ़ पिघलने लगती थी. फलस्वरूप उस पर गाड़ी चलाना कठिन हो जाता. प्राय: रास्ते में बर्फ़ धँस जाने से और कहीं कहीं उनमें पानी का बहाव होने से भी गाड़ियाँ फँस जाती थीं. इसलिये गाड़ियों से अधिकतर काम अगस्त से ऑक्टोबर, इन तीन महीनों में ही लिया जाता था या फिर जनवरी के बाद जब सूर्यास्त होना शुरु होता है और तापमान गिरने लगता है. इसी प्रक्रिया के अंतर्गत रूसियों ने शेल्फ़ के कई चक्कर लगाए. हम लोगों का सामान जहाँ रखा था वह स्थान India Bay कहलाता था. वहाँ से थोड़ा पश्चिम की ओर रूसियों के भंडार का अड्डा था जिसे Russian Bay कहा जाता था. आज भी ये नाम प्रचलित हैं और इसी प्रकार उन स्थानों का उपयोग होता है.


    सम्भवत: सितम्बर 1986 के मध्य का समय – एक दिन अचानक हमारे रेडिओ ऑफ़ीसर के पास रूसी स्टेशन ‘नोवो’ से वार्ता आयी कि उनके डॉक्टर हमारे डॉक्टर के साथ ज़रूरी बात करना चाहते हैं. स्पष्ट था कि कोई बीमार था उनके यहाँ. हमारे रेडिओ ऑफ़ीसर जो भारतीय नौ सेना के अधिकारी थे, रूसी भाषा में दक्ष थे. उन्होंने दुभाषिये का काम किया. पता चला कि रूसियों का जो कॉनवॉय शेल्फ़ में उस समय गया हुआ था उस दल का एक सदस्य ‘अपेंडीसाईटिस’ रोग से पीड़ित था और उसे ज़बर्दस्त तकलीफ़ थी. हमारे डॉक्टर वास्तव में भारतीय थल सेना में शल्यचिकित्सक थे. उन्होंने सुझाव दिया कि पीड़ित को जल्दी से जल्दी दक्षिण गंगोत्री स्टेशन ले आया जाए क्योंकि उस समय रूसी कॉनवॉय हमसे मात्र 20-25 कि.मी. दूर था. इधर डॉक्टर ने तुरंत हमारे स्टेशन के एक अंश को कुछ समय के लिये ऑपरेशन थिएटर में परिवर्तित करने की तैयारी शुरु कर दी. स्टेशन में छोटे ऑपरेशन के लिये दवाएँ और औजार आदि सभी सुविधाएँ थीं. डॉक्टर स्वयं शल्यचिकित्सक थे लेकिन सबसे बड़ी कमी थी स्थान की और एक ऐसे प्रशिक्षित सहयोगी की जो ऑपरेशन के दौरान डॉक्टर की सहायता कर सके. हमारे रेडिओ ऑफ़ीसर और रसोईये को उन्होंने शुरु से ही उनकी सहायता के लिये कुछ-कुछ प्रशिक्षण दिया था लेकिन ऑपरेशन के लिये वे प्रशिक्षित नहीं थे. ख़ैर, उन्होंने रेडिओ ओफ़ीसर को ही चुना और दोनों ने मिलकर तीन-चार घंटे में सब तैयार कर लिया. अंतर्राष्ट्रीय मामला था, परिस्थिति कठिन थी इसलिये हम सभी सशंकित थे. लेकिन रूसियों के आने में देर हो रही थी. पता चला कि वे तब तक हमारे यहाँ आकर हमारी सहायता नहीं ले सकते जब तक मॉस्को से उनकी सरकार इसकी अनुमति न दे. याद रखना होगा कि तदानीन्तन यू.एस.एस.आर. में कम्यूनिस्ट शासन था. ऐसी आकस्मिक परिस्थिति में भी उनके कठोर नियमों का पालन करना अनिवार्य था. ’नोवो’ ने अंटार्कटिका में उनके सबसे बड़े स्टेशन ‘मोलोडेज़्नाया’ (Molodezhnaya) को सारी बात समझाकर वार्ता भेजी. ‘मोलो’ ने रूस में सम्बंधित अधिकारियों को सूचित किया. फिर वहाँ से उसी रास्ते अनुमति आते-आते क़रीब आठ घंटे लग गए. रूसी कॉनवॉय दल हमारे स्टेशन के नज़दीक आकर इसी अनुमति की प्रतीक्षा कर रहा था. अनुमति मिलते ही वे बीस मिनट के अंदर पहुँच गये और तुरंत पीड़ित को लेकर डॉक्टर, हमारे रेडिओ ऑफ़ीसर और रूसी दल का एक सदस्य अस्थायी ऑपरेशन थिएटर में चले गये.


हम सभी लोग काफ़ी उत्तेजित थे. रूसी स्टेशन लगातार हमसे सम्पर्क बनाए हुए था और ख़बर ‘मोलो’ होते हुए सीधे मॉस्को तक पहुँच रही थी. डर यही था कि कहीं डॉक्टर की तैयारी में कोई कमी न रह गयी हो, किसी तरह का इंफ़ेक्शन न हो जाए, आदि आदि. ऑपरेशन में कितना समय लगा था नहीं याद है लेकिन जब वे ऑपरेशन थिएटर से बाहर आए तो उनके चेहरे पर एक संतोष था. हम सब ने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि एक बड़ी परीक्षा में भारतीय स्टेशन सफल हो गया था. हमने डॉक्टर और उनके सहायकों की पीठ ठोंकी तो उन्होंने और कुछ देर हमें रुकने के लिए कहा. जब तक पीड़ित रूसी ऐनिस्थीसिया के असर से बाहर नहीं आ गया, किसी तरह की खुशी नहीं मनायी गयी थी. ऑपरेशन पूरी तरह सफल हुआ था. सात दिन तक रूसी को उसके एक सहयोगी के साथ हमारे स्टेशन में रहने दिया गया. डॉक्टर ने उसे तभी छोड़ा जब वह ‘नोवो’ तक की यात्रा करने योग्य हो गया. भारतीय दल के लिये, विशेषकर हमारे डॉक्टर के लिये रूसी स्टेशन ‘नोवो’ व ‘मोलो’ से आभार संदेश आए. रूसी सरकार ने भी धन्यवाद व्यक्त किया. दिल्ली से भारतीय सेना के मुख्यालय और भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों से बधाई संदेश आए. भारत और रूस की राजनैतिक मित्रता पहले से ही थी, अंटार्कटिका में मानवीय संवेदनाओं और प्रयासों के अनोखे संगम से उस मित्रता में नयी चेतना का उदय हुआ था.


    रूसी लालायित थे कि हम ऑक्टोबर में उनके स्टेशन में क्रांति-दिवस अर्थात ‘October Revolution Day’ के समारोह में बतौर अतिथि उपस्थित रहें. इस सम्बंध में औपचारिक निमंत्रण भी मिला. संस्मरण की अगली कड़ी में बताऊँगा क्या हुआ था उस निमंत्रण को घेरकर.

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(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)

 

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Comment by vijay nikore on January 18, 2014 at 7:45am

आपका आलेख पढ़ कर पुन: आश्वासन हुआ कि हमारे भारतीय भाई-बहन जहाँ भी हैं, जहाँ भी गए हैं, अनूठे हैं। शत-शत नमन।

इस रोचक लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on January 18, 2014 at 2:15am

भाई राम शिरोमणि जी, आपका हार्दिक आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on January 18, 2014 at 2:14am

आदरणीय सौरभ  जी, आप कितने सजग और गम्भीर पाठक हैं यह आपकी हर प्रतिक्रिया से स्पष्ट होता रहता है. जी, उस समय रूसी स्टेशन के सदस्यों पर बड़ी पाबंदी थी. वे हमारे यहाँ आकर चैन की साँस लेते थे क्योंकि हमारे यहाँ खाने-पीने की कोई पाबंदी नहीं थी, बातचीत करने में कोई डर नहीं था. कुछ वर्ष बाद मैंने बदले हुए नोवो स्टेशन को देखा था जब यू.एस.एस.आर. इतिहास बन चुका था और रूस का नया जन्म हो चुका था.

बोल्शेविक क्रांति के बारे में आपने रोचक तथ्य की ओर इंगित किया है....मुझे मालूम नहीं था....पढ़ना पड़ेगा.

आप सब लोगों की शुभकामनाओ के साथ यह संस्मरण अपने उद्देश्य में सफल होगा ऐसा मेरा विश्वास है. 

Comment by ram shiromani pathak on January 14, 2014 at 9:52pm

आदरणीय शरदीन्दु जी,आपके अनुभव,रहस्य,रोमांच,से भरे लेखों का अपना एक अलग ही आनंद है // हार्दिक आभार आदरणीय  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 14, 2014 at 2:17am

एक बार फिर से यह प्रमाणित हो ही गया कि भारतीय कितने जीवट भरे होते है, तो साथ ही कितना उत्सवधर्मी भी ! समस्त वैज्ञानिक नज़रिया रखने के साथ-साथ हम कला-पक्ष और अन्यान्य सामाजिक पहलुओं को भी कितनी प्रतिष्ठा और सम्मान से जीते हैं !

आदरणीय, हम-आप सामान्यजन ही तो आपस में मिल कर एक विशाल समुदाय बनाते हैं जो जीवंत भारतीय समूह कहलाता है.

इसीके साथ एक तथ्य और उजागर हुआ कि तबका यूएसएसआर कितनी विसंगतियों से भरा हुआ समुच्चय हुआ करता था. अन्यथा नब्बे के दशक में उसका यों हश्र न हुआ होता. और रूस की हालत आज ऐसी न होती जो सूपर-पावर के आसन से न केवल धराशायी हुआ बल्कि आज सामाजिक तौर पर यह अत्यंत त्रस्त देशों में शामिल है.

अपेण्डिसाइटिस का जानलेवा दर्द क्या होता है यह वही बता सकता है जिसने इस दर्द को न केवल झेला हो, बल्कि जिसका पेट इसी कारण शल्य-चिकित्सक द्वारा नश्तर से फाड़ा जा चुका हो. वह भी तब, अस्सी के दशक में !
मैं 1982 में इस तक़लीफ़देह प्रक्रिया से गुजर चुका हूँ.

सर, सिम्प्ली ये जानलेवा दर्द होता है !

बताइये उस रुसी वैज्ञानिक की क्या दशा हुई होगी जिसे उस असह्य दर्द में सात-आठ घण्टे इस लिए बिताने पड़ गये थे कि उस टीम को रुसी-सरकार से अनुमति लेनी थी !  कि, किसी दूसरे देश के (भारतीय) चिकित्सक से शल्य-चिकित्सा करवायी जाय या नहीं. यदि इसी बीच दर्द कर रहा अपेण्डिक्स ब्लास्ट कर गया होता तो उसकी मौत अवश्यंभावी थी. खैर.

ऑक्टूबर की बोल्शेविक-क्रान्ति के ज़िक्र से जाने कई तथ्य मस्तिष्क में कौंध गये. विशेषकर, 1917 में हुई रशियन क्रान्ति के बारे में पढ़ा हुआ वो तथ्य कि ऑक्टूबर-क्रान्ति वस्तुतः ऑक्टूबर महीने में हुई ही नहीं थी !

आपकी यह संस्मरण शृंखला बहुत अच्छी जा रही है. हार्दिक शुभकामनाएँ और सादर बधाइयाँ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on January 14, 2014 at 1:32am

आदरणीय अरुन शर्मा 'अनंत' जी, आपका हार्दिक आभार. मेरा प्रयास आपको पसंद आया जानकर मन प्रसन्न हुआ. स्नेह बनाए रखिएगा.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on January 14, 2014 at 1:30am

आदरणीय शुभ्रांशु जी, //अब तो हम भी गंगोत्री एक सदस्य हो गये हैं.// यह कहकर आपने मुझे गौरवान्वित किया. जी, अंटार्कटिका में हमारी असली क्षमता का परिचय मिलता है. आप जिस मनोयोग से ये लेख पढ़ रहे हैं वह सराहनीय है. मैं भी फोटो देना चाहता था. शुरु में दो चार फोटो मैंने संलग्न भी किया था लेकिन फिर कुछ समयाभाव और विशेष रूप से एक सपना कि इन लेखों के आधार पर एक पुस्तक लिखूँगा, के कारण मैंने अभी और फोटो न लगाने का ही निश्चय किया है. पुस्तक में आपको बहुत से चित्रों की सहायता से विवरण देखने को मिलेगा.

एक बार फिर आपका सादर आभार मेरा उत्साहवर्धन हेतु.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on January 14, 2014 at 1:21am

आदरणीय वीनस जी, बहुत आभार आपका. आप जब कहते हैं "मज़ा आ गया" तो बहुत संतोष मिलता है. ऐसे ही मेरा उत्साह बढ़ाते रहिये...मैं साझा करता रहूंगा मेरे अनुभव आपलोगों के साथ. सादर. 

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 13, 2014 at 12:19pm

आदरणीय सर अत्यंत महत्वपूर्ण लेख साझा किया है आपने काफी कुछ चीजें बारीकियों से जानने का अवसर मिला, हार्दिक आभार आपका बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर लेख हेतु.

Comment by Shubhranshu Pandey on January 13, 2014 at 10:35am

आदरणीय शरदीन्दु जी,

अब तो हम भी गंगोत्री एक सदस्य हो गये हैं.

अब तक बर्फ़ीली हवाओं के साथ कमर तक बर्फ़ में सैर के बाद, सूरज के क्षितिज के साथ आंख मिचौली का वर्णन सुन्दर था. आज तक हमने सूरज को बादलों के साथ ही ये खेल खेलते देखा है. 

एक बात जो इस वृतांत में खुल कर आ रही है कि आवश्यकता के अनुसार हर व्यक्ति अपनी क्षमता को बढा़ सकता है. एक रसोइया जिसने कार्यक्रम मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उसने भी अपने काम को नहीं छोडा़ था और रात को ही अगले दिन के लिये खाना बना दिया था.इसके साथ साथ उसे मेडिकल की भी जानकारी दी गयी थी. 

सबसे महत्वपूर्ण समय तो तब था जब एक रेडियो आपरेटर आपरेशन में डाक्टर की मदद कर रहा था. वो सारी घटना एक फ़िल्म की तरह लग रही थी, एक एक पल मुश्किल से कट रहा था. 

एक निवेदन है.... कभी कभी लेख के साथ उन लम्हों की एक दो फ़ोटो भी डाल दें, तो पढने के साथ साथ उस फ़ोटो को देख कर आपने आप को उस माहौल में ढालने में आसानी होगी और आनन्द भी ज्यादा आने लगेगा. 

एक बार फ़िर से बधाई..

सादर.

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