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फिर से जी लूँ ... अतुकांत कविता

ज़िम्मेदारियों में उलझी ज़िंदगी,
सरक-सरक कर गुज़रने लगी।

हादसों का सिलसिला ऐसा चला,
उम्र का अहसास गहराता गया।

उड़ने की ख़्वाहिश औ सारे ख़्वाब,
कहीं घुप अंधेरे में आंखें मूंदे बैठ गए।

अचानक तेज़ हवा के झोंके ने,
यूँ छू दिया कि नये अरमान उमड़ पड़े।

इस लम्बी रात का सुंदर सवेरा हुआ,
बादल छँट गए, इंद्रधनुष ने रंग बिखेरे।

फिर से जी लूँ, दिल ने तमन्ना की,
ऐ हवा के हसीं झोंके, रूख़ ना बदल लेना ।

मौलिक व् अप्रकाशित।

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Comment by Usha on September 23, 2019 at 3:27pm

आदरणीय समर कबीर सर, मेरी अभिव्यक्ति पर आपकी सकारात्मक टिप्पणी मेरे लिए अत्यंत हर्ष का विषय है। साथ ही आपके सुझाव मेरी साहित्यिक कृतियों को सुंदर रूप देते हैं। मैंने कविता में संशोधन कर पुनः पोस्ट कर दी है। आपका हृदय से आभार। सादर।

Comment by Samar kabeer on September 23, 2019 at 3:08pm

मुहतरमा ऊषा जी आदाब,अच्छी अतुकान्त कविता लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।

'उड़ने की ख़्वाहिश औ सारे ख़्वाब'

ग़ज़ल और छन्द में 'और' शब्द की जगह 'औ' शब्द का प्रयोग उचित होता है,लेकिन अतुकान्त कविता में 'और' शब्द ही लिखना चाहिए ।

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