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उम्र भर जो भी ग़रीबी के निशाँ देखेगा (३६)

उम्र भर जो भी ग़रीबी के निशाँ देखेगा 
कैसे मुमकिन है वो बाँहों में जहाँ देखेगा 
** 
कितना बारूद भरा होगा बताना मुश्किल 
लफ्ज़ से कोई निकलता जो धुआँ देखेगा 
**
दिल की रानाई का अंदाज़ा लगाए कैसे 
जो फ़क़त हुस्न कि फिर शोला-रुख़ाँ* देखेगा 
**
दर्द महसूस भला ग़म का उसे हो क्यों कर 
ज़िंदगी भर जो कोई ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ* देखेगा 
**
ज़ख़्म से ख़ून भी रिसता है कोई क्या जाने 
सिर्फ़ तस्वीर में जो नोक-ए-सिना* देखेगा 
**
नौजवाँ आज परेशान वतन में कब तक 
हार कर बैठा हुआ कार-ए-जियाँ* देखेगा 
**
कब तलक जिस्म शहीदों के फ़ना होंगे और 
मुल्क गद्दारों के बेशर्म बयाँ देखेगा 
**
ख़ुदक़ुशी मुल्क से कब जाएगी रुख़्सत होकर 
कब तलक खेत यहाँ अब्र-ए-रवाँ* देखेगा 
**
वक़्त अब हाथ में अपने है मिटा देंगे 'तुरंत '
जो सियासत में फ़क़त सूद-ओ-जियाँ* देखेगा 
**
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )

शब्दार्थ -शोला-रुख़ाँ*=आतिशी कपोल ,ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ*=आर्तनाद को रोकना ,नोक-ए-सिना*=तलवार की नोक ,कार-ए-जियाँ*=फल रहित कार्य ,अब्र-ए-रवाँ*=घूमते हुए बादळ ,सूद-ओ-जियाँ*=लाभ हानि 

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Comment by Samar kabeer on March 12, 2019 at 9:01am

जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

मतले का भाव स्पष्ट नहीं,ग़ौर करें ।


''जो फ़क़त हुस्न कि फिर शोला-रुख़ाँ* देखेगा"

इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा:-

'जो तेरे हुस्न को ऐ शोला रुख़ाँ देखेगा'

' ज़िंदगी भर जो कोई ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ* देखेगा'

'ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ' देेखने की  चीज़ नहीं ,ग़ौर 

करें ।

'मुल्क गद्दारों के बेशर्म बयाँ देखेगा'

'बयाँ' देखे नहीं सुने जाते है ।

'ख़ुदक़ुशी मुल्क से कब जाएगी रुख़्सत होकर'

इस मिसरे में 'जाएगी' और 'रुख़्सत' दोनों शब्द एक साथ मुनासिब नहीं ।

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