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खेल कैसे बनाते मिटाते रहे
जिंदगी को वो हम से चुराते रहे

भीड़ के संग़ रिशता बनाते रहे
पास कुछ तो रहे दूर जाते रहे

रंग बदले जमाने कई बार हैं
ये मगर साथ दुनिया दिखाते रहे

रौशनी साथ कुछ तो निभाना मिरा
अब तलक ये अँधेरे सताते रहे

देख कर मुझ को वो मुस्कराता हुआ
क्या कहें ग़म धुएं से उड़ाते रहे
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by gumnaam pithoragarhi on July 5, 2018 at 7:33pm

वाह वाह,,, अच्छी ग़ज़ल हुई,,,,

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2018 at 9:54pm

आ. भाई मोहन जी, हार्दिक बधाई ।

Comment by Mohan Begowal on July 2, 2018 at 4:15pm
  1. समर जी, सौरी कमेंट डलीट हो गया,
  2. खेल कैसे बनाते मिटाते रहे।
    जिंदगी को वो हम से चुराते रहे।

    भीड़ के संग़ रिशता बनाते रहे।
    पास कुछ तो रहे दूर जाते रहे।

    रंग बदले जमाने कई बार हैं,
    ये मगर साथ दुनिया दिखाते रहे।

    रौशनी साथ कुछ तो निभाना मिरा,
    अब तलक ये अँधेरे सताते रहे।

    देख कर मुझ को वो मुस्कराता हुआ,
    क्या कहें ग़म धुएं में उड़ाते रहे।
Comment by Samar kabeer on July 2, 2018 at 3:05pm

जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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