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ग़ज़ल -- ये क्या हो गया है भले आदमी को // दिनेश कुमार

122----122----122----122
.
जो आँखों से दिखती नहीं है सभी को
मैं क्यों ढूँढ़ता हूँ उसी रौशनी को
.
जो समझे मेरे दिल की सब अन-कही को
मैं क्या नाम दूँ ऐसे इक अजनबी को
.
सुधारेगा कौन आपके बिन मुझे अब
मुझे डाँटने का था हक़ आप ही को
.
भले रोज़मर्रा में हों मुश्किलें ख़ूब
बहुत प्यार करता हूँ मैं ज़िंदगी को
.
कसौटी पे परखे जो किरदार अपना
भला इतनी फ़ुर्सत कहाँ है किसी को
.
तुम्हें नूरे-जाँ भी दिखेगा इसी में
कभी ग़ौर से देखना तीरगी को
.
सराबों में कब तक भटकता रहेगा
तू दे अब तवज्जोह भी ख़ुद-आगही को
.
'दिनेश' अपने बारे में ही सोचता है
ये क्या हो गया है भले आदमी को
.
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2018 at 8:05am

वाह वाह वाह . आदरनीय दिनेश भाई,,
क्या खूब ग़ज़ल हुई है ,,,
जो समझे मेरे दिल की //हर// अन-कही को
एक सुझाव मात्र है..
ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई 

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