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आईने में सिंगार कौन करे (फिलबदीह ग़ज़ल 'राज')

2122     1212  22

.

दिल को फिर बेकरार कौन करे

आपका ऐतबार कौन करे

 

कत्ल का दिन अगर मुकर्रर है

 ज़िन्दगानी से प्यार कौन करे

 

तीर मुड़ जाएगा मेरी जानिब

 जानकर ये शिकार कौन करे

 

मैं शिनावर हूँ तैर जाऊँगा

नाव का इंतजार कौन करे

 

उनकी आँखे मेरे लिये काफी

 आईने में सिंगार कौन करे

 

जानकर ये मेरा कफस इतना

जिस्म को हद से पार कौन करे

 

होगा मेरा तो लौट आयेगा

मिन्नते बार बार कौन करे

 

जब नजर से ही काम चल जाए

तीर को  दागदार कौन करे

 

इश्क की पुरखतर सदा  राहें

हैं मगर  ये विचार कौन करे

 

चाँद तारों की आरजू है तुम्हें  

काम ये ख़ाकसार  कौन करे

 

है मुख़ालिफ़ भले लहू अपना   

रब्त को दरकिनार कौन करे  

.

-----मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on September 26, 2017 at 11:25am

आद० कल्पना भट्ट जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका बहुत बहुत शुक्रिया 


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Comment by rajesh kumari on September 26, 2017 at 11:24am

वाह्ह्ह आह्ह्ह अच्छी चर्चा हो गई ग़ज़ल पर आद० समर भाई जी ,आपने शेर दर शेर ग़ज़ल की समीक्षा की मेरे दिल को कुछ सुकून मिला दिल से बहुत बहुत शुक्रिया .एक दो बातों से मैं भी असमंजस में आ गई थी बीएस आपके ग़ज़ल पर आने की प्रतीक्षा थी |आपकी इस्स्लाह सदा शिरोधार्य है 

'इश्क़ की पुरख़तर सदा राहें----पुरखतर होती इश्क की राहें 
हैं मगर ये विचार कौन करे'----इतना लेकिन विचार कौन करे/किन्तु इस पर विचार कौन करे /जानकार भी विचार कौन करे

इसमें कौन सा  सही होगा  भाई जी 


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Comment by rajesh kumari on September 26, 2017 at 10:49am

आद० महेंद्र कुमार जी, ग़ज़ल पर शिरकत और सुखन नवाजी का तहे दिल से शुक्रिया | 


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Comment by rajesh kumari on September 26, 2017 at 10:48am

आद० दिनेश कुमार जी, ग़ज़ल पर शिरकत और सुखन नवाजी का तहे दिल से शुक्रिया  


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Comment by rajesh kumari on September 26, 2017 at 10:47am

आद० राजनवादवी जी,  ग़ज़ल पर शिरकत और सुखन नवाजी का तहे दिल से शुक्रिया. इस्स्लाह के लिए शुक्रिया आपका| किन्तु जिस नजरिये से मैंने ये शेर कहा है उसमे कत्ल ही मुनासिब होगा.(यहाँ भाव अरमानों के कत्ल का है )| 


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Comment by rajesh kumari on September 26, 2017 at 10:42am

जनाब अफरोज़ साहब ,ग़ज़ल  पर शिरकत और सुखन नवाजी का तहे दिल से शुक्रिया 


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Comment by rajesh kumari on September 26, 2017 at 10:41am

आद० सुशील सरना  जी ग़ज़ल पर शिरकत और सुखन नवाजी का तहे दिल से शुक्रिया मेरा लेखन सार्थक हुआ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 26, 2017 at 10:41am

आद० मोहम्मद आरिफ जी ग़ज़ल पर शिरकत और सुखन नवाजी का तहे दिल से शुक्रिया |

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 25, 2017 at 10:15pm

अच्छी ग़ज़ल कही है आपने आदरणीया राजेश दी | हार्दिक बधाई 

Comment by Samar kabeer on September 25, 2017 at 9:51pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा और शानदार फिलबदीह ग़ज़ल कही है आपने,बारहा मैंने देखा है कि फिलबदीह ग़ज़ल आप बहुत उम्दा कहती हैं,इसलिये मेरा मश्विरा है कि आप हर ग़ज़ल फिलबदीह कहा करें,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
आपकी ग़ज़ल पर चर्चा भी शुरू'अ हो गई है ।

'क़त्ल का दिन अगर मुक़र्रर है
ज़िन्दगानी से प्यार कौन करे'
इस शैर के ऊला मिसरे में कुछ लोगों का ये कहना है कि यहाँ 'क़त्ल' की जगह 'मौत'होना चाहिए,लेकिन मैं उनसे सहमत इसलिये नहीं हूँ कि मौत कर देने से इसके भाव 'ग़ालिब'साहिब के हो जायेंगे:-
"मौत का एक दिन मुअय्यन है"
'मौत का एक दिन मुक़र्रर है' क्या फ़र्क़ है, सिर्फ 'मुअय्यन'और 'मुक़र्रर' का जबकि इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है,'ग़ालिब'के ख़याल से इसे दूर रखने के लिए यहाँ "क़त्ल"शब्द पुरे अर्थ दे रहा है और बहुत बहतर लग रहा है ।

'उनकी आँखें मेरे लिये काफ़ी
आइने में सिंघार कौन करे'
ग़ज़ल में ये शैर बहुत ख़ूबसूरत हुआ है,बहुत पसंद आया,इसके लिए अलग से बधाई ।

सातवें शैर के सानी मिसरे में 'मिन्नते' को "मिन्नतें" कर लें ।

'इश्क़ की पुरख़तर सदा राहें
हैं मगर ये विचार कौन करे'
इस शैर में क़ाफ़िया बहुत उम्दा है, लेकिन शैर व्याकरण की वजह से बहुत कमज़ोर है ।

'चाँद तारों की आरज़ू है तुम्हें
काम ये ख़ाकसार कौन करे'
इस शैर में ऊला मिसरा बहुत उम्दा है, लेकिन सानी उसकी टक्कर का नहीं लग सका,कुछ सुधार मुमकिन हो तो कीजियेगा ।

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