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शराफ़त (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"तुम्हारे अब्बू तो बस क़िताबी बातें करते रहेंगे! तू तो छोड़-छाड़ अपने शौहर को!" मायके में आई अपनी लाड़ली बिटिया सलमा को समझाते हुए उसकी अम्मी ने कहा- "तुझे इतना पढ़ा-लिखा कर नौकरी इसलिए नहीं करवाई है कि तू शौहर से यूं दब कर रहे। आख़िर उसकी औक़ात क्या है, तू उससे तिगुना कमाती है!"

"तुम सही कहती हो अम्मी! ऐसे आदमी के साथ ज़िंदगी जीना तो मेरे लिए बहुत मुश्किल है, यहां अब्बू से परेशान रही और वहां शौहर और ससुर के उसूलों से!"

"अपनी सहेली नग़मा को देखो, शौहर को छोड़ अपने बेटे के साथ मज़े की ज़िंदगी जी रही है!"

"अम्मी, मेरा आदमी न तो यहां आयेगा अपने मां-बाप को छोड़ कर और न ही तलाक़ देगा मुझे! तुम्हारे बताये सब तरीके आजमा लिए मैंने!"

"तो तू ऐसा कर, अब यहीं रह, देखते हैं, वो कैसे तेरा तबादला अपने शहर में करवाता है? दोनों तरफ के पांच-पांच रिश्तेदार बुलाकर काजी साहब से तलाक़ करवा लेंगे, कोई बोझ नहीं है तू हम पर!"

तभी सलमा की फूफीजान आकर बोलीं -" बिटिया रानी, मेरा शौहर भी ऐसा ही था, मैं तो छोड़-छाड़ के यहां आ गई! न तो तलाक़ होने दी और न ही उनका दूसरा निकाह होने दिया। ज़मीन-जायदाद का हिस्सा भी ले लिया बेटे के नाम!"

"फूफीजान, तुम तो अपने साथ अपना बेटा भी ले आयीं थीं अपनी नौकरी की बदौलत! मेरी तो नन्ही सी बिटिया है, मैं क्या करूं!"

इन औरतों की बातें जैसे ही सलमा के अब्बूजान के कानों पर पड़ीं, तो ग़ुस्से में वे बोल ही पड़े-" कोई बात नहीं, तुम्हारी नन्ही बिटिया की परवरिश भी तुम्हारी तरह इन औरतों से करवा ली जायेगी! दरअसल तुम लोग मुसलमान कहलाने लायक ही नहीं हो! न शरिअ़त की समझ है, न शराफ़त और शरीफ़ इंसान की!"

तीनों औरतें एक-दूसरे की शक्लों को देख रहीं थीं। अक़्ल और कानों पर पर्दे पड़े हुए थे।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on May 1, 2017 at 4:28am
मेरी इस ब्लॉग पोस्ट पर समय देने व त्वरित टिप्पणी व हौसला अफज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ साहब। ऐसे बच्चों की समस्याओं पर विचार साझा करने​के लिए सादर हार्दिक आभार।
Comment by Mohammed Arif on April 30, 2017 at 9:38pm
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी आदाब,आजकल जिसे देखो वही तलाक का मुद्दा उछाल रहा है। लेकिन तलाक के दुष्परिणामों को कोई नहीं देख रहा है । तलाक चाहे बीवी माँगे या शौहर दूरगामी परिणाम में तो छोटे निरंकुश बच्चें ही ही पिसते हैं । मामला समझारी से सुलझा लिया जाय तो ही बेहतर है । आख़िरी पंच ने वह सबकुछ कह दिया जिसे औरतों को सीख लेनी चाहिए । बहुत बेहतरीन सामयिक लघुकथा । ढेरों बधाई क़ुबूल करें ।

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