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फोन की घंटी लगातार बज रही थी, रश्मि दूसरे कमरे में बैठी काँप गयी| किसी तरह फोन बंद हुआ तब तक विवेक भी अंदर आ गया और दूसरे कमरे में आकर बोला "यहीं बैठी हो, फोन क्यों नहीं उठाया?
रश्मि कुछ बोल नहीं पायी, उसके चेहरे पर जैसे सन्नाटा छाया हुआ था| तभी विवेक के मोबाइल पर बेटी का फोन आया "पापा, मम्मी घर में नहीं है क्या, फोन नहीं उठाया उन्होंने"|
"नहीं बेटा, वो घर में ही है, लो बात कर लो", कहते हुए उसने फोन रश्मि को पकड़ा दिया|
"सब ठीक है बेटी, बस ऐसे ही झपकी आ गयी थी इसलिए फोन नहीं उठा पायी", रश्मि ने झूठ बोल दिया और थोड़ी देर बात करके फोन विवेक को दे दिया|
"झूठ क्यों बोलती हो रश्मि, पिछले कई दिनों से देख रहा हूँ, आखिर फोन क्यों नहीं उठाती तुम", विवेक अब झुंझला गया था|
"ऐसे माहौल में एक बार फोन उठा चुकी हूँ मैं, अब हिम्मत नहीं पड़ती मेरी| अब दूसरा बेटा भी सीमा पर है और आजकल के हालात तो तुम भी देख रहे हो", कहते हुए फफक के रो पड़ी वह|
"एक फौजी की पत्नी और माँ होकर ये बात तुमको शोभा नहीं देती रश्मि| हमारा वो बेटा देश के लिए शहीद हुआ है", विवेक ने दृढ़ता से उसके कंधे को सहलाया|
"एक फौजी की माँ होने से पहले एक माँ भी हूँ मैं| और नम तो तुम्हारी ऑंखें भी होती हैं, बस छुपा लेते हो मुझसे", रश्मि की हिचकियाँ बंध गयीं|
विवेक भी वहीँ बैठ गया, कुछ बूँद आंसू के उसके गाल पर भी लुढ़क गए|
मौलिक एवम अप्रकाशित

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