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उजाड़े हैं हमारे घर, चले शकुनी के पासे हैं . 
तुम्हारे हाथ में हंटर, हुकुम हम तो बजाते  हैं . 
 
हमारी बेटियाँ, बहिनें तुम्हें जायदाद लगती हैं,
हमारा लुट रहा सब कुछ, मगर हम ही लजाते हैं . 
 
इधर जयघोष शंकर का, उधर अल्लाह-ओ-अकबर,
सुना दोनों तरफ दागी, तुम्हारी ही कृपा से  हैं . 
 
अँधेरा हँस रहा रौशन अनाचारी, दुराचारी,
निशा उपभोग करते हैं, दिवस जी भर सताते  हैं . 
 
बढ़ाते तेज कदमों को, उड़ाते धूल राहों की,
सुखों की रोशनी खातिर, कोई छप्पर जलाते  हैं . 
 
धवल शब्दों में लिपटी सोच बदबू से भरी मैली,
तुम्हें क्या फर्क पड़ता है, कि हम भूखे या प्यासे हैं . 
 
डराती धुंध सूरज को, दहाड़ें 'शून्य' अब पापी,
मगर सत्कर्म ओढ़े हम, यहाँ पर बजबजाते हैं .  
 
- शून्य आकांक्षी 
मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on September 25, 2016 at 10:57pm
जनाब शून्य आकांक्षी जी आदाब,पहली बार आपकी ग़ज़ल से रूबरू हुआ हूँ ।
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,इसके लिये बधाई स्वीकार करें,मिसरे लय में हैं मगर बयान साफ़ नहीं,इस तरफ़ ध्यान दीजियेगा ।
इस मंच पर ग़ज़ल के साथ बह्र लिखने का नियम है,आगे से ध्यान रखियेगा ।
Comment by PRAMOD SRIVASTAVA on September 24, 2016 at 11:54pm

सुन्दर रचना ।परन्तु सत्कर्म ओढ़े और बजबजाते का सम्बन्ध  खटक  रहा है। 

कृपया ध्यान दे...

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