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पत्थरों की नोक से घायल करें उगता सवेरा ( नव गीत 'राज ')

किश्तियों का छोड़ चप्पू

रौंदते पगडंडियों को

पत्थरों की नोक से

 घायल करें उगता सवेरा

 

आग में लिपटे हुए हैं

पाखियों के आज डैने

करगसों  के हाथ में हैं

लपलपाती  लालटेनें

कोठरी में बंद बैठी

ख्वाहिशों की आज मन्नत

फाड़ कर बुक्का कहीं पे

रो रही है देख जन्नत

जुगनुओं की अस्थियों को

ढो रहा काला अँधेरा

 

घाटियों की धमनियों से

रिस रहा है लाल पानी

जिस्म में छाले पड़े हैं

कोढ़ में लिपटी जवानी

मौत के साए उठा के

पूँछ पीछे भागते हैं

सी रहे हैं जो कफन को

सिर्फ दर्जी जागते हैं

उललुओं का हर शज़र की

शाख़ पर बेख़ौफ़  डेरा

 

धँस गई धर्मान्धता में

एतिहासिक भीत निर्मित

वादियों में हो रहे हैं

खंडहरों के गीत चर्चित

दांत अपने जीभ अपनी

वर्जनाएँ  हँस रही हैं  

सरहदों की मुट्ठियाँ

बदनामियों को कस रही हैं  

देख धूमिल रंग सारे ठोकता माथा चितेरा

पत्थरों की नोक से घायल करें उगता सवेरा

 

मौलिक एवं अप्रकाशित  

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Comment

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Comment by Samar kabeer on September 4, 2016 at 7:25pm
जी नहीं, ये अमीर खुसरो का नहीं है,बादशाह जहांगीर की स्वयं लिखी पुस्तक "तुज़क-ए-जहांगीरी"जो फ़ारसी भाषा में है, इसका उल्लेख है ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 4, 2016 at 6:44pm

जी  आद०  समर  भाई  जी ,ये काश्मीर के लिए बादशाह जहांगीर ने  कहा था  लेकिन सुना है ये सूफी कवि अमीर खुसरो ने लिखा था |

Comment by Samar kabeer on September 4, 2016 at 6:20pm
वाह बहना फ़ारसी का बहतरीन शैर पेश किया आपने,आप जानती हैं ये शैर किसने कहा था,बादशाह जहांगीर ने ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 4, 2016 at 5:50pm

आद० कांता रॉय  जी,ये नव गीत इसके भाव आपको रुचिकर लगे मेरा लिखना सार्थक हुआ घाटी में हालत क्या हो रहे हैं वहाँ के युवा क्यूँ अपना आपा खो गए हैं कहाँ गई वो जन्नत?बस इन्हीं भावों को उद्द्गारों को शाब्दिक किया है प्रस्तुति में |आपका दिल से आभार | 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 4, 2016 at 5:50pm

प्रिय प्रतिभा जी,उन वादियों से  कभी न कभी आपका भी जुड़ाव रहा होगा --ये भी मानती होंगी --"गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त/ हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त" धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं किन्तु आज के हालत में  वो फिरदौस .क्या से क्या हो गई है बस कुछ व्यथित उद्दगार थे जो शब्दिक किये हैं नवगीत में .आपको पसंद आया मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 4, 2016 at 5:39pm

आद० सतविन्द्र कुमार भैया  ,आपको नवगीत पसंद आया मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत आभारी हूँ | 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 4, 2016 at 5:38pm

आद० डॉ.गोपाल नारायण  भाई जी,आपको नवगीत पसंद आया मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत आभारी हूँ | 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 4, 2016 at 5:38pm

आद० समर भाई जी,आपको नवगीत पसंद आया मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत आभारी हूँ | 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 4, 2016 at 5:37pm

आद० सुशील सरना जी,ये नव गीत इसके भाव आपको रुचिकर लगे मेरा लिखना सार्थक हुआ घाटी में हालत क्या हो रहे हैं वहाँ के युवा क्यूँ अपना आपा खो गए हैं कहाँ गई वो जन्नत?बस इन्हीं भावों को उद्द्गारों को शाब्दिक किया है प्रस्तुति में |आपका दिल से आभार | 

Comment by kanta roy on September 4, 2016 at 3:51pm
फाड़ कर बुक्का कहीं पे
रो रही है देख जन्नत
जुगनुओं की अस्थियों को
ढो रहा काला अँधेरा...... वाह! वाह! कितना अनुपम लेखन हुआ है आपका यहाँ आदरणीया राजेश जी। उगते हुए सवेरा की विडंबनाओं को बिम्बित कर बहुत गुढ़ चिंतन को मजबूती से संदर्भित किया है आपने। बधाई प्रेषित है आपको।

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