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क़िताब ख़ास लिखी जाएगी जो आज कोई (ग़ज़ल 'राज ')

1212  1122  1212  112/22

बह्र –मुजतस मुसम्मन मख्बून मक्सूर

 

तनाव से ही सदा टूटता समाज कोई

लगाव से ही सदा फूलता रिवाज कोई

 

पढ़ेगी कल नई पीढ़ी उन्हीं के सफ्हों को

क़िताब ख़ास लिखी जाएगी जो आज कोई

 

न ख़्वाब हो सकें पूरे कहीं बिना दौलत

बना सकी न मुहब्बत गरीब ताज कोई

 

सियासतों में बगावत नई नहीं यारों

कभी चला कहाँ आसान राजकाज कोई

 

सभी मिलेंगे यहाँ छोड़कर शरीफों को

कोई फरेबी यहाँ और चालबाज कोई  

 

नचा रहे सभी एक  दूसरे  को यहाँ  

बजा रहा कोई ढपली कहीं पे साज कोई  

 

पँहुचते ही नहीं पैसे गरीब तक पूरे

कमाई ले उड़े जब बीच में ही बाज़ कोई

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 15, 2016 at 11:33am

आदरणीय समर भाई , मै आदरनीया राजेश जी शंका साफ तौर पर खत्म कर देता हूँ  अगर वो मेरी वज़ह से है -- यह कहके कि -

वर्क का बहु वचन  अवराक ही सही है , अतः आप आदरणीय समर भाई जी सलाह पर अमल करें और सफहों ही कर लें ।

आ. समर भाई ,  आपने ज़िद वाली बात कह के मुझे अपनी बात वापस ले ने के लिये मज़बूर कर दिया । मै अपनी सभी प्रतिक्रियायें वापस लेता हूँ ।

और ये कहना चाहता हूँ , कि इमानदारी से  आप हर उस  जगह , हर उन शब्दों का विरोध ज़रूर करें , जो गलत ढंग से  प्रयोग किये गयें हैं , चाहे हो हिंदी के हों या उर्दू के । चाहे शायर छोटा हो या बड़ा , अजीम शायर ही क्यों न हो । नही तो मै  कम से कम आपको निश्पक्ष नही मान सकता ।

गालिब चचा जे इस शेर के विषय मे आपके क्या खयालात हैं  , मै ज़रूर जानना चाहूँगा ।

देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़

इसके बाद आप किसी भी शब्द के विषय मे , मै बहस नहीं करूँगा , वादा है । और फाइदा भी क्या जब उद्देश्य को ही गलत समझ लिया  जाये ।
खुदा आपको अजीम सुअरा की गलती को भी गलत कह सकने की हिम्मत अता फरमायें ॥

Comment by Samar kabeer on July 15, 2016 at 11:07am
जनाब सुलभ अग्निहोत्री जी आदाब,में आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 15, 2016 at 11:03am

आद० सुलभ जी ,सर्वप्रथम मैं आपका हार्दिक आभार प्रकट करना चाहूंगी की आप मेरी  इस  पोस्ट पर आये और अपने विचारों से अवगत कराया | ये बात सही है की ओबिओ पर प्रस्तुतियों पर इस तरह की बहस चलती रहती है मैं सच कहूँ तो इसे बहस नहीं कहूँगी इसे समीक्षा पर चर्चा कहूँगी और अच्छी बात तब लगती है जब चर्चा सार्थक हो और जब ये मंथन सुचारू रूप से चलता है तो परिणाम बहुत बेहतर होते हैं यहाँ भी यही हो रहा है आद० समर भाई जी व् आद० गिरिराज जी में एक सार्थक चर्चा चल रही है |रही बात भाषा ज्ञान की तो मैं भी मानती हूँ कि अपनी मात्र भाषा में हमें अपने भाव प्रकट करने की सहूलियत अधिक होती है किन्तु मैं ये भी मानती हूँ कि यदि दूसरी भाषा का भी हमे कुछ ज्ञान है उसमे सीखते हुए भी हम अपने भावों को प्रकट कर सकें तो क्यूँ नहीं लिखें |अब बात ग़ज़ल की है तो ग़ज़ल ग़ज़ल होती है वो कोई हिन्दी या उर्दू में बंटी हुई नहीं होती ये बटवारा हम ही लोग करते हैं |हम हिन्दी में पचास साथ परसेंट उर्दू बोलते हैं और उर्दू वाले हिंदी या समझिये पचास साथ परसेंट शब्द हिंदी उर्दू दोनों में सेम हैं तो क्यूँ हम ग़ज़ल को भाषाई आवरण पहनाएं आप ग़ज़ल को इतिहास देखेंगे तो फ़ारसी से आई है फिर उर्दू में आज हिंदी में आ रही है और बड़े बड़े ग़ज़लकारों की ग़ज़लों में हिन्दी उर्दू फारसी या कहिये खिचड़ी शब्द मिलेंगे मेरा मानना यही है कि किसी विधा को हम भाषा की जंजीरों से बाँध देंगे तो उसका विकास क्या होगा क्या वो विधा संकुचित नहीं हो जायेगी ?

Comment by Sulabh Agnihotri on July 15, 2016 at 10:38am

इसके साथ ही मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि भाषा के अधकचरे ज्ञान के साथ उस भाषा में कविता लिखना उस भाषा के साथ ज्यादती के सिवा कुछ नहीं है। मुझे उर्दू का अधकचरा ज्ञान है इसलिये मैं गजल लिखूं या गीत हिन्दी में ही लिखता हूँ - अब आदरणीय राजेश कुमारी जी आप तय करें कि आपकी स्थिति क्या है। भाषा वैयाकरण नहीं बनाते, बोलने-लिखने वाले बनाते हैं। उसके बाद वैयाकरण उसका संस्कार करते हैं। हिन्दी बोलने वालों का अभ्यास हिन्दी का प्रथम प्रमाण है, उसके बाद व्याकरण का नम्बर आता है। 

Comment by Sulabh Agnihotri on July 15, 2016 at 10:34am

आदरणीया राजेश कुमारी जी, समर कबीर साहब, गिरिराज भंडारी जी !
ओबीओ पर यह बहस चलती ही रहती है। मुझे नहीं लगता कि इसका कोई मतलब है।
सीधी सी बात है कि यह लिखने वाला तय करे कि वह हिन्दी में लिख रहा है या उर्दू में। यदि वह हिन्दी में लिख रहा है (देवनागरी में लिखी गई भाषा को मैं तो हिन्दी ही मान कर चलता हूँ) तो उस पर हिन्दी व्याकरण के नियम चलेंगे और यदि उर्दू में लिख रहा है तो उर्दू के। यह तय राजेश कुमारी जी को करना है कि उन्होंने हिन्दी में लिखी है गजल या उर्दू में। हिन्दी में लिखी है तो वर्कों एक सौ एक फीसदी सही है। यदि उर्दू में लिखी है तो एक सौ दो फीसदी गलत।

Comment by Samar kabeer on July 14, 2016 at 11:38pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,आपकी इस बात से में सहमत हूँ कि अगर कोई बड़ा शायर कोई ग़लती करे तो हमें उसकी तक़लीद नहीं करना चाहिये, लेकिन यहाँ बात ग्रामर की आगई है और जहां तक में समझता हूँ कोई भी समझदार शायर ग्रामर की ग़लती नहीं करता,में ये भी जनता हूँ कि आप उर्दू ज़बान जानते हैं,लेकिन ग्रामर में तो कई उर्दू वाले भी चूक जाते हैं,यहाँ चर्चा हो रही है "वरक़"शब्द पर इसे 'वर्को' इसलिए नहीं बांध सकते कि 'रे'पर ज़बर लगा है, जैसे हम एक शब्द बोलते हैं और लिखते हैं "ग़लती" यहां भी लाम पर ज़बर लगा है, इसे भी हमें बोलने में तो ठीक है लेकिन शैर में इस तरह नहीं ले सकते,जैसे 'शे'र''शैर'इसमें 'ऐन'की आवाज़ नहीं आती,कुछ अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन्हें देवनागरी में लिखना सम्भव नहीं है, किताब का बहुवचन किताबों भी सही है और किताबें भी सही है ये शब्द 'ज़ेर'से शुरू होता है, वैसे इसका सही बहुवचन "क़ुतुब"होता है, ये भी ग़लत-उल-आम फसीह शब्द है,'वरक़'शब्द का बहु वचन 'अवराक़'है ये आप अच्छी तरह जानते हैं फिर आप इस पर क्यों बज़िद हैं कि "वर्क़ों"को भी सही माना जाये,बहना ने 'सफहों'पर रज़ामन्दी ज़ाहिर कर दी थी लेकिन आपकी टिप्पणी के बाद वो परेशान लगीं कि क्या किया जाये,बहस का कोई ख़ास मुद्दा हो तो उस पर चर्चा करने में लुत्फ़ आता है लेकिन ऐसी आंतों से ज़िद पैदा होती है और कुछ नतीजा नहीं निकलता,कृपया मेरी बातों को अन्यथा न लें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 11:18pm

आद० समर भाई जी ,आपने मेरे संशय का समाधान इतने  अच्छे से बारीकी से किया अब कोई संशय नहीं रहा आशा है भविष्य में भी इस बहना का इसी तरह मार्ग दर्शन करते रहेंगे सादर आभार |

Comment by Samar kabeer on July 14, 2016 at 10:20pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,अस्ल में उर्दू के कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो ग़लत होते हुए भी सही तस्लीम कर लिये गये हैं,उन्हें ग़लत-उल-आम फसीह कहा जाता है, मिसाल के तौर पर सही शब्द है "सुआल"जिसे बड़े बड़े विद्वान् भी 'सवाल ही बोलते और लिखते हैं,लेकिन उनकी भी तादाद कम है, वरक़ शब्द में रे पर ज़बर लगा होने के कारण इसे वर्क़ नहीं पढ़ेंगे बल्कि वरक़ पढ़ेंगे और लिखेंगे पलक के लाम पर चं चूँकि ज़बर नहीं है इसलिए पलकों या पलकें पढ़ और बोल सकते हैं,उर्दू के कुछ शब्द ऐसे हैं जिन्हें देवनागरी में लिखना सम्भव नहीं उन्ही में का एक शब्द वरक़ भी है, में अगर इसका सही तलफ़्फ़ुज़ लिखना भी चाहूँ तो देवनागरी में नहीं लिख सकता,हाँ मौखिक आपको समझा सकता हूँ,आपने जिस शायर की आज़ाद नज़्म मिसाल में पेश की है उसमें भी वर्क़ों नही लिखा है, किसी ग़ज़ल के शैर यानी बह्र वाली नज़्म में भी इस तरह का इस्तेमाल नज़र नहीं आएगा ।
में समझता हूँ बात आपने समझ ली होगी,फिर भी कोई बिंदु छूट रहा हो तो आप प्रश्न कर सकती हैं,मुझे बेहद ख़ुशी होगी ,बेहतर यही होगा कि आप फोन करके इसे और अच्छा समझलें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 7:24pm

आद०  धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 14, 2016 at 6:53pm

आदरनीय समर भाई , मै खुद यही चहता हूँ और यही बरतता भी हूँ , पर मेरा कहना हमेशा से यही रहा है कि कुछ जगय छूटें क्यों ले ली जाते है . आपकी नफ्स वाकी बात से सहमत हूँ , लेकिन क्या  आप-- खत को ख़तों  कहना जब कि खुतूत कहना चाहिये और क़िताब का बहु वचन  क़िताबों या क़िताबे कहना को सही कहेंगे ?

मै केवल इसी बात से असहमत रहता हूँ , ऐसा क्यूँ है कि अगर कोई बड़ा शायर कोई गलती कर दे तो उसे हम आगे से सही मानने लग जायें ।

जहाँ तक स्वतंत्र होने की बात है - मै स्वयँ कभी स्वतंत्र होना नहीं चाहता , मै वही कहना चाहता हूँ जो सही है । दर अस्ल मै दूसरों की गलती को दुहराये जाने की स्वतंत्रता के खिलाफ हूँ । इसी लिये मै विरोध करता हूँ , चाहे कोई माने या न माने , मै सि विरोध को भी ज़रूरी समझता हूँ । कम से कम लोग जानें तो सही क्या है , और गलत क्या है । अंततः तो सभी स्वतंत्र ही हैं ।

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