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पढ़ सके तू जो अगर - ग़ज़ल (लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

2122    1122    1122    22

खूब परहेज भी करता है दिखाने के लिए
है जरूरत भी मगर प्यार जमाने के लिए /1

सोच मत सिर्फ  बहाना है बहाने के लिए
वक्त है पास कहाँ तुझको मनाने के लिए /2

शौक पाला जो सितम हमने उठाने के लिए
आ गई  धूप  भी  राहों  में सताने के लिए /3

देख हालात को खुद ही तू  जगा ले अब तो
कौन  आएगा  तुझे  और  जगाने  के लिए /4

पढ़ सके तू जो अगर रोज किताबों सा पढ़
है नहीं  बात कोई  मुझ में छुपाने के लिए /5

कैसी किस्मत थी कि आखिर वो मरा भी बेघर
खूब बेघर  जो  रहा घर  को  बनाने के लिए /6

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment by TEJ VEER SINGH on January 29, 2016 at 7:28pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी जी!बेहतरीन गज़ल!

Comment by Samar kabeer on January 29, 2016 at 6:05pm
जनाब लक्ष्मण धामी'मुसाफ़िर'जी आदाब,बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं !
चोथे शैर के ऊला मिसरे में "अब तो"की जगह"अपने"और सानी मिसरे में "और"की जगह "यार"कर लें तो शैर और ख़ूबसूरत हो सकता है,देखियेगा !

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