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कुण्डलिया छंद (मेरा एक प्रयास)

रोपे जो थे फूल सब, लगते पेड़ बबूल !
काँटों बदले बीज सब, जो मन राखा शूल !!
जो मन राखा शूल, ध्यान में धारण कीजे !
मिलता वही प्रतिफल, ध्यान में जो धर लीजे !!
कहे हेम कविराय, बुरा क्यों मन में सोचे !
रोपे  भले बबूल, मन से फूल ही रोपे  !!

.

मौसम के यह ढंग भी, लगते बड़े विचित्र !
शरद ऋतु मेँ दिखते हैं, गर्मी के परिदृश्य !!
गर्मी के परिदृश्य, कि मौसम बहुत चिढ़ाता !
कभी वर्षा ऋतु में, सुखार है अति सताता !!
कहे हेम कविराय, घटाओ अभी प्रदूषण !   
समझो यह संकेत, कि कहता है क्या मौसम !!

.

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Hem Chandra Jha on February 4, 2016 at 2:31pm

हृदयतल से आभार आदरणीय Hari Prakash Dubey जी

Comment by Hari Prakash Dubey on February 2, 2016 at 2:27am

सुंदर प्रयास आ. हेम चन्द्र झा जी ,बधाई ! सादर 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 29, 2016 at 3:03pm
बहुत सुंदर प्रयास आदरणीय।
तुकान्तता में मेल नहीं दिख रहा।मैं भी सीखने के दौर में हूँ सो क्षमा चाहूँगा।
श्रद्धेय सुधिजनों से मार्गदर्शन की सादर अपेक्षा है।

बहरहाल बहुत बहुत बधाई आपको।

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