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दुविधा
सर्द साँझ थी जब शकीला अपने पति के साथ दफ्तर से घर लौट रही थी... वापसी में घर जाने की कोई जल्दी ना थी आराम से गंगा किनारे वाली शांत रोड पकड़, जहाँ अपेक्षाकृत कम ट्रैफ़िक रहता है, बीस-बाईस की गति से अहमद बाइक चला रहा था और शकीला उसकी पीठ से सर टिकाये अपनी थकान से मुक्ति पाने का प्रयास का रही थी. अभी आनंदेश्वर मंदिर पार भी ना हुआ था कि किसी बच्चे के रोने की आवाज़ से शकीला ने चौंक कर अहमद से पूछा, “आपने कुछ सुना?”
“हाँ मंदिर की घंटियों की आवाज़... क्यों क्या हुआ? मंदिर के पास वही तो होंगी.”
“अरे नहीं, रुको आप ज़रा!”
बाइक रुकते ही शकीला आवाज़ की दिशा में बढ़ी. पीछे से अहमद भी आ गया, “हुआ क्या, बताओगी?”
“मैंने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनी है...”
शकीला के बोलते ही अहमद ने उसके हाथ पकड़ लिए और कहा, “जो मुकद्दर में नहीं है, उसके पीछे यूँ नहीं भागते... चलो घर चलो.”
शकीला ने जैसे कुछ सुना ही नहीं, और आवाज़ के पास पहुँच गई. एक मासूम चादर में लिपटा कुलबुला रहा था... शकीला ने लपक कर शिशु को उठा, अपने सीने से लगा लिया.
दोनो आस पास उसकी माँ को खोजने लगे. इस आस के साथ कि वो ना मिले... वो जानते भी थे कि माँ को मिलना होता तो अपने बच्चे को यूँ ना छोड़ देती. तब तक भीड़ जुट चुकी थी, और कोई पुलिस को खबर भी कर चुका था. पुलिस की गाड़ी भी आ गई थी.
बच्चे को थाने ले जाया गया, जहाँ शिशु को अनाथाश्रम भेजने की कार्यवाही की जाने लगी. शकीला किसी हालत बच्चा छोड़ने को तैयार ना हुई...
मुद्दा अब ये था, कि मंदिर की सीढियों पर मिला बच्चा मुस्लिम दम्पति के हवाले कैसे कर दिया जाये?

मौलिक एवं अप्रकाशित
सीमा सिंह

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Comment by Seema Singh on January 19, 2016 at 6:16pm

आभार आ० प्रतिभा जी .

Comment by pratibha pande on December 22, 2015 at 2:51pm

 सीमाजी ,जब कथा पढनी शुरू की तो ,सर्द साँझ ,मुस्लिम दम्पति ,बच्चा मंदिर ,अक्सर पढ़ा जाने वाला प्लाट लगा ,पर अंतिम पंक्ति ने कथा का पूरा ही रंग बदल दिया  , बेहद सादगी  से ,बिना कोई कृतिमता लिए बुना गया शिल्प प्रभावशाली है.बधाई स्वीकारें इस रचना पर आदरणीया  

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