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अपराधी - लघु कथा ( जानकी बिष्ट वाही)

सांझी गली में सीढ़ियों के नीचे उसने अपनी गृहस्थी ज़मा ली। फ़टे- पुराने कपड़े,पुराना कम्बलऔर टूटे दो बर्तन।
धूप में बाल सुखाती, एक कॉपी में जाने क्या लिख रही थी। पूरा मोहल्ला आते-जाते कौतुहल से उसे देख रहा है।
चिथड़ों में लिपटी पगली बस स्टेशन के पास भीख मांगती थी।किसी ने उसे बोलते नहीं सुना था।छेड़ने पर पत्थर मारती थी।

"तुम ! यहाँ रहोगी ?" सुषमा ने पास जाकर पूछा।
उसने डरी -डरी आँखों से देखा कि कहीं मैं उसे दुत्कार न दूँ।फिर आश्वस्त होकर बोली -
" हाँ "
" कहाँ की रहने वाली हो ?"
"बिहार ।"
" उतनी दूर से यहाँ कैसे आ गई ?"
" लल्ली ! एक रात ससुराल के आँगन से कुछ लोग उठा ले गए।" किसी अनजाने नरक की कल्पना से उसका बदन थरथरा उठा।

" अब तो तुम आज़ाद हो ? वापस क्यों नहीं चली जाती? मुझे अपने घर का पता दो ।मैं चिठ्ठी भेज दूंगी वहाँ।वे आकर तुम्हें ले जायेंगे।"

" नहीं, लल्ली ! घर से उठाई औरत को कोई पनाह नहीं देता ।न समाज़ न परिवार । सीता जी को भी भगवान राम ने त्याग दिया था।अब ये खुला आसमान ही मेरा घर है। "

" तुम तो पगली नहीं लगती ? फिर ये रूप क्यों धरा है?"
अगर ये रूप न धरूँ तो लोग मुझे नोच कर खा जाएंगें ।" बोलते हुए उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में ज़माने भर का दर्द उभर आया।

ये सुन सुषमा का दिल भर आया इसका अपराधी कौन ?......

मौलिक एवम् अप्रकाशित।

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 19, 2015 at 3:47pm
बहुत बढ़िया कथानक पर सुंदर सार्थक भाव पूर्ण प्रस्तुति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीया जानकी बिष्ट वाही जी । लेकिन कई बार जासूस भी ऐसे रूप धारण कर ड्यूटी पर तैनात रहते हैं, पुलिस उनको भी पकड़ लिया करती है !
Comment by Janki wahie on December 17, 2015 at 10:27pm
सादर आभार आ.गोपल नारयण सरजी ।कथा पर सार्थक टिप्पणी कर उसका मान बढ़ाने के लिए।नमन।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 17, 2015 at 7:22pm

अगर ये रूप न धरूँ तो लोग मुझे नोच कर खा जाएंगें------------अच्छी कथा . बधाई

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