For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

अब ज़रा थक सा गया हूं, मैं

दुनिया देती मुझे बधाई, कि मैं कितना संभल गया
मुझे ग्लानि, आंख में पानी, कि मैं इतना बदल गया

एक समय होता था जब मैं,
न्याय की बात पर अड़ जाता था
आग धधकती थी सीने में
हर जुल्मी से भिड़ जाता था
अब रोज़ द्रौपदी होती नंगी, खून ज़रा भी नहीं खौलता
कोई सूरज को भी चांद कहे तो, चुप रहता हूं नहीं बोलता
कहते हैं सब भला हुआ कि अब चुक सा गया हूं मैं
सच तो ये है लेकिन अब, ज़रा थक सा गया हूं मैं .

थक गया हूं झूठे रिश्तों  का, बोझ उठाते-उठाते
थक गया हूं  बेशर्म  हवा में, आशाओं का दीप जलाते
थक गया हूं दो और दो को चार बनाते-बनाते
थक गया बेईमान समय में, मैं ईमान की पौध लगाते
भाई-चारे की अलख जगाते,  विश्व-कल्याण की रट लगाते
सबके घावों को सहलाते, रावण की नाभि तीर चलाते
राम को बनवास से वापिस लाते, बहुत थक गया हूं मैं .
मैं
जो न्याय की बात पर अड़ जाता था
हर जुल्मी से भिड़ जाता था

सीख लिया अब मैंने जत्न से, खुद को यहां जिन्दा रख पाना
थप्पड़ खाकर भी हंस देना, मुंह पर थुकवा कर चुप रह जाना
आ गया है हुनर मुझे अब, कि दामन अपना कैसे बचाना
बड़ों के पांवों में गिर जाना, कमज़ोरों को आंख दिखाना
धरती को मां कहने वालों को अब मैं मूर्ख कहता हूं
हो गया हूं इतना सयाना, बह्ती हवा के संग बहता हूं
सबसे छुप के मैं रो लेता , जब कभी भी दुख सहता हूं
मुखौटा लगा मुस्काता रहता, मज़े में हूं सबसे कहता हूं
मैं
जो न्याय की बात पर अड़ जाता था
हर जुल्मी से भिड़ जाता था

थका ज़रूर हूं ज़रा सा  बेशक, मानी नहीं है मैंने हार
रावण बैठे राम-सिंहासन, कैसे कर लूं मैं स्वीकार ?
अभी तो हरेक अंधियारे को कहना है मुझको  धिक्कार
अभी तो हरेक अभिमन्यु की करनी मुझको  जय-जयकार
अभी तो पानी नहीं हुआ है, खून मेरा अभी खून है
गिर गया हूं मरा नहीं हूं, जि़ंदा  जोश-जुनून  है
ना ही तो पूरा बदला, ना चुक ही गया हूं मैं
क्या हुआ जो अभी ज़रा थक सा गया हूं मैं
क्या हुआ जो अभी ज़रा थक सा गया हूं मैं 

.

(मौलिक व प्रकाशित )

Views: 1273

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on November 28, 2015 at 11:19pm
मेरी बात को मान दिया आभार आपका आदरणीय प्रदीप जी
Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 28, 2015 at 10:41pm
लो जी हमने रचना को एडिट कर दिया ।
Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 28, 2015 at 8:09pm

प्रिय सतविंदर भाई, आभारी आपको नहीं बल्कि मुझे होना चाहिए कि आपाधापी भरे इस युग मे आपं मेरे ब्लॉग पर दूसरी बार आए और ईमानदारी से कहा कि आपको मेरी रचना पढ़ कर आनंद आ गया .
मेरे द्वारा शब्द के ग़लत प्रयोग पर भी क्षमा मुझे माँगनी चाहिए, आप क्यों माँगें ? कोई कमी बताता है तो उसे अपना मित्र/ शुभ चिंतक समझ अहसान मंद होता हूँ . भविष्य में भी इंगित करते रहिएगा . अच्छा लगेगा . शुक्रिया भ्राता

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on November 28, 2015 at 7:53pm
क्षमा भी चाहूँगा हरेक अंधियारे और हरेक अभिमन्यु वाली पंक्तियों में मैंने शब्द कुछ अटपटा सा लग रहा है।मुझे ज्यादा जानकारी नहीं इस विधा की।हो सकता हैहै यह ठीक हो।पर//मैंने//की जगह " मुझको'' या मुझे ज्यादा ठीक लगते नज़र आ रहे है।मैं अभिभूत हूँ आपकी कविता पढ़कर।पर जो मुझे लगा सो कहा।कृपया अन्यत्र न लें।सादर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on November 28, 2015 at 7:46pm
बहुत बहुत बधाई आदरणीय प्रदीप जी।आपकी ये दूसरी रचना है जिसे मैंने पढ़ा है और मैं पूरी ईमानदारी से कह रहा हूँ आनन्द आ गया पढ़ने में।बहुत बहुत आभार आपका जो हमें अपनी रचना को पढ़ने का मौका दिया।
Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 28, 2015 at 6:59pm

आदरणीय सौरभ जी , बहुत आभारी हूं और प्रफुल्लित भी कि आप मेरे ब्लॉग की रचना पर बहुत देर रुके। मुझे जी भर कर प्रोत्साहन दिया और " अन्दर हाथ सहारि दे बाहर बाहर की चोट " वाला कर्तव्य भी निभाया। हर पाठक की प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत ही उपयोगी होती है , और आप तो आप ठहरे।
हमारे हरियाणा में एक कहावत है " बुआ आवेगी तो के (क्या) ल्यावेगी और जावेगी तो के दे के जावेगी " यानि दोनों बार कुछ न कुछ पाने का लालच।
यही लालच अब आपसे रहेगा। आपका हमेशा स्वागत रहेगा , बाहर की चोट देने के लिए।
समय मिले तो मुझे jagranjunction .com पर भी पढ़िएगा। वहां मेरी कुछ रचनाएँ हैं अन्ना अंकल को सम्बोधित। व्यंग्य का पुट देख कर अगर बता पाएं कि मेरा गद्य कैसा है , तो आभारी रहूंगा। धन्यवाद सहित , सादर ,प्रदीप


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 26, 2015 at 11:08pm

आदरणीय प्रदीप नीलजी, आपकी द्वितीय प्रस्तुति से गुजर रहा हूँ. आपकी संवेदनशील पंक्तियों ने अवश्य ही प्रभावित किया है. इनमें सतत प्रयासों तथा अथक जिजीविषा के प्रति आश्वस्ति है. आपकी भाषा में आवश्यक बेलौसपन है जो एक पाठक को सहज ही बाँध लेने में सक्षम है. प्रस्तुति की पंक्तियाँ प्रवाहपूर्ण है जो अवश्य ही वैधानिक मात्रिकता के सुचारू निर्वहन से संभव है. नज़्म शैली में प्रस्तुत हुई यह रचना आपके रचनाकर्म के प्रति भी भरोसा दिलाती है. आपसे यह मंच अवश्य ही विशेष भावाभिव्यक्तियों की अपेक्षा करेगा. हम सभी लाभान्वित होना चाहेंगे.

अलबत्ता, शब्दों की अक्षरियों के प्रति  --जिनमें चन्द्रविन्दु की आवश्यकता होती है, यथा, ’हूँ’--  अवश्य ही संवेदनशील रहने की आवश्यकता है, आदरणीय. आजकल कतिपय प्रिण्ट पत्रिकाओं में मान्य हो चली अक्षरियों के प्रति मोहग्रस्त होना उचित नहीं है. अनुस्वार और चन्द्रविन्दु का भेद को यदि सायास मेट दिया गया तो गेय रचनाओं में मात्रिक दोष के पैदा होने का ख़तरा बढ़ जायेगा. ऐसी कोई संभावना बने, यह उचित नहीं. 

इसी तरह, निम्नलिखित पंक्तियों में कर्ता ’मैं’ के साथ विभक्ति ने का उचित प्रयोग नहीं हुआ है. भले ही दिल्ली तथा आस-पास के क्षेत्रों में इस तरह के वाक्य प्रचलन में हैं. किन्तु, साहित्यिक रचनाओं में ऐसे वाक्यों से हम परहेज़ करें. 

अभी तो हरेक अंधियारे को कहना है मैंने धिक्कार
अभी तो हरेक अभिमन्यु की करनी मैंने जय-जयकार

आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी.

शुभेच्छाएँ

Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 26, 2015 at 10:13pm

प्रिय सुनील भाई , जान कर बिल्कुल भी अफसोस नहीं हुआ कि कविता आपका पसंदीदा विषय नहीं है . दर असल सोशल मीडिया पर इन दिनों कविताओं का रेला बह रहा है . लोग सिर्फ कविताएं लिख ही नहीं रहे बल्कि अपने नाम के आगे धड़ल्ले से कवि शब्द भी लगा रहे हैं . ऐसे में किसी भी संवेदनषील व्यक्ति का कविता पसंदीदा विषय न होना हैरानी की बात नहीं.
मेरा एकमात्र प्रयास रहता है कि मेरी कविता ऐसी हो जिससे हर कोई जुड़ाव महसूस करे. हर कोई में लेखक सुनील वर्मा जैसे रचनाकार हो सकते हैं और चौराहे पर बैठ कर जूत्ती गांठने वाले फत्तू मोची भी .
कोई भी कविता सिर्फ कवियों के लिए तो हरगिज़ ही नहीं होती। होनी भी नहीं चाहिए

Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 25, 2015 at 2:34pm

आदरणीया प्रतिभा जी , मेरी रचना को आप इतने गौर से पढ़ कर उत्साहवर्धन करें और मैं धन्यवाद भी ना कहूँ ,ऐसा नहीं हो सकता . कृपया हार्दिक आभार स्वीकार करें भविष्य मे भी आपका स्वागत रहेगा . यह बात और है कि मैं बहुत ही कम लिख पाता हूँ 

Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 25, 2015 at 2:31pm

प्रिय सुनील भाई, यह जान कर बेहद प्रसन्नता हुई कि मेरी रचना ने आपके मन को स्पर्श किया. आभारी हूँ कि मेरे ब्लॉग पर आने का आपने न केवल समय निकाला बल्कि अपनी अमूल्य टिप्पणी भी दी . आपको भरोसा दिला दूं कि भविष्य मे भी जब कभी मेरे ब्लॉग पर आएँगे, निराश हो कर नही लौटेंगे 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"2122 1212 22 दिल को पत्थर बना दिया तो नहीं  वो किसी याद का किला तो नहीं 1 कुछ नशा रात मुझपे…"
1 hour ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"ग़ज़ल अंत आतंक का हुआ तो नहींखून बहना अभी रुका तो नहीं आग फैली गली गली लेकिन सिर फिरा कोई भी नपा तो…"
2 hours ago
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"नमस्कार नीलेश भाई, एक शानदार ग़ज़ल के लिए बहुत बधाई। कुछ शेर बहुत हसीन और दमदार हुए…"
3 hours ago
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"नमस्कार जयहिंद रायपुरी जी, ग़ज़ल पर अच्छा प्रयास हुआ है। //ज़ेह्न कुछ और कहता और ही दिलकोई अंदर मेरे…"
4 hours ago
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"ज़िन्दगी जी के कुछ मिला तो नहीं मौत आगे का रास्ता तो नहीं. . मेरे अन्दर ही वो बसा तो नहीं मैंने…"
5 hours ago
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"आदरणीय जयहिन्द रायपुरी जी आयोजन का उद्घाटन करने बधाई.ग़ज़ल बस हो भर पाई है. मिसरे अधपके से हैं…"
5 hours ago
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"देखकर ज़ुल्म कुछ हुआ तो नहीं हूँ मैं ज़िंदा भी मर गया तो नहीं ढूंढ लेता है रंज ओ ग़म के सबब दिल मेरा…"
16 hours ago
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"सादर अभिवादन"
16 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186
"स्वागतम"
16 hours ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-129 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
16 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"जय-जय "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आपकी रचना का संशोधित स्वरूप सुगढ़ है, आदरणीय अखिलेश भाईजी.  अलबत्ता, घुस पैठ किये फिर बस…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service