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मूक अंतर्वेदना............... (डॉ० प्राची सिंह)

मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी

आँख सागर आँसुओं का सोख पीड़ा सह गयी

 

मानकर जीवन तपस्या अनवरत की साधना

यज्ञ की वेदी समझ आहूत की हर चाहना

मन हिमालय सा अडिग दावा निरा ये झूठ था 

उफ़! प्रलय में ज़िंदगी तिनके सरीखी बह गयी

मूक अंतर्वेदना....

 

खोज कस्तूरी निकाली रेडियम की गंध में

स्वप्न का आकाश भी ढूँढा कँटीले बंध में

दिख रही थी ठोस अपने पाँव के नीचे ज़मीं

राख की ढेरी मगर थी भरभरा कर ढह गयी

मूक अंतर्वेदना....

 

बाँध डालूँ रेत भी चट्टान सम जो चाह लूँ

जीत की संभावना होगी वहीं जो राह लूँ

लक्ष्य पर हो क्या? कठिन है आज फिर यह फैसला

हर घड़ी संवेदना क्यों सह सभी निग्रह गयी

मूक अंतर्वेदना....

 

चेतना का स्पंद क्रंदित, कर उठा प्रतिकार अब

किन्तु ले गाण्डीव उसको यह हुआ स्वीकार कब?

सारगर्भित मत समझ निःसार इस संसार को

आज फिर अवरुद्ध श्वासों की घुटन ये कह गयी

मूक अंतर्वेदना....

(मौलिक और अप्रकाशित)

 

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Comment by kanta roy on October 26, 2015 at 5:13pm

मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी
आँख सागर आँसुओं का सोख पीड़ा सह गयी------बहुत गहरी बात कह गई आप आदरणीय प्राची जी !

मन हिमालय सा अडिग दावे सभी ये झूठ थे
आँधियों में ज़िंदगी तिनके सरीखी बह गयी----- वाह !!! वेदना को आपने सुन्दर शब्द दे दिए है। ढेरों बधाई इस अप्रतीम रचना के लिए।

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