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गरीब /लघुकथा /कान्ता राॅय

" पापा , हम गरीब क्यों है ? "
" नहीं बेटा हम गरीब कहाँ .... देखो तो ....तुम शहर के सबसे बडे़ स्कूल में जो पढते हो ! " बेटे को दुलारते हुए पिता ने गोद में बिठा लिया ।
"लेकिन पापा , मेरे दोस्त कहते है कि मै गरीब हूँ । " बच्चे का मन बेहाल सा था ।
" क्यूँ कहते है तुम्हें वो गरीब ... अभी तो ...उस दिन तुम्हारे जन्मदिन पर शानदार दावत दी तुम्हारे दोस्तों को ! " पिता मन को कड़ा कर रहे थे ।
" तभी तो कहा ! उस दिन हमारे घर आने से ही तो उनको मालूम हुआ की हम गरीब है । वो कहते है कि जिसके घर में एल ई डी , ए. सी. और कार नहीं , वो गरीब होते है । " हताश पिता मुंह फेर कर अब बेटे से नजर चुरा रहे थे ।

मौलिक और अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 7, 2015 at 4:49pm

आदरणीया कांता जी, बढ़िया लघुकथा हुई है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. 

लघुकथा के शीर्षक 'गरीब' पर पुनर्विचार निवेदित है. सादर 

Comment by TEJ VEER SINGH on September 7, 2015 at 12:43pm

 हार्दिक बधाई आदरणीय कांता जी!बेहद खूबसूरती से बयान की आपने आज की गरीबी!सुंदर लघुकथा!

Comment by jyotsna Kapil on September 7, 2015 at 12:25pm
बहुत सुंदर कथा हुई है ये आ.कांता रॉय जी।आज सचमुच उक्त वस्तुए जीवन का आवश्यक अंग बन गई हैं।इसके बिना आपकी कोई सामाजिक हैसियत नहीं है।अच्छी कथा हेतु बधाई प्रेषित है।

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