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उसने कामवाली को जरा-सा जोर से क्या डांट दिया, पति और बेटे दोनों ने ये कहकर अयोग्य घोषित कर दिया कि उसकी नाहक ही परेशान होने उम्र नहीं है। परिवार के दबाव में स्टोर की चाबी बहू को सौपते हुए उसे लगा था जैसे उसके किचन नाम के किले पर किसी ने सेंधमारी कर ली हो।  वह सोच में डूबी थी कि अचानक बहू के चिल्लाने की आवाज सुनकर बोली-

 “अरे बहू सुबह सुबह क्यों डांट रही है बच्चे को, अब एक दिन स्कूल नहीं जाएगा तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा।” दादी की शह पाकर बच्चा दादी के साथ ही लग लिया। पूरा दिन दादी के साथ ही रहा। बहू रात के भोजन के बाद बरतन समेटकर बच्चे को लेने पहुंची। “बहू अब सोते में मत ले जाओ..आज ये मेरे पास ही सोने की जिद कर रहा था इसलिए यही सुला लिया।”

बहू मन मसोसकर बच्चे की चिंता के साथ-साथ इस चिंता में चली जा रही थी कि खुद उसे नींद आएगी कि नहीं। आखिर छः सालों में पहली बार बच्चे के बगैर सोना था। बहू को चुपचाप जाते हुए देखकर, उसके चेहरे पर एक स्मित रेखा खींच आई। जैसे उसने भी दुश्मन के किले पर फतह हासिल कर ली हो।

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 21, 2015 at 4:56pm

आदरणीया कांता रॉय जी, लघुकथा की सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 21, 2015 at 4:55pm

आदरणीय सौरभ सर,

आपकी बात से आश्वस्त हुआ हूँ सर.

भय लगता रहता है लघुकथा विधा का अभ्यास करते करते किसी गलत दिशा में उछल कूद न चालू कर दूं. इसलिए निसंकोच पूछ लिया.

सादर 

Comment by kanta roy on August 21, 2015 at 7:21am
वाह !!!!" रशोई घर की राजनीति "....सिलसिला पुराना है । अपने - अपने वर्चस्व की लड़ाई ,कौन कितना किसको झुका सकता है । लेकिन ये सब बस क्षणिक आवेश की ही बात होती है । संयुक्त परिवार में ये मीठी सी नोंक- झोंक कभी बढ़ भी जाती है लेकिन बिगडी हुई बात को सम्भालने की कला भी कोई इनसे ही सीखे । मजाल है कि कोई बाहर वाला इनके बीच अपनी दखल बना ले ! एक बहुत ही प्यारी सी लघुकथा बनी है ये आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी । बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 21, 2015 at 3:16am

हा हा हा.. :-))))))))))

भाई, आपने लघुकथा में जिस परिवार का ज़िक्र किया है मैं उसकी बात कर रहा था. जिन घटनाओं पर छोटी-छोटी बातें बड़ी हो जाती हैं वे किसी परिवार की दशा और दिशा बिगाड़ देती हैं. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 21, 2015 at 2:40am

आदरणीय सौरभ सर, रचना पर आपकी उपस्थिति से ही बहुत मान बढ़ जाता है....

हार्दिक आभार आपका.....

//भगवान मालिक है.. // किसका सर ? .... मेरा ...कि.... फतह करने वाली का ?


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 20, 2015 at 11:21pm

:-))

//बहू को चुपचाप जाते हुए देखकर, उसके चेहरे पर एक स्मित रेखा खींच आई। जैसे उसने भी दुश्मन के किले पर फतह हासिल कर ली हो //

भगवान मालिक है.. 

शुभेच्छाएँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 6, 2015 at 4:27pm

आदरणीय प्रतिभा जी, लघुकथा के मर्म तक पहुंचकर रचनाकर्म के सापेक्ष सार्थक प्रतिक्रिया दी है आपने. इस सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार....

Comment by pratibha pande on August 6, 2015 at 1:28pm
आ० मिथिलेश जी ,स्त्री मन के इस कोने पर कैसे आपने सेंध लगाली? पर बात एकदम सही है और कहा भी रोचक ढंग से है बधाई इस रचना के लिए आपको

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 6, 2015 at 11:21am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, लघुकथा की सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 6, 2015 at 10:16am

सास बहूँ का आंतरिक द्वन्द को बकूबी उजागर किया है आपने .  बधाई मिथिलेश जी . 

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